कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
इस पर मां दुल-ढुल रोने लगती, “वह कोई और होगा... और होगा। परदेस का मामला है। हो सकता है, कहीं नौकरी-चाकरी में हों। जब तक टका-दो टका पास नहीं होगा, लौटेंगे किस मुंह !
खेत गिरवी हैं ! रहने को यह टूटी झोंपड़ी-| बर्फ के भार से किसी दिन बैठ गई, तो हम सब भी दबे पड़े मिलेंगे।”
'तू तो निरी पगली है। इत्ते साल हो गए। अब तक तो लोग सात समंदर पार से भी आ जाते हैं। तू मान क्यों नहीं लेती कि वह मर गया है, जब सारी दुनिया यही कह रही है... !
मां का रुदन तब और बढ़ जाता।
'मेरे होते हुए तू क्यों चिंता करती है?' उसने मां का ठंडा हाथ अपने हाथ में ले लिया था। पर मां वैसी ही चुप आंसू पोंछती रही थी।
रात को आग के पास बैठे वे पता नहीं कब तक बातें करते रहे थे ! और पता नहीं कब कांछा को नींद आ गई थी !
रात शायद अधिक बीत गई थी।
आग बुझने पर तनिक सर्दी-सी लगी तो सहसा उसकी नींद उचट गई थी। उसने देखा था-एक कोने में बिछी फटी चटाई पर मां और देवी गुरंग, एक ही पंखी में लिपटकर सो रहे हैं-एक होकर। ऐसे मामा-मामी को भी उसने देखा था, कई बार-कठबाड़े की दीवार की दरार से...
पता नहीं क्यों, उसे यह सब अच्छा नहीं लगा था ! देवी गुरंग भी उसे अच्छा प्रतीत नहीं हुआ था। घोड़े का जैसा मुंह ! ऊपर की ओर उठी बिल्ली की जैसी नुकीली, छितरी मूंछे ! 'हो-हो' मुंह फाड़कर हंसता तो पिशाच-जैसा लगता, वीभत्स !
दो-तीन महीने बाद वह फिर आया था। पता नहीं मां उसके आने पर इतना खुश क्यों थी ! पड़ोस में सुंतोली के घर से चा की पत्ती और गुड़ मांगकर लाई थी। साथ में एक पतीली गेहूं का आटा भी।
इस बार गुरंग तीन-चार दिन तक रुका था। साथ में लाल दवाई की बोतल भी लाया था।
एक दिन आंगन में बैठा वह बकरी को घास खिला रहा था कि बीड़ी का धुआं उगलता हुआ गुरंग बोला था, “खाने के लिए अच्छी है। मेरे घर में चार-पांच पाठियां और हैं, ऐसी ही। इसके खेलने के लिए ला देंगे। आज बहुत सर्दी है, हम इसे भून लेते हैं...।"
मां ने कांछा की ओर देखा था।
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