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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:१०:
जनार्दन का स्वभाव था कि जब तक बला टालते बने टाली जाए। उसका मुकाबला केवल उस समय किया जाए, जब टालने का अन्य कोई उपाय नजर न आए।

राजा सुनें या न सुनें, समझें या न समझें परंतु परंपरागत रीति के अनुसार कालपी की चिट्ठी लेकर उनके पास जाना ही पड़ेगा। रह-रहकर धैर्य खिसक रहा था और जी चाहता था कि राज्य छोड़कर कहीं चले जाएँ, परंतु बाग-बगीचे थे, मकान थे, अनाज और रुपए थे और थी प्रधान मंत्री के नाम से पुकारे जाने की आशा।


राजा के सामने पहँचते ही जनार्दन का मन और भी छोटा हो गया। उनकी तबीयत आज और भी ज्यादा खराब थी। वह बहुत हँस रहे थे और बिलकुल बेसिर-पैर की बातें कर रहे थे। आगा हैदर मौजूद था।


राजा ने जनार्दन से खूब हंसकर कहा, 'कहो बम्हनऊ, आजकल किस घात में हो? तुम और कुंजर मिलकर राज्य करोगे? याद रखना, वह भेड़िया लोचनसिंह तुम सबको खा जाएगा।'
जनार्दन हाथ जोड़े सिर नीचा किए रहा। 'तुम्हारे इस अवनत मस्तक पर अगर दो सेर गोबर लपेट दिया जाए, तो कैसा रहे?' राजा ने अट्टहास करके पूछा।

'महाराज का दिया सिर है, इनकार थोड़े ही है।' जनार्दन ने विनीत भाव से उत्तर दिया।


'हाँ-हाँ।' राजा ने उसी तरह कहना जारी रखा, 'इसी विनय से तो तुम दुनिया को ठगते रहते हो महाराज। कितना धन और अन्न इकट्ठा कर लिया है, उफ! सोचकर डर लगता है। मरने के बाद सब सिर पर धरकर ले जाएगा!' फिर यकायक गंभीर होकर बोले 'हकीमजी, बनूंगा या मरूँगा?' ।


'अभी महाराज बहुत दिन जिएंगे।' राजभक्त हकीम ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया, परंतु स्वर में विश्वास की खनक न थी। तकिये पर सिर रखकर राजा बोले, 'तब कुंजरसिंह राज्य करेगा। वही करे, कोई करे। जनार्दन, तुम राज्य करोगे?'

'महाराज, ऐसा न कहें। ब्राह्मणों का काम राज्य करने का नहीं है।' जनार्दन ने जरा काँपकर कहा। राजा किसी गुप्त पीड़ा के मारे कराहने लगे।


इतने में लोचनसिंह वहाँ आया। प्रणाम करके बैठ गया। लोचनसिंह ने हकीम से धीरे से पूछा, 'आज अवस्था क्या कुछ अधिक भयानक है।' 'नहीं, ऐसा कुछ अधिक नहीं।' उत्तर मिला।


लोचनसिंह बोला, 'आप सदा यही कहते रहते हैं, परंतु महाराज के जी के संभलने का रत्ती भर भी लक्षण नहीं दिखलाई देता है। सच्ची बात तो यह है कि राजा को वह बीमारी आप ही ने दी है।'

'मैंने!' हकीम ने आश्चर्यपूर्वक कहा। 'हाँ आपने, निस्संदेह आपने, और किसी ने नहीं दी। बुढ़ापे में जवानी बुला देने का नुस्खा आप ही ने बतलाया। न मालूम किन-किन दवाओं की गरमी से महाराज का दिमाग आप ही ने जलाया।'


दाँत पीसकर आगा हैदर महल की छत की ओर देखने लगा।

राजा का ध्यान आकृष्ट हुआ। जनार्दन से पूछा, 'क्या गड़बड़ है? क्या मेरे ही महलों में किसी षड्यंत्र की रचना कर रहे हो?' जनार्दन के उत्तर देने के पूर्व ही लोचनसिंह बोला, 'षड्यंत्रों का समय भी महाराज, इन लोगों ने मिल-जुलकर बुला लिया है, परंतु जब तक लोचनसिंह के हाथ में तलवार है,तब तक किसी का कोई भी षड्यंत्र एक क्षण नहीं चल पावेगा।'


'क्या बात है?' राजा ने आँखें फैलाकर पूछा।


लोचनसिंह ने तुरंत उत्तर दिया, 'महाराज अपने किसी उत्तराधिकारी को नियुक्त कर दें, नहीं तो शायद बीमारी के साथ-साथ गोलमाल भी बढ़ा चला जाएगा। जगह-जगह लोग चर्चा करते हैं-अब कौन राजा होगा? जगह-जगह लोग सोचते होंगे-मैं राजा होऊँगा, मैं राजा बन जाऊँगा। तबीयत चाहती है, ऐसे सब पाजियों के गले काटकर कुत्तों को खिला दूं महाराज-'


राजा ने कराहते हुए कहा, 'मूर्ख, बकवादी, पहले तू अपना ही गला काट।' लोचनसिंह तुरंत तलवार निकालकर बोला, 'एक बार अंतिम बार आदेश हो जाए। और सब सह लिया जाता है, महाराज की व्यथा नहीं देखी जाती।'


'क्या करता है रे नालायक, डाल म्यान में तलवार को।' राजा ने भयभीत होकर कहा। फिर बहुत क्षीण स्वर में बोले, 'हकीमजी, इस भयंकररीछ को मेरे पास मत आने दिया कीजिए। यह न मालूम इतने दिनों कैसे जीता रहा।'
हकीम सिर नीचा किए बैठा रहा। लोचनसिंह ने भी कुछ नहीं कहा।
जनार्दन उस दिन ठीक मौका न समझकर कालपी से आईहुई चिट्ठी के विषय में कोई चर्चा न करके लौट आया। लोचनसिंह भी साथ ही आया।
मार्ग में जनार्दन ने कहा, 'आपसे एक विनती है ठाकुर साहब, जो बुरा न मानें तो निवेदन करूं।'
'करिए।' 'ऐसे समय महाराज से कोई तीखी बात मत कहिए।'


'मैंने कौन-सी बात चिल्लाकर कही? क्या यह झूठ है कि अनेक स्थानों पर 'उत्तराधिकारी कौन होगा' इस बारे में तरह-तरह की न सुनने लायक वार्ता छिड़ती चली जा रही है? क्या आपको मालूम है कि खास महलों में रानियाँ तक राजा के उत्तराधिकारी के विषय में बिना किसी मोह या दुख के चर्चा कर रही हैं? और कोई कहता तो सिर या जीभ काट लेता, परंतु रानी को क्या कहूँ? अच्छा किया, जो मैंने अपना विवाह नहीं किया।'

'आपकी बात से राजा को कष्ट होता है।' 'तब आपने राजा को अभी तक नहीं पहचाना। राजा को कष्ट होता है आप सरीखे लोगों की ठकुर-सुहातियों से। ऐसा राजा कभीनहआ होगा, जो सच्ची बात और सच्चे आदमियों का इतना आदर करे।'

'यह तो आप बिलकुल ठीक कहते हैं।' जनार्दन ने सावधानी के साथ कहा, 'हम लोगों को बड़ी चिता है कि ऐसे राजा के बाद कम-से-कम ऐसा ही वीर-पोषक राजा हो। इस प्रश्न पर विचार करना आप सरीखे सरदारों का ही काम है। हम तो आप लोगों के लिए हुए निर्धार का केवल पालन करनेवाले हैं।'

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