कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
वह रंग-बिरंगा टुकड़ा कितना अच्छा लगता था ! “अ ऽ ले 5 ले !" कहता हुआ, जब वह दूर से आता दिखलाई देता, तब वह अपनी नन्ही-सी रोएंदार पूंछ आसमान की ओर खड़ी कर, फर्-फर् इधर-उधर हिलाती हुई मिमियाने लगती।
अपनी दाहिनी हथेली से वह रोज़ उसके सिर पर, दोनों कानों के बीच सहला-सहलाकर देखता-अनुमान लगाता-सींगों की जगह अब कुछ-कुछ उभरी-सी लगती है-बूंटे की तरह। लगता, अब सींग फूटने ही वाले हैं...।
न्यफा, काजु, धामलि, गोरु रोज़ अपनी बकरियों के लंबे कान पकड़कर घसीटते रहते हैं, परंतु उससे ऐसा कभी भी हो न पाता। उसके हाथ कांपते। लगता, इस तरह ज़ोर से कान खींचने पर वे जड़ से उखड़ गए तो !
बिना कानों के बकरी कैसी लगेगी ! फिर उसे दरद भी तो खूब होगा न ! उसकी बकरी अभी कित्ती छोटी है !
स्वयं को दर्द देना उसे स्वीकार था, पर अपनी बकरी को नहीं ! उसके नन्हे प्राण कहीं नन्ही बकरी में बसते थे शायद !
अपने मामा के घर-पानिधार से लाया था, वह इस बकरी को। साल-सवा साल तक उसने मामा की गाय-बकरियां चराई थीं, स्वांला के बीहड़ वनों में। उनके पास ग्वाला नहीं था, इसलिए मां से कहकर उसे बुला लिया था-हाथ बंटाने के लिए।
पिता के लापता हो जाने के बाद, मामा के घर का ही कुछ सहारा बचा था। कालि पार, हिंदुस्तानी-राज में पिता, आस-पास के अन्य डोटियालों के साथ मेहनत-मजदूरी करने गए थे। साल-दो साल बाद और तो लौट आए, पर वे आज तक लौटे न थे। कुछ लोग कहते हैं-नदी पर पुल बनाते समय बह गए। कुछ लोग कहते हैं-बरमदेव मंडी में हैजे से मर गए। दुल्लू-दैलेख की तरफ भी किसी ने देखा था। कुछ का कहना था कि किसी विधवा से ब्याह करके नया घर बसा लिया है-कंचन पुरा की तराई की तरफ। पर यदि सचमुच जिंदा होते तो क्या एक बार भी कभी घर न आते !
फिर भी वे जिंदा हैं-यही मानकर मां ने अपने गले में चरेऊ का पल्ला अब तक बांधा हुआ था। चूड़ियां भी उतारी नहीं थीं। पर बड़े बेटे जेठा के गुजर जाने के बाद से अपने को हर तरह से असुरक्षित-असहाय अनुभव करने लगी थी। जेठा छोटा होने के बावजूद थोड़ा-बहुत हाथ तो बंटा ही देता था...
मामा के घर आकर भी सुख नहीं मिला। गाय-बछिया के पीछे-पीछे दिन-रात जंगलों में भटकने के पश्चात भी भरपेट भोजन नहीं। सबके खाने के बाद जूठा-पीठा जो भी बचता, उस सबको एक बर्तन में डालकर, उसके सामने रख देते-पशुओं की तरह।
और वह दिन भर का भूखा उन जूठे टुकड़ों पर टूट पड़ता। मामी ने कभी एक बार भी नहीं पूछा कि कुछ और चाहिए? या इत्ते से पेट भर जाता है कांछा?
रात को कभी-कभी उसके पांव दुखने लगते। असह्य पीड़ा होती। धौलि गाय इधर भागती, तो कालि खेतों की तरफ। बछड़े तो एक पल के लिए भी एक स्थान पर टिकते नहीं थे। डेढ़ सींग वाला बैल और भी विचित्र था। लंगूरों को देखते ही, पूंछ हवा में सीधी खड़ी कर, आंखें मूंदे सरपट भागने लगता।
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