कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"अभी तो सेनिटोरियम जाना है...!”
“तो शाम को आइए, छह-सात तक, कॉफ़ी हमारे साथ पीजिए। आप हमारे घर आ सकें तो हमें बड़ी खुशी होगी, सच !” वह इतनी बड़ी होकर भी अबोध बच्ची की तरह कह रही थी।
अपना पता देकर वह चली गई। मुझे आश्चर्य हुआ, न मैं उसके पति से कोई बात कर सका, न बेबी से ही। दरअसल इतना कुछ बोल गई कि दूसरों को समय ही न मिला।
शाम को सेनिटोरियम से लौटा तो काफी थका हुआ था। मन नहीं था कहीं जाने को। आरामकुर्सी पर आंखें बंद किए निढाल पड़ा रहा।
बाहर सनसनाती हुई हवा चल रही थी। सूरज के ढलते ही पहाड़ों में कैसा घुप्प अंधकार छा जाता है ! घाटियां अंधे कुओं जैसी लगती हैं। तब हाथ को हाथ नहीं सूझता।
बालकनी पर झुका मैं झील के चारों ओर झिलमिलाती ठंडी रोशनी की ओर देख रहा था। मरकरी बल्बों की नीली-नीली, हरी रोशनी एकदम सर्द लग रही थी। पेड़ों से लदे पहाड़ की ढलानों पर कहीं-कहीं पीले बीमार बल्ब अपने अस्तित्व का बोध करा रहे थे।
मेरी निगाहें अंधेरे में कुछ खोजने का असफल प्रयास कर रही थीं कि तभी नीचे से किसी ने आवाज़ दी।
सींक जैसा दुबला-पतला काला लड़का ठंड में ठिठुरता हुआ सीढ़ियों पर खड़ा था। कह रहा था, “जी...आपको बुलाया है...”
मुझे समझने में समय न लगा कि किसने बुलाया है। क्षणभर असमंजस में डूबा कुछ सोचता रहा, 'कितनी दूर होगा यहां से?
"बस, यहीं पास ही..." उंगली उठाकर उसने अंधेरे में इस तरह इशारा किया, जैसे पास ही छूकर बतला रहा हो !
ओवरकोट पहनकर मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। लड़के के पांवों में मात्र फटी हुई चप्पलें थीं। वह बजरी से ढकी ढलवां सड़क पर बड़े जतन से संभल-संभलकर चल रहा था। पर मेरे अनभ्यस्त पांव बार-बार रपट पड़ते। कई बार तो मैं गिरते-गिरते बचा।
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