कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
हम गेट तक पहुंचे तो वह बोली, "आपको बहुत कष्ट दिया आज, लेकिन आपके आने से हमें कितनी खुशी हुई, आप सोच भी नहीं सकते।
मैं चलने लगा, तब भी वह अपने पति का हाथ थामे, बुत की तरह खड़ी उस अंधकार में न जाने क्या टटोल रही थी !
मैंने चेखव की जीवनी में ऐसा ही प्रसंग पढ़ा था कभी। मैं उस सारी रात सोचता रहा, जैसा एक के जीवन में घटित हुआ वैसा ही, ठीक उसी तरह क्या किसी और की जिंदगी में भी घटित हो सकता है...?
जिस दिन चलने लगा, वह लेक-ब्रिज पर खड़ी थी-बच्ची का हाथ थामे। उसके पति भी छोड़ने आए थे। बस चलने लगी तो उसकी आंखों में कुछ अजीब-सा भाव तैरने लगा था।
आए दिन की यात्राओं से इधर बहुत थक गया था। तपेदिक के साथ-साथ और भी बहुत-सी परेशानियां बढ़ गई थीं। इतने लंबे अंतराल में उसे केवल एक बार और देखा था। वे ही हरे-भरे पहाड़, वैसी ही सड़कें थीं, लेकिन लगता था, कहीं बहुत कुछ बदल गया है...।
एक दिन वर्षों बाद अकस्मात एक पत्र मिला। उसी की लिखावट में था : सत्रह तारीख़ को पचमढ़ी जा रही हूं। रेलवे-स्टेशन पर मिल सकेंगे?
निश्चित समय पर मैं स्टेशन पहुंचा तो वह वेटिंग रूम के आगे खड़ी थी। उसका चेहरा कितना बदल गया था ! छोटी-सी बच्ची साथ थी, जो मुझे देखते ही चहक उठी।
"यह तो उतनी ही छोटी है, जितनी मैंने इसे तब देखा था !"
मैं अभी कह ही रहा था कि वह ज़ोर से हंस पड़ी, "यह वह नहीं, उसकी छोटी बहन है।"
"हू-ब-हू वैसी ही है। हां, क्या नाम रखा इसका?" मैंने यों ही पूछने के लिए पूछा।
वह हंस पड़ी। उसकी हंसी वैसी ही थी-निश्छल, निर्मल।
"कुछ भी तो नहीं !" उसने मेरी ओर देखा।
"कुछ तो..."
"बस्स, बेबी कहते हैं। आप कुछ सुझाइए, वह रख लेंगे। क्यों बेबी?" उसने बेबी को समेटते हुए चूम लिया।
पास ही काउंटर से मैंने टॉफियों का रंग-बिरंगा डब्बा खरीदा तो बेबी खिल उठी। उसमें से टॉफियां निकाल–निकालकर मुझे और अपनी मम्मी को देने लगी।
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