कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
आंच पर रखी पतीली में बुदबुद मांस पक रहा था। वातावरण में तीखी गंध बिखर रही थी। समीप ही कांछा अचेत-सा सोया था। पीठ पर, घुटनों पर, जगह-जगह लकड़ी की मार के नीले निशान थे। बाईं कोहनी से लहू बह रहा था।
“येऽऽ कांछा, ले रोटी खा ले... !” मां ने आवाज़ लगाई तो उसने जैसे सुनकर भी सुना नहीं। वैसा ही पड़ा कराहता रहा।
गुरंग पास ही बैठा अंगारों पर रखकर कलेजी के टुकड़े भून रहा था। उन पर नमक मिलाकर, बड़ा स्वाद ले-लेकर चबा रहा था। पास ही पीतल का गिलास था, जिसमें से घूट भरकर वह कुछ गटक रहा था।
मां ने मड़वे की एक मोटी काली रोटी, और एक कटोरी में गर्म-गर्ग मांस उसके पास रख दिया, जिसे कांछा ने छुआ तक नहीं।
रोटियां बन चुकीं तो दोनों पास बैठकर खाने लगे।
"अरे, तू नमक के साथ क्यों खा रही है–शिकार ले ले !" गुरंग ने कहा तो वह जैसे किसी दूसरी दुनिया में खोई हुई थी।
"आज बरत है न ! शिकार नहीं...!”
'हो, हो,' करता हुआ गुरंग हंस पड़ा था, “तो सब मुझे ही खाना पड़ेगा?”
मां ने पहला कौर तोड़ा ही था कि सहसा हाथ ठिठक गया, कांछु, रोटी खा ले बबु !”
एक-दो बार उसने ये ही शब्द अनुनय से और दुहराए तो गुरंग को न जाने क्या सूझा ! कंबल का कोना खींचकर, उसे झकझोरता हुआ नड़ककर बोला, "ये हरामी साला, खाता क्यों नहीं?"
कटोरी से उठाकर एक बोटी उसके मुंह में जबरदस्ती लगाने ही वाला था कि कांछा चिल्ला पड़ा, "नहीं, नहीं, मुझे नहीं खाना...मेरी बकरी तुमने क्यों मारी, क्यों...?” सचमुच वह फिर रो पड़ा।
मेरे घर से ले आना हरामी... !"
"मुझे नहीं चाहिए और ! बस्स, मेरी ही बकरी मुझे दे दो।” फटी, काली आस्तीन से बहती नाक पोंछता हुआ, वह सिसक पड़ा।
मां ने उसके माथे पर हाथ लगाया, जो तप रहा था, "कुछ खा ले कांछा... दिन-भर का भूखा है। शाम को तो कह रहा था, बड़ी भूख लगी है इजा !”
तन पर कंबल लपेटे कांछा कुछ क्षण बाद चुपचाप उठा और बाहर निकल गया-गहरे अंधेरे में।
मां बाहर आई।
गुरंग भी।
पर वह अंधकार में ऐसा खोया था कि कहीं कुछ अता-पता ही न मिला।
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