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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:१०४:


प्रभात-नक्षत्र क्षितिज के ऊपर उठ आया। दमक रहा था और मुसकरा-सा रहा था। वनराजि और नीचे की पर्वत-श्रेणी पर उसका मंदर मृदुल प्रकाश झर-सा रहा था।

देवीसिंह ने देखा, प्रातःकाल होने में अब क्षणिक विलंब नहीं है। उसने रामनगर की ओर वह बँधा हआ संकेत किया, जिसे पाकर उस गढ़ी की तोपों को विराटा पर गोले बरसाने थे। उस संकेत के पाने के आधी घड़ी बाद विराटा पर गोले आने लगे।
तब देवीसिंह ने सोचा, यह अच्छा नहीं किया। यदि हमारी तोपों ने इन पागल दाँगियों को पीस डाला, तो अलीमर्दान का विरोध करने के लिए केवल हम हैं। अब किसी तरह यहाँ से अलीमर्दान को हटाना चाहिए। दिन निकलने के पहले यदि हम विराटा पहुँच गए, तो कदाचित् हमारी ही तोपों से हमारा ही चकनाचूर हो जाए, इसीलिए सूर्योदय तक केवल अलीमर्दान को खदेड़ने का उपाय करना ही ठीक जान पड़ता है।
देवीसिंह ने अपने दल को आक्रमण करने का आदेश दिया। 'अल्ला हो अकबर' के साथ 'दलीपनगर की जय, महाराज देवीसिंह की जय' की पुकारें सम्मिलित हो गईं। अलीमर्दान को अनजानी दिशा के आकस्मिक आक्रमण के धक्के को झेलने में विचलित हो जाना पड़ा, परंतु उसके सैनिक दलीपनगर के सैनिकों की तरह ही युद्ध के लिए तैयार खड़े थे। मुठभेड़ के प्रथम धक्के से पहले जरा पीछे हटकर फिर आगे बढ़े। आज अलीमर्दान बेतरह सचेष्ट था। देवीसिंह भी कोई कसर नहीं लगा रहा था। दोनों ओर के सैनिक भी हाथ और हथियार दोनों पर प्राणों की होड़ लगा रहे थे। बराबरी का युद्ध हो रहा था। दोनों संयत तेजस्विता के साथ लड़ रहे थे। ऐसा भासित होता था कि उस युद्ध , का भाग्य-निर्णय एक बाल से टँगा हुआ है।
प्रातःकाल का प्रकाश होने तक देवीसिंह ने जमकर लड़ना ही ज्यादा अच्छा समझा। तितर-बितर होने में सारी योजना भ्रष्ट हो जाने का भय था। यही बात अलीमर्दान ने भी सोची।

निदान, पूर्व दिशा में लाली दौड़ी। अंधकार एक क्षण के लिए सघन और एक क्षण के लिए छिन्न-भिन्न-सा होता दिखाई दिया।
उत्सुकता के साथ देवीसिंह ने जनार्दन शर्मा और लोचनसिंह के दलों को आँख से टटोला। जनार्दन की टुकड़ी तितर-बितर हो गई थी। कालपी के दल का एक भाग रामनगर की तलहटी में पहुँच गया था, दूसरा देवीसिंह की बगल में ही जनार्दन के एक भाग से उलझा हुआ था और जनार्दन थोड़े से सैनिकों के साथ कालपी की दूसरी टुकड़ी से घिरा हुआ था। इसमें छोटी रानी भी भाग ले रही थीं। लोचनसिंह का एक दस्ता

- कालपी के एक टुकड़े को अलीमर्दान की छावनी के पीछे निकाल चुका था। लोचनसिंह कालपीवाले दस्ते पर एक ओर और अलीमर्दान के तैयार योद्धाओं पर दूसरी ओर से प्रहार कर रहा था।
लोचनसिंह को अपने निकट देखकर देवीसिंह ने चिल्लाकर कहा, 'शाबाश चामुंडराय, बढ़े चले जाओ।' इस वाक्य को लोचनसिंह या उसके किसी सैनिक ने नहीं सुन पाया, परंतु देवीसिंह के अनेक सैनिकों के मुँह से यह वाक्य एक साथ निकला।
लोचनसिंह की टुकड़ी ने भी उत्तर दिया, 'आए, अभी आए।'

जनार्दन देवीसिंह के और भी पास था। देवीसिंह ने चिल्लाकर कहा, 'जनार्दन, घबराना नहीं। लोचनसिंह और हमारे बीच में शत्र अभी दबोचा जाता है। देवीसिंह इतने जोर से चिल्लाया था कि उसका गला भर्रा गया और उसे खाँसी आ गई। खाँसी ने उसके सिर को जरा नीचा कर दिया और तिरछा भी, इसलिए एक स्थान से आईहुई एक अचूक गोली उसके कान को लेती हुई चली गई, परंतु प्राण बच गया।
चिंता के साथ अलीमर्दान ने देखा। भयानक उत्तेजना के साथ उसकी सेना ने जनार्दन के खंड पर वार करने शुरू किए। जनार्दन के लिए पीछे हटने को न स्थान था, न अवसर। इसलिए वह देवीसिंह की ओर ढलने लगा। देवीसिंह के सैनिकों की मार के कारण कालपी के सैनिकों ने जनार्दन को स्थान दे दिया और वह अपने सैनिकों सहित देवीसिंह की टुकड़ी के साथ आ मिला।
'महाराज देवीसिंह की जय!' इस छोर से अतुल ध्वनि हुई। 'महाराज देवीसिंह की जय!' लोचनसिंह के दल से प्रचंड शब्द गूंज उठे।

रामनगर के गढ़ से विराटा की गढ़ी पर निशाना बाँधकर धाँय-धीय गोले बरसने लगे और उसकी दीवारें एक-एक करके टूटने लगीं। एक गोला मंदिर पर गिरा। उसका एक भाग खंडित हुआ। दूसरा गिरा, दूसरा भाग खंडित हुआ। तीसरा गिरा, वह धुस्स होकर रह गया। इतनी धूल उड़ी कि चारों ओर छा गई। पत्थरों और ईंटों के इतने टुकड़े टूटकर बेतवा की धार में गिरे की पानी छर्र-छर्र हो गया।
रामनगर की तोपों के मुंह बंद करने का कोई उपाय देवीसिंह के हाथ में न था। पहले रामनगर, फिर विराटा की ओर चिंतित दृष्टि से देवीसिंह ने देखा। आँखों में आँसू आ गए। वे कान की जड़ से बहनेवाले खून में ढलकर जा मिले।।
आह भरकर उसने कहा, 'मेरे हाथ से मंदिर टूटा। हे भगवन्, किसी तरह इस युद्ध को बंद करो-चाहे मेरा प्राण लेकर ही।'
परंतु न तो रामनगर की तोपों ने गोले बरसाने बंद किए और न देवीसिंह का प्राण ही किसी ने उस समय ले पाया।

विराटा की टूटी हुई दीवारों से फटे चिथड़े पहने हुए सबदलसिंह के सैनिक दिखाई पड़ने लगे। उनके चिथड़े पीले रंगे हुए थे। सिर से फटे हुए साफों के चिथड़े लहरा रहे थे, मानो विजय पताकाएँ हों। रामनगर की तोपों से वे नहीं डर रहे थे। उनकी तोपें कभी अलीमर्दान और कभी जनार्दन की टकड़ियों पर आग उगल रही थीं। परंतु एक गोले के बाद दूसरे के चलने में बराबर अंतर बढ़ता चला जाता था।
सूर्योदय हुआ-उसी सज-धज के साथ, जैसा असंख्य युगों से होता चला आया है। सूर्य की किरणों ने भी विराटा के दुर्बल, विवर्ण सैनिकों के पीले वस्त्र-खंडों की ओर झाँका और उनकी दमकती तलवारों को चमका दिया, मानो रश्मियों ने उन्हें अर्घ्य दिया हो।
विराटा के सैनिक उन टूटी-फूटी दीवारों के पीछे डटे हुए थे। बाहर निकलकर लड़ने को अब तक नहीं आए थे।

देवीसिंह ने इन पीत-पट-धारियों की चुप्पी का अर्थ समझ लिया। आह भरकर मन में कहा, 'इसका पाप भी मेरे सिर आना है। किस घड़ी में दलीपनगर का राजमकट मेरे माथे पर रखा गया था!' एक ही क्षण पीछे देवीसिंह ने दाँत पीसकर निश्चय किया-इन्हें अवश्य बचाऊँगा, चाहे होड़ में दलीपनगर नहीं, सारी पृथ्वी और स्वर्गको भी भले ही हार जाऊँ और चिल्लाकर बोला, 'बढ़ो-बढ़ो। क्या खड़े होकर युद्ध कर रहे हो! आज ही माँ का ऋण चुकाना है। बढ़ो और मरो। इससे अच्छी मृत्यु कभी नहीं मिलेगी।'
सैनिक बढ़े और उन सबके आगे उछलता हुआ देवीसिंह।

सूर्य की किरणें कान की जड़ से बहनेवाले रक्त को दमक देने लगीं। अपने राजा को घायल और उछलकर सबसे आगे बढ़ा हुआ देखकर दलीपनगर के योद्धा सब ओर से अलीमर्दान की सेना पर पिल पड़े।

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