ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
दलीपनगर पहुँचने पर राजा के घाव अच्छे हो गए, परंतु पागलपन बहुत बढ़ गया और उनकी दूसरी बीमारी ने भी भयानक रूप धारण किया। देवीसिंह को अच्छे होने में कुछ समय लगा। राजा का स्नेह उस पर इतना बढ़ गया कि निजी महल में उसे स्थान दे दिया।
राजा का स्नेहभाजन होने के कारण बड़ी रानी भी देवीसिंह पर कृपा करने लगीं और
छोटी रानी अकारण ही घृणा।
रामदयाल बचपन से महलों में आता-जाता था। उन दिनों तो वह राजा की विशेष टहल ही
करता था। रानियाँ उससे परदा नहीं करती थीं। छोटी रानी का वह विशेष रूप से
कृपापात्र था, परंतु इतना चतुर था कि बड़ी रानी को भी नाखुश नहीं होने देता
था।
एक दिन किसी काम से छोटी रानी के महल में गया। छोटी रानी ने राजा की तबीयत
का हाल पूछा। वह स्वयं राजा के पास महीने में एकाध बार जाती थीं। अवस्था का
समाचार सुनकर रानी ने कहा, 'अभी तक महाराज ने किसी को उत्तराधिकारी नहीं
बनाया। यदि भगवान् रूठ गए, तो बड़ी विपद आएगी।'
बात टालने के लिए रामदयाल बोला, 'महाराज, काकाजू की तबीयत जल्दी अच्छी हो
जाएगी। हकीमजी ने विश्वास दिलाया है।'
'भगवान् ऐसा ही करें। परंतु हकीम की बात का कुछ ठीक नहीं।' फिर कुछ सोचकर रानी ने कहा, 'कुंजरसिंह राजा तो दासी के पुत्र हैं, उन्हें गद्दी नहीं मिल सकती। वैसे ही राजसिंहासन उसकी रोनी सूरत के विरुद्ध है।'
'इसमें क्या संदेह है महाराज!' रामदयाल ने हाँ में हाँ मिलाई। 'महाराज ने अपने महलों में उस नए मनुष्य को क्यों रखा है?' 'एक बुंदेला ठाकुर है, महाराज पालर की लड़ाई में वह बहुत आड़े आए थे, इसलिए दवा-दारू के लिए अपने खास महलों में काकाजू ने रख लिया है।'
'जनार्दन शर्मा की उस पर कृपा है या नहीं? मंत्री तो बेचारा अपने बाप का लड़का होने के कारण मंत्रित्व कर रहा है। उस गधे में गाँठ की जरा-सी भी बद्धि नहीं। लोचनसिंह जंगल के बाँस की तरह सीधा बस, राज्य तो धूर्त जनार्दन कर रहा है। बड़ी रानी के महलों में भी जुहार करने जाता है या नहीं?'
रामदयाल अधिक खोलकर कुछ नहीं कहना चाहता था, परंतु अब निर्वाह न होते देखकर बोला, 'शर्माजी के साथ ही बहुत बत-बड़ाव होता रहता है।'
'किस विषय पर?'
'विषय तो महाराज कोई खास नहीं है। परंतु कभी-कभी देवीसिंह ठाकुर की प्रशंसा करते हुए सुना है।''मैं सब समझती हूँ।' रानी ने सोचकर कहा। फिर एक क्षण बाद बोली, रामदयाल, यदि धर्म पर टिका रहा, तो प्रतिफल पावेगा।'
रामदयाल ने नम्रतापूर्वक कहा, 'महाराज, मैं तो चरणों का दास हूँ।' 'तू मुझे महाराज के महलों के समाचार नित्य दिया कर। अब जा और जरा लोचनसिंह को भेज दे।'
थोड़े समय उपरांत लोचनसिंह आया। दासी द्वारा परदे में रानी से बातचीत हुई।
रानी ने कहलवाया, 'लोचनसिंह, भगवान् न करे कि महाराज का अनिष्ट हो; परंतु यदि अनहोनी हो गई, तो राज्य का भार किसके सिर पड़ेगा?'
'जिसे महाराज कह जाएँ।' 'तुम्हारी क्या सम्मति है?' 'जो मेरे स्वामी की होगी।' 'या जनार्दन की?' 'महाराज की आज्ञा से जनार्दन का सिर तो मैं एक क्षण में काटकर तालाब में फेंक सकता हूँ।'
'यदि महाराज कोई आज्ञा न छोड़ गए, तो?' 'वैसी घड़ी ईश्वर न करे आवे।' 'और यदि आई?' 'यदि आई, तो उस समय जो आज्ञा होगी या जैसा उचित समझंगा, करूंगा।'
रानी कुछ सोचती रही। अंत में उसने यह कहलवाकर लोचनसिंह को बिदा किया कि 'भूलना मत कि मैं रानी हूँ।'
'इस बात को बार-बार याद करने की मुझे आवश्यकता न पड़ेगी।' यह कहकर लोचनसिंह चला। रानी ने फिर रुकवा दिया। दासी द्वारा कहलवाया, 'सिंहासन पर मेरा हक है, भूल तो न जाओगे?'
उसने उत्तर दिया, जिसका हक होगा, उसी की सहायता के लिए मेरा शरीर है।'
'और किसी का नहीं है?'
'मैं इस समय इस विषय में कुछ नहीं कह सकता।'
'स्वामिधर्म का पालन करना पड़ेगा।' 'यह उपदेश व्यर्थ है।'
'तुम्हारे आँखें और कान हैं। किस पक्ष को ग्रहण करोगे?'
'जिस पक्ष के लिए मेरे राजा आज्ञा दे जाएंगे। और यदि वह बिना कोई आज्ञा दिए सिधार गए, तो उस समय जो मेरी मौज में आवेगा।'
लोचनसिंह चला गया। रानी बहुत कुढ़ी।
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