कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
उस दिन बड़ी सर्दी थी। ओले गिरने से शाम तक ठंड कुछ और बढ़ गई थी। उस ढलवां सड़क पर, लंबा ऊनी कोट पहने अकेला चल रहा था। तभी गर्म कपड़ों से ढकी, वह अपने पति के साथ, नन्ही बच्ची का हाथ थामे, लंबे-लंबे डग भरती दिखाई दी। बच्ची के छोटे से हाथ में पतली जंजीर थी, जिससे बंधा एक बौना झबरैला कुत्ता उछल-उछलकर दौड़ता हुआ, उनका साथ देने का असफल प्रयास कर रहा था।
वे चुपचाप चल रहे थे। पास ही झील पर से उठती हल्की-हल्की हरी लहरों की ओर वह उड़ती नज़रों से देख रही थी।
ज्यों ही उसने सामने देखा, उसका चेहरा सहसा चमक उठा। अपने प्रति वह सचेत हो आई। दूर से ही उसके दुबले-पतले सफ़ेद हाथ यंत्रवत जुड़ गए।
“उस दिन आप कहां चले गए थे?" उसने इस तरह पूछा जैसे बहुत पहले से जानती हो।
"अपने डेरे पर..." मैंने मुस्कराने की चेष्टा की।
"आप शायद हमें पहचान नहीं पा रहे हैं, पर हम आपको अच्छी तरह जानते हैं। अकसर हम लोग आपके विषय में बातें करते रहते हैं। हां, ये मेरे पति हैं," तनिक घूमकर उसने कहा, "और यह हमारी बिटिया ! इसे हम 'बेबी' कहते हैं !"
प्रत्युत्तर में मेरे कुछ कहने से पहले ही वह फिर बोल उठी, "इत्ती सर्दी में आप जा कहां रहे हैं?"
"यों ही टहलने..."
"आज काफी घना कुहरा है," उसने बड़ी परेशानी से कहा, "लगता है, इस साल बहुत बर्फ गिरेगी !"
सचमुच घना कुहरा चारों ओर घिरने लगा था। झील की सतह से ठंडा धुआं जैसा ऊपर उठ रहा था। घास पर गिरी ओस की बूंदें जम चुकी थीं। वातावरण में अजीब-सी मनहूसियत छाई हुई थी। लगता था, सारा शहर वीरान हो गया है। बड़ी मुश्किल से कहीं-कहीं कोई आदमी दीखता था। अधिकतर मकान, होटल बंद हो चुके थे। इक्का-दुक्का कारें बस-स्टैंड पर दीखतीं या फिर रोडवेज की बसें !
"आपको जल्दी न हो तो...मेरा मतलब...एक प्याला कॉफ़ी पीकर जाते ! हम यहीं पास ही तो रहते हैं-उस सामने वाले मकान में, जहां कत्थई छत दीख रही है...
मैंने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा।
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- इस बार बर्फ गिरा तो
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