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ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी

विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:१०५:


परंतु अलीमर्दानवाले दस्ते ने इस भीषण आक्रमण को उसी तरह रोक लिया, जैसे ढाल तलवार का वार रोक लेती है। जिस ओर से लोचनसिंह आक्रमण कर रहा था, उस ओर कालपी की एक टुकड़ी ने भयंकर संग्राम आरंभ कर दिया। परंतु वह दो तरफ से घिर गई।

अलीमर्दान देवीसिंह के सैनिकों से लड़ता-भिड़ता, पंक्तियों को चीड़ता-फाड़ता नदी के किनारे आ गया, जहाँ रात के आरंभ से ही विराटा के कुछ सैनिक प्रहरी का काम कर रहे थे। उन्हें थोड़े-से क्षणों में समाप्त करके वह अपने कुछ सैनिकों सहित नाव पर चढ़ गया। उसके एक दस्ते ने तीरवर्ती गाँव पर अधिकार कर लिया। विराटा-गढ़ी की फटी दीवारों में से बंदूकों की एक बाढ़ चली। अलीमर्दान के कुछ सैनिक हताहत हुए। उसके

और सैनिक प्रचुर संख्या में पानी में कद पड़े। वहाँ धार छोटी थी। वे लोग जल्दी ही ध्वस्त मंदिर के पीछेवाली पठारी पर आ गए। अलीमर्दान भी वहीं नाव द्वारा आ गया।

देवीसिंह प्रबल पराक्रम से ही अलीमर्दान के शेष सैनिकों को पानी में कूद पड़ने से रोक सका। उसके दल ने उन लोगों को थोड़ा-सापीछे हटाया। फिर देवीसिंह भी अपने कुछ सैनिकों के साथ पानी में कूद पड़ा।
अलीमर्दान और उसके सैनिक दौड़ते हुए ऊपर चढ़े। विराटा के पीत-पट-धारी अपनी ट्टी दीवारों के बाहर निकल पड़े। तलवारों से सिर और धड़ कटने लगे। अलीमर्दान के सैनिक कवच और झिलम पहने हुए थे, तो भी दाँगियों की तलवारों ने उन्हें चीर डाला।
सबदलसिंह ने अलीमर्दान को ललकारा, 'जब तक इस गढ़ी में दाँगी का जाया जीवित है, तेरी साध पूरी न हो पाएगी। ले।'

अलीमर्दान चतुर लड़ाका था। सबदलसिंह के वार को बचा गया और फिर उसने अपनी तलवार का ऐसा प्रहार किया कि उसका दायाँ हाथ कंधे से कटकर अलग जा गिरा। सबदलसिंह भूशायी हो गया। बेतवा की मंदगामिनी धारा पर रपट-रपटकर
चमकनेवाली किरणों की ओर उसकी दृष्टि थी।

फिर जो कुछ हुआ, वह थोड़े-से क्षणों का काम था। सबदलसिंह के योद्धा अलीमर्दान के बचे हुए दस्ते की तलवारों की नोकों पर झूम-झूमकर आ टूटने लगे। अलीमर्दान के थोड़े से ही कवचधारी उन लोगों से बच पाए। परंत दाँगी कोई न बचा। जगह-जगह कटे-कुटे शरीरों के ढेर लग गए। 'केसरिया बानों' से ढंकी हई पृथ्वी हल्दी से रँगी मालूम होती थी. मानो रणचंडी के लिए पांवड़ा बिछाया गया हो।
देवीसिंह अपने थोड़े से सैनिकों सहित गढ़ी के नीचे आ गया। विलंब हो गया था। अलीमर्दान गढ़ी में प्रवेश कर चुका था।

देवीसिंह ने अपने सैनिकों को, जो उस पार थे, नदी में कूद पड़ने के लिए हाथ झुकाया।

इतने में कुंजरसिंह ने एक गोला दलीपनगर की इस टुकड़ी पर फेंका। इस कारण उन्हें जरा पीछे हटना पड़ा। परंत दलीपनगर की सेना का एक बहुत बड़ा भाग नदी-किनारे के जरा ऊपरी भाग से पानी में कद पड़ा और वेग तथा व्यग्रता के साथ देवीसिंह की ओर आन लगा। देवीसिंह धीरे-धीरे गढ़ी की ट्टी दीवारों की ओर चढ़ने लगा। पीले कपड़ों से ढका हुइ मृत और अर्द्धमत देहों को देखकर उसका कलेजा धंसने लगा और पैर लड़खड़ाने लगे। वह गढी के भीतर न जा सका। धार तैरकर आनेवाले अपने सैनिकों के आन तक वहीं ठिठक गया। पीले वस्त्रों से ढंके हए लोहलहान शवों की ओर फिर आँख 'गई। हाठ दबाकर मन में कहा-कुंजरसिंह की हिंसा ने इन्हें मझसे न मिलने दिया।

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