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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


कांछा भभक पड़ा था। रस्सी कसकर हाथ पर लपेटता हुआ चिल्लाया, “यह मेरी बकरी है। इसे मैंने पाला है। मामा ने मुझे दी थी। इसे मैं नहीं दूंगा, नहीं दूंगा...!"

मां को शायद यह अच्छा नहीं लगा था, “तेरे लिए ऐसी और पाठियां ला देंगे तेरे चाचा। मांग रहे हैं तो दे दे। देख, तुझे कितना प्यार करते हैं ! तेरे लिए कोट लाए हैं। कपड़े का जूता भी...”

"मुझे नहीं चाहिए तुमारा कोट ! तुमारा जूता !” कांछा तुनक पड़ा था, “बस्स, मैं अपनी बकरी नहीं दूंगा...!”

मां कुछ न बोलकर चुपचाप भीतर चली गई थी। इस बार गुरंग उसके लिए बहुत-सा सामान लाया था... रंग-बिरंगी धोती थी। कांच की ढेर सारी चूड़ियां, बालों में बांधने के लिए रेशमी झालरदार फुंदे...

पास ही नौला था। वहां से पानी भरकर लाने के लिए मां ने कांछा के हाथ में रीती पतीली दे दी थी।

नौला के सामने घास उगी थी, बिच्छू के बड़े-बड़े कांटेदार पौधे ! नीचे कीचड़ थी। बच्चे नौले के पानी में डूबे पत्थरों से गनेल पकड़ रहे थे। कांछा की जेब में भी एक धागा था, जिससे उसने गनेल के सींग बांध लिए थे। अब उसे वह पत्थर पर चला रहा था...

सांझ के अंधियारे में जब वह घर की ओर बढ़ा, तो आंगन में ऊंची आग जलती दीखी।

ज्यों ही आंगन की सीढ़ियों पर पांव रखा, उसने देखा-बकरी का धड़ एक ओर लुढ़का पड़ा है। जलती आग पर रखकर, जिसकी खाल के सारे बाल जला दिए हैं। पतली-सी लाठीनुमा लकड़ी की नोक पर बकरी का कटा सिर अटका है। गुरंग धधकती आग में उसे भून रहा है... ज़मीन पर चारों ओर खून-ही-खून बिखरा पड़ा है, जो मिट्टी के साथ सनकर काला हो गया है।

कांछा चीख़ पड़ा। उसने आवेश में एक जलती लकड़ी उठाई और ज़ोर से गुरंग पर दे मारी।

गुरंग का हाथ झुलस गया था। चिंगारियां गिरने से कॉलर के पास से ऊनी कोट भी कुछ जल गया था। मुंह पर भी कुछ चोट लगी।

गुरंग ने बाज़ की तरह झपटकर उसे इतनी जोर से चांटा लगाया कि वह ज़मीन पर औंधे मुंह गिर पड़ा था।

“मेरी बकरी तुमने क्यों काटी? क्यों काटी-?” वह पागलों की तरह लगातार चीखे चला जा रहा था।

वह फुफकारता हुआ फिर उठने लगा था कि मां ने पास पड़ी लकड़ी से उसे तड़तड़ चूटना शुरू कर दिया, “मरता भी तो नहीं राकस! इसी के लिए जी रही हूं, पर यह है कि किसी और को जीने भी नहीं देता ! पैदा होते ही मर मुकता तो आज यह संकट तो न होता ! दो रोटियां तो कहीं से भी बटोर लेती ! इत्ती बड़ी दुनिया है... !”

कहती-कहती वह स्वयं भी रो पडी थी, दहाड़ मारकर।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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