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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:९:

कुछ दिनों बाद बड़नगर से यह उलाहना आया कि दलीपनगर की सेना ने अपने राज्य की सीमा के बाहर उपद्रव किया और कालपी के मित्र राज्य को बड़नगर का शत्रु बनाने में कसर नहीं लगाई। उलाहने के साथ इन आरोपों का उत्तर-मात्र पूछा गया था, उलाहनों की पीठ पर कोई धमकी नहीं दी थी, इसलिए जनार्दन ने राजा को बिगड़ी हुई अवस्था में यह समाचार नहीं सनाया। नाना प्रकार के बहाने बनाकर ओरछे से क्षमा माँग ली। - इसके बाद ही कालपी से एक दूत आया। दिल्ली में फर्रुखसियर नाम-मात्र का राज्य या कुराज्य कर रहा था। चारों ओर मार-काट मची हुई थी। अंतिम मुगल सम्राट् के थपेड़ों ने जो भयंकर लहर भारतवर्ष में उत्पन्न कर दी थी, उसने क्रांति उपस्थित कर दी। दिल्ली के शासन का संचालन सैयद भाई कर रहे थे। किसी राजा या रजवाड़े को चैन न था। सब शासक परस्पर गटों में बँट दसरे से उलझे हुए थे। सब अपनी-अपनी स्वतंत्रता की चिंता में डूबे हए थे। उत्तर-भारत में सैयद भाइयों की तूती बोल रही थी। उनकी एक छाया सैयद अलीमर्दान के रूप में कालपी नामक नगर में भी थी, जो उस समय बुंदेलखंड की कुंजी और मालवे का द्वार समझा जाता था। सैयद भाइयों को उत्तर-भारत के ही झगड़ों से अवकाश न था, दक्षिण-भारत अलग दम घोंटे डालता था। अलीमर्दान का भविष्य बहुत कुछ सैयद भाइयों के पल्ले से अटका हुआ था। दलीपनगर उस समय के राजनीतिक नियमानुसार दिल्ली का आश्रित राज्य था। दिल्ली को उस समय दलीपनगर और कालपी दोनों की जरूरत थी। कम-से-कम दिल्ली को उन दोनों से आशा भी थी। कालपी वस्तुतः दिल्ली की सहायक थी, दलीपनगर केवल शाही कागजों में। दोनों की मुठभेड़ में दिल्ली को कालपी का पक्ष लेना अनिवार्य-सा था। परंतु यह तभी हो सकता था, जब दिल्ली को अपनी अन्य उलझनों से साँस लेने का अवकाश मिलता। अलीमर्दान इस बात को जानता था और उसे यह भी मालूम था कि न जाने किस समय कहाँ के लिए दिल्ली से बुलावा आ जाए, इसलिए उसने पालर के पास अपनी टुकड़ी के ध्वस्त किए जाने पर तुरंत कोई बड़ी सेना बदला लेने के लिए नहीं भेजी, केवल चिट्ठी भेज दी। एक पत्र दिल्ली भी भेजा कि दलीपनगर बागी हो गया है। परंतु चिट्ठी में पद्मिनी का कोई जिक्र न किया। अपनी उलझनों की मात्रा में एक की और बढ़ती होती देखकर बादशाह ने उसे विशेष अवकाश के अवसर पर विचार करने के लिए रख लिया।


जो चिट्ठी दलीपनगर आई थी, उसमें ये चार माँगें की गई थीं (१) पालर की रूपवती दाँगी कन्या एक महीने के भीतर दिल्ली के शाहंशाह की सेवा में कालपी द्वारा भेज दी जाए।

(२) लोचनसिंह नामक सरदार को जिंदा या मरा हुआ भेज दिया जाए। (३) एक लाख रुपया लड़ाई के नुकसान का हर्जाना पहुँचा दिया जाए। (४) दलीपनगर का कोई जिम्मेदार कर्मचारी या सरदार राज्य की ओर से कालपी आकर क्षमा-याचना करे।


यदि एक भी मांग पूरी न की गई, तो दलीपनगर की बस्ती और सारे राज्य को शाही सेना द्वारा खाक में मिला देने का प्रस्ताव भी उसी चिट्ठी में किया गया था।

यह चिट्ठी मंत्री को दी गई। मंत्री ने जनार्दन के पास भेज दी। चिट्ठी पाकर जनार्दन गूढ़ चिंता में पड़ गया। हर्जाना देकर और माफी माँगकर पिंड छुड़ा लेना तो व्यावहारिक जान पड़ता था, परंतु बाकी शर्ते बहुत टेढ़ी थीं। पद्मिनी बादशाह के लिए नहीं मांगी गई थी, बादशाह की ओट लेकर अलीमर्दान ने उसे अपने लिए चाहा था, यह बात जनार्दन की समझ में सहज ही आ गई। लोचनसिंह को जीवित या मृत किसी भी अवस्था में कालपी भेजना दलीपनगर में किसी के भी बस के बाहर की बात थी। किंतु सबसे अधिक टेड़ा प्रश्न उस समय इन बातों को राजा के सम्मुख उपस्थित करने का था।


बिना पेश किए बनता नहीं था और पेश करने की हिम्मत पड़तीन थी। जनार्दन ने आगा हैदर को सब हाल सुनाकर सलाह की। 'हकीमजी, या तो अब राजा को जल्दी स्वस्थ करो, नहीं तो मुझे छुट्टी दो। कहीं गंगा किनारे अकेले बैठकर राम-भजन करूँगा।' जनार्दन ने कहा।


हकीम ने कहा, 'यदि आपका हौसला पस्त हो गया, तो इस राज्य की पूरी बरबादी ही समझिए।'

जनार्दन जरा मचला। बोला, 'नहीं हकीमजी, अब सहा नहीं जाता। रोज-रोज नई-नई मुश्किलें नजर आती हैं। राजा दिन पर दिन रोग में डूबते चले जाते हैं और हर घड़ी जो गालियाँ खाने को मिलती हैं उनका कोई हिसाब नहीं। अब आप इस आफत को सँभालिए, मेरे बूते की नहीं है।'


'राजा अब चंगे नहीं होते।' आगा हैदर ने उसाँस लेकर कहा। 'पहले ही कह दिया होता।' 'तो क्या होता? कुहराम मचाने के सिवा और क्या कर लेते?' 'नाहक इतना दम-दिलासा दिलाए रहे। अब क्या करें? कोई राज्य साथ देने को तैयार न होगा। सिवा मराठों का आश्रय लेने के और कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। सो उसके बदले आधे राज्य से यों ही हाथ धोने पड़ेंगे।'


हकीम के मन में जरा बल पड़ गया। बोला, 'जितना करते बना मैंने इलाज किया। मैं कोई फरिश्ता तो हूँ नहीं कि रोग को छूमंतर कर दूँ।' _ जनार्दन ने खिसियाकर कहा, 'इस कालपी की चिट्ठी को आप ही राजा के सामने पेश
करें।'

'मंत्री होंगे आप, चिट्ठियाँ पढ़कर सुनाऊँ मैं!' हकीम ने त्योरी बदलकर कहा, 'मुझे सिवा वैद्यक के कुछ नहीं करना है। जिसे चारों तरफ अपने हाथ फेंकने हों, वही यह काम खूबी के साथ कर सकता है। यदि राजा या आप लोग मुकर जाएंगे, तो अपने घर बैलूंगा। खुदा ने रोटी-भाजी के लायक बहुत दिया है।'


'जब दलीपनगर का ही सत्यानाश हो जाएगा, तब क्या खाओगे हकीमजी?' 'जो जनार्दन महाराज खाएंगे, वही बंदा भी खाएगा। आप ही ने इतनी संपत्ति जोड़ रखी है कि सबसे ज्यादा चिंता आपको है।' _ जनार्दन का क्षोभ कम हो गया। भाव बदलकर बोला, 'हकीमजी, मैं इतना घबरा गया हूँ कि कोई उपाय नहीं सूझता। अपनों से न कहूँ तोकिसके सामने दुख रोऊँ? आप ही कहिए, आप कहते थे कि कालपी के सैयद को तो मैं किसी न किसी तरह मना लूँगा।'

'पंडितजी!' हकीम ने उत्तर दिया, 'वह मेरा रिश्तेदार तो है नहीं। अपनी जबान और ईमान का भरोसा था। मैंने स्वप्न में भी न सोचा था कि सैयद होकर ऐसा जालिम निकलेगा।' फिर एक क्षण सोचकर बोला, 'सैयद की शिकायत बिलकुल अन्यायमूलक नहीं है।'


जनार्दन ने सोचकर कहा, 'अब इस चिट्ठी को मैं ही पेश करता हूँ। परंतु आप कृपा करके मौजूद रहिएगा।'

आगा हैदर ने स्वीकार किया। एक दूसरे के अलग होने के समय दोनों अशांत थे। जनार्दन इस कारण कि निश्चय और अभ्यास के विरुद्ध वह अपने भावों की उत्तेजना को संयत न रख सका और वैद्य इस कारण कि जनार्दन सदृश्य मित्र भी मुझे अयोग्य वैद्य समझते हैं।


जनार्दन आगा हैदर की उपस्थिति में राजा के पास पहुँच गया। परंतु उसने अपने पैमाने के हिसाब से एक बुद्धिमानी का काम किया। दूत के जरिए कालपी जवाब भेज दिया कि हरजे की रकम एक लाख बहुत है, परंतु दी जाएगी और माफी मांगने के लिए प्रधान राज्य कर्मचारी जनार्दन शर्मा स्वयंशीघ्र दरबार में उपस्थित होंगे। दाँगी-कन्या दलीपनगर राज्य की हद के बाहर कहीं लापता है और लोचनसिंह की चिंता न की जाए। जनार्दन राजा के गाली-गलौज के लिए दूत को टिकने नहीं देना चाहता था। इसलिए यह सवांद लेकर लौटा दिया। उसने सोचा, कुछ समय मिल जाएगा, इस बीच में बाहर का घटनाओं के परखने का अवसर हस्तगत हो जाएगा और अपनी राजनीति को तदनुकूल ढालने और गढ़ने में आसानी रहेगी।

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