कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
थककर, हारकर दोनों भीतर चले आए थे।
कांछा पड़ोसी के जानवरों के गोठ में जाकर चुपचाप छिप गया था।
कुछ देर अंधियार में बैठा रोता रहा। फिर तनिक भय-सा लगा तो उठ खड़ा हुआ। खूटे के आगे अंधकार में कुछ हिलता-डुलता-सा लगता। सांकल खोलकर दबे पांव बाहर निकल आया। अपनी मडैया के कच्चे किवाड़ के पास आकर ठिठक गया-
हल्की, पीली आग उसी तरह जल रही है...भीतर से खिलखिलाकर हंसने की आवाज... गुरंग झगड़ा कर रहा है-हंस-हंसकर हाथापाई। लोग ऐसे भी झगड़ते हैं ! क्यों झगड़ते हैं? उसकी समझ में नहीं आ पा रहा था...मां के शरीर पर नाम मात्र के कपड़े भी उघड़े हुए. वैसा ही गुरंग..
कांछा ने आंखें मूंद लीं। उसकी समझ में कुछ भी न आया, फिर भी उसे यह सब अच्छा नहीं लगा। सांकल खोलकर वह फिर पशुओं के गोठ में घुस गया। मुड़े हुए घुटनों पर सिर टिकाए कछुए की तरह, हाथ-पांव सिकोड़े बैठ गया और सारी रात इसी तरह बैठा रहा...
सुबह दूध दुहने आई पड़ोसन ने देखा तो अचरज में पड़ गई, "अरे कांछा, तू यहां क्या कर रहा है?"
कांछा उसी तरह बैठा रहा। सूजी हुई लाल-लाल उनींदी आंखों से अपलक देखता रहा।
इतने में उसे खोजती-खोजती मां भी आ पहुंची।
पुचकारकर घर ले गई, “तू तो निरा-निरा पागल है रे कांछु ! रात खाना भी नहीं खाया, और इस ठंड में आकर छिप गया है ! कहीं तुझे बाघ या सियार उठाकर ले जाता तो... !”
कांछा वैसा ही गूंगा बना रहा।
आंगन में आकर उसने देखा-
ताजी कुछ हड्डियां बिखरी हैं-नारंगी के पेड़ की जड़ पर, सिसुड़े के पौधे के पास।
उन्हें समेटकर उसने मुट्ठी में दबा लिया। जहां पर बकरी का खूटा गड़ा था, वहीं पर उन्हें रख दिया मिट्टी और हरे पत्तों से बड़े जतन से ढककर।
"क्या कर रहा है कांछी?” मां ने मुड़कर देखते हुए पूछा-सहज जिज्ञासा से।
"कुछ नहीं... बकरी को बो रहा हूं.. यहां पेड़ उगेगा, जिसमें बकरियां लगेंगी... !"
“हो-हो-हो।” गुरंग भीतर से मुंह फाड़कर हंसता हुआ आया, 'इसी के साथ-साथ तुझे भी बो दें तो हरामी !"
मां को गुरंग का यह व्यंग्य अच्छा नहीं लगा। कांछा का हाथ पकड़कर वह भीतर ले गई।
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