कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
जगह-जगह से छलनी हुआ, मिलिट्री का फटा ख़ाकी कंबल लपेटे वह एक किनारे पर लुढ़क गया था-बंधी गठरी की तरह। उसके चेहरे पर धीरे-धीरे आतंक का भाव गहरा होता चला जा रहा था। उसे लग रहा था-वही वीभत्स, डरावना सपना वह जागी आंखों से फिर देख रहा है-स्वयं अपने को टुकड़ों में कटता हुआ...
बिल्ली की जैसी नुकीली मूंछों वाला यह 'भेड़िया' कभी भी उसे अच्छा नहीं लगा–वैसी ही लाल-लाल आंखें। वैसा ही डरावना चेहरा।
कंबल कसकर लपेट लेता है वह।
उस दिन भी इसी तरह बर्फ गिरी थी... तीन दिन तक लगातार...
उसका मन उदास हो जाता है। उसकी आंखों के सामने पहाड़ की ढलान पर बसा दूर-दूर छितरे घरों वाला एक छोटा-सा गांव घूमता है-देवदार के घने वनों में घिरा। चीड़ के पिरोल की नुकीली पत्तियों से छंहा, एक टूटा छप्पर। छप्पर की छांह में रहने वाले तीन प्राणी। पांवों के पास बंधी मिमियाती बकरी-चीतल की पाठी की तरह मटमैली। भोली ! जिसके सींग भी अभी तक फूटे न थे। अपना माथा, उसके माथे से टिकाकर वह कभी-कभी खेल में जोर आज़माइश किया करता था-बकरी की ही तरह ठेप देकर, हल्की-सी आक्रामक मुद्रा बनाता हुआ, माथे से माथा भिड़ा देता–ठप्प से !
पहले तो बकरी बालिश्त भर पीछे हटती, मोर्चा जमाने के लिए, पिछले दोनों पांवों पर तनिक अधिक बल देती हुई, फिर वह भी उसी तरह हमला कर देती, ठीक उसके माथे पर अपने माथे का निशाना साधती हुई–गर्दन किंचित पीछे की ओर टेढ़ी मोड़कर ठप्प की आवाज़ के साथ दोनों भिड़ जाते। एक आक्रमण के बाद, फिर सहसा पीछे हट जाते दोनों, दूसरे आक्रमण के लिए मोर्चा संभालते हुए।
यह आक्रमण-प्रत्याक्रमण का क्रम तब तक चलता, जब तक कि दोनों थक नहीं जाते।
बकरी के गले में रामबांस की पतली-सी रस्सी बांधे वह नीचे नौला की ओर दौड़ाता हुआ ले चलता है, पानी पिलाने के लिए। सीढ़ीनुमा खेतों की मेड़ों पर उग आई नर्म-नर्म, हरी घास अपने नन्हे हाथों से नोच-नोचकर, उखाड़कर, उसकी आंठी बकरी के मुंह की ओर ले जाता है...
उसकी छोटी-सी घुसली पीठ पर हाथ फेरता हुआ, जब तक वह एक-एक तिनका भली-भांति खिला न देता, सामने से हटता न था।
'शिवरात' के मेले में चार कोट दाड़िम बेचकर वह पीतल की छोटी-सी टुन-टुन घंटी लाया था-ख़रीदकर। दिनों तक उसे बकरी के गले में बांधे रहा। दलबहादुर की शादी की रात, भीड़-भड़क्के में न जाने कौन उसे उतारकर ले गया था ! तब मां की फटी घाघरी की गोट पर लगा, लाल कपड़े का बित्ते भर का टुकड़ा चीरकर, रस्सी की तरह बटकर बकरी के रीते गले पर बांध दिया था-फीते की तरह।
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