कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
लगभग तीन घंटे उसे स्टेशन पर रुकना था। इतने थोड़े समय में जैसे वह सारी बातें समाप्त कर लेना चाहती थी। मुझे आश्चर्य हुआ यह देखकर कि वह अपने साथ कुछ खाना भी बनाकर लाई है।
"आपको यह पसंद है न !" उसने मेरी ओर देखते हुए कहा, "जब भी खाने के लिए बैठती, पता नहीं क्या-क्या याद आने लगता ! अनायास हाथ रुक जाते।...हमारे आंगन में अब भी वे ही फल खिलते हैं। आपको कितने अच्छे लगते थे ! एक भी फूल मैं उनमें से तोड़ती न थी...आप कितनी दूर रहते हैं यहां से? बहुत घूमना-फिरना पड़ता है न ! ट्रेनों का सफ़र कितना ख़तरनाक है ! आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं...। 'वे स्टेशन तक छोड़ने आए थे। आपको जो पत्र भेजा था, वह उन्हीं को लेटर बॉक्स में डालने के लिए दिया था। मैंने उसे स्वयं बंद तक नहीं किया। अपने जीवन में मैंने कुछ भी तो नहीं रखा, छिपाने के लिए। मैंने कभी कोई गुनाह नहीं किया, ईश्वर साक्षी है..." खाते-खाते उसका हाथ अनायास ठिठक पड़ा।
मैं तटस्थ भाव से उसे देखता रहा–उसके सिर पर कहीं-कहीं सफेद बाल चमक रहे थे।
पहले वह हंसती रहती थी। साधारण-सी छोटी-छोटी बातों पर भी देर तक हंसती चली जाती। लगता था, हंसी का अदृश्य फव्वारा कहीं से फूट रहा है। हंसती अभी भी वह उसी तरह थी, लेकिन अब वह बात न थी। हंसते-हंसते उसका चेहरा कोरे कागज़ की तरह सफेद हो आता।
पिछले सात-आठ महीने वह बहुत बीमार रही थी। पर उसकी रुग्णता ने उसकी कंचन-सी काया को और भी तपा दिया था। उसकी आंखों की चमक पहले की अपेक्षा बढ़ आई थी।
"देखिए न ! खाने की जो-जो चीजें मुझे पसंद थीं, डॉक्टर ने सब मना कर दी हैं।” वह सामने बिखरा सामान समेटने लगी। उसके कहने में कहीं कोई शिकायत न थी। बड़े सहज ढंग से वह जैसे यों ही कह रही हो।
मुझे पहले से पता था कि बेबी उसके साथ होगी। अतः उसके लिए कुछ खिलौने लाया था। पास ही बेंच पर वह अकेली बैठी, निर्वंद्व भाव से खेल रही थी।
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