कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
बाहर सनसनाती हुई हवा चल रही थी। सूरज के ढलते ही पहाड़ों में कैसा घुप्प अंधकार छा जाता है ! घाटियां अंधे कुओं जैसी लगती हैं। तब हाथ को हाथ नहीं सूझता।
बालकनी पर झुका मैं झील के चारों ओर झिलमिलाती ठंडी रोशनी की ओर देख रहा था। मरकरी बल्बों की नीली-नीली, हरी रोशनी एकदम सर्द लग रही थी। पेड़ों से लदे पहाड़ की ढलानों पर कहीं-कहीं पीले बीमार बल्ब अपने अस्तित्व का बोध करा रहे थे।
मेरी निगाहें अंधेरे में कुछ खोजने का असफल प्रयास कर रही थीं कि तभी नीचे से किसी ने आवाज़ दी।
सींक जैसा दुबला-पतला काला लड़का ठंड में ठिठुरता हुआ सीढ़ियों पर खड़ा था। कह रहा था, “जी...आपको बुलाया है..."
मुझे समझने में समय न लगा कि किसने बुलाया है। क्षण-भर असमंजस में डूबा कुछ सोचता रहा, 'कितनी दूर होगा यहां से?
"बस, यहीं पास ही..." उंगली उठाकर उसने अंधेरे में इस तरह इशारा किया, जैसे पास ही छूकर बतला रहा हो !
ओवरकोट पहनकर मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। लड़के के पांवों में मात्र फटी हुई चप्पलें थीं। वह बजरी से ढकी ढलवां सड़क पर बड़े जतन से संभल-संभलकर चल रहा था। पर मेरे अनभ्यस्त पांव बार-बार रपट पड़ते। कई बार तो मैं गिरते-गिरते बचा।
मुझे बड़ा अटपटा-सा, अजीब-सा लग रहा था। जिन लोगों को मैं भली-भांति जानता-पहचानता नहीं, उनके घर जाना मेरे लिए कम असमंजस का कारण नहीं था। फिर भी मेरे पांव बढ़ रहे थे और मैं चल रहा था।
जब आंगन में पहुंचा तो देखा-वह दरवाजे पर खड़ी है।
"आपने इत्ती देर कर दी !” वह उलाहने से बोली, “सब आपकी प्रतीक्षा में बैठे हैं...।”
'सब' शब्द से मेरे मन की परेशानी कुछ और बढ़ गई।
उसने गहरे नीले रंग की साड़ी पहनी थी। उसी रंग के अन्य परिधान थे। इस समय उसका चेहरा सुबह की तरह ज़र्द नहीं, ताजे फूल की तरह खिला था।
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- कथा से कथा-यात्रा तक
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- इस यात्रा में
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- इस बार बर्फ गिरा तो
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- एक सार्थक सच
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- तपस्या
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