कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
बार-बार उसकी निगाहें अपनी दुबली-पतली कलाई पर बंधी घड़ी की सूई पर अटक आतीं। एक-एक क्षण गुजरने का उसे अहसास था। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, उसकी अधीरता बढ़ती चली जा रही थी। जैसे भागते समय को बांध लेना चाहती हो।
तब मर जाती तो आज आपको कैसे देखती?"
कंडिया में वह सामान समेटने लगी।
रेल की यात्रा और अनिद्रा से वह बहुत थकी-थकी-सी लग रही थी। सामान उठाते समय उसकी उंगलियां कांप रही थीं।
''अभी तो लंबा सफर तय करना है। आज यहीं आराम कर लेतीं !” मैंने कहा तो वह बिना मेरी ओर देखे, उसी तरह सामान समेटती रही। फिर कुछ सोचती हुई बोली, “तीन घंटे यहां ठहरने की बात 'उन' से कही थी। यों रुक भी सकती हूं, वे कुछ कहेंगे नहीं, लेकिन..."
इस 'लेकिन' के साथ उसने एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खींच दिया था। तभी बेबी का एक खिलौना नीचे गिर पड़ा। मैं उठाने ही वाला था कि उसने लपककर उठा लिया।
समय हो गया था, लेकिन अब तक ट्रेन आई न थी। इसलिए हग प्लेटफॉर्म पर टहलने लगे। स्टेशन की चहल-पहल देखकर बेबी बहुत खुश थी। बार-बार तरह-तरह के प्रश्न पूछ रही थी, पर वह उनका संतुलित-संयत उत्तर न दे पा रही थी।
"बड़े शहरों से डर-सा लगता है..." वह कुछ सोचती हुई बोली, "याद है, उस साल कितनी बर्फ गिरी थी ! आप रोज़ सुबह टहलने जाते थे। वह सड़क अब पक्की हो गई है। आप कभी उधर फिर आए नहीं न ! क्यों नहीं आए?...मैं रोज़ सुबह आंगन में खड़ी, उस सूनी सड़क पर न जाने क्या-क्या खोजा करती थी ! आप सच नहीं मानेंगे..." वह कहती-कहती अटक आई थी।
सामने के प्लेटफॉर्म पर खड़ी कोई मालगाड़ी अजगर की तरह धीरे-धीरे सरक रही थी। इंजन की तेज़ सीटी से सहसा बेबी चौंकी। उसने अपनी मम्मी की उंगली और कसकर पकड़ ली।
“पहले बहुत सपने आते थे। मैं खिड़की पर खड़ी देखती-आप हौले-हौले बर्फ पर चल रहे हैं। बर्फ की फुहारों से आपके कपड़े ढक गए हैं, चिट्टे सफेद हो आए हैं, लेकिन आपका चलना थमता नहीं...।"
बातों की दिशा बदलने के लिए मैंने कहा, “अब कब आओगी इधर?"
''बस, यह अंतिम यात्रा है..." उसका स्वर लड़खड़ा आया था। होंठ कांप रहे थे।
मुझे लगा, वह बहुत भावुक हो आई है। इस तरह की बहकी-बहकी, उखड़ी-उखड़ी बातें उसने पहले कभी नहीं की थीं। शायद इस लंबी, भयंकर बीमारी ने उसे हिला दिया हो। यों भावुक वह पहले भी कम न थी, लेकिन कभी भी उसने कुछ व्यक्त न होने दिया था।
उसके मना करने के बावजूद उसके लिए कुछ फल ख़रीदता हूं। लिफ़ाफ़ा थामते हुए उसके हाथ कांपने लगते हैं।
तभी ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगती है।
वह खिड़की के साथ वाली सीट पर बैठती है। उस शोरगुल में, उस भीड़-भाड़ में न जाने शून्य की ओर ताकती क्या खोजने लगती है ! उसके होंठ कुछ कहने के लिए फड़कते हैं, लेकिन कुछ बोल नहीं पाती। जब ट्रेन चलने लगी तो खिड़की पर झुकी अपना पीला हाथ हिलाती रही। खिड़की से बाहर मुंह निकालकर तब तक बाहर देखती रही, जब तक प्लेटफॉर्म ओझल न हो गया।
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