ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
रात की इसी उथल-पुथल ने सचेत विराटा को और भी सचेत कर दिया। विराटा में थोड़े से सैनिक थे। साधारण बने रहने में ही उसकी रक्षा थी। उस रात के भयानक हल्ले, असाधारण आक्रमण ने विराटा के प्रत्येक शस्त्रधारी को किसी अनहोनी के लिए बिलकुल तैयार कर दिया। उस रात जब तक देवीसिंह की अलीमर्दान के दलों से टक्कर नहीं हुई थी, तब तक कुंजरसिंह की तोपें केवल इस बात का प्रमाण देती रहीं कि उनके तोपची सोए नहीं हैं, परंतु जब बंदूकों की बाढ़ें उन दोनों दलों की भभकी तब किसी संकट के तुरंत सिर पर आ पड़ने की आशंका ने कुंजरसिंह को बहुत सक्रिय कर दिया। आक्रमणों के होने के कुछ घड़ी पीछे ही अलीमर्दान अपने दल के साथ विराटा के नीचे, नदी के किनारे आ गया। उसके बिलकुल पास ही देवीसिंह का दल भी आकर ठिठक गया था। परंतु दोनों इतनी सावधानी से चले थे कि एक नेदूसरे की गति को नहीं समझ पाया था। तो भी विराटा के सतर्क योद्धा की दृष्टि से उन दोनों की गतिविधि न बच पाई। उसने तुरंत अपने गढ़ में इसकी सूचना दी। अभी तक देवीसिंह और अलीमर्दान की सेनाएँ एक-दूसरे के सम्मुख मोर्चा लिए हुए डट रही थीं, इसलिए भी विराटा के थोड़े से मनुष्यों की कुशल-क्षेम बनी रही; परंतु उस प्रहरी को मालूम हो गया कि उनमें से एक का, कदाचित् दोनों का, लक्ष्य विराटा है। यही समाचार तुरंत विराटा के भीतर पहुँचाया गया।
विराटा के सैनिक बारी-बारी से थोड़ी देर के लिए शस्त्र बाँधे हुए ही विश्राम करते आए थे। उन्हें बहुत दिन से यथेष्ट भोजन न मिला था। फटे कपड़ों से अपना शरीर ढाँके थे। चोटों की मरहम-पट्टी अपने हाथ से ही कर लेते थे-वह भी अपने फटे कपड़ों के चिथड़े फाड़-फाड़कर। जो कुछ उनके पास था, वह गोला और बारूद पर न्योछावर कर चुके थे और कर रहे थे। जो कुछ हथियार उनके पास थे, उन्हें अच्छी हालत में रखने की चेष्टा करते थे, परंतु उनकी भी बहुतायत न थी।
हथियार उनके साफ-सुथरे थे, परंतु शरीर धूल और पसीने में ऐसे सने हुए कि उनकी त्वचा के प्राकृतिक रंग का यकायक पता लगाना कठिन हो गया था। आँखें धंस गई थीं, गाल की हड्डियाँ तीव्रता के साथ ऊपर उठ आई थीं। बाल बढ़ गए थे।
हृदय की ज्वाला आँखों में आ बैठी थी। परंतु जंगली पशुओं की तरह दिखाई देनेवाले उन लोगों की आँखों में कभी-कभी जो मर-मिटने की दृढ़ता छलक उठती थी, वह निराशा के घास-फूस के ढेर में उज्ज्वल अंगार की तरह थी। टूटी-फूटी गढ़ी पर अस्त-व्यस्त शरीर के रखवालों के जीवन में आभा को ग्रसने के लिए राहु-केतु की तरह दो तरफ से दो अलग-अलग उद्देश्यों से प्रेरित होकर दलीपनगर और कालपी के सुसज्जित योद्धा पिल पड़ने को ही थे। दो वक्र रेखाओं की तरह वे दोनों एक ही केंद्र पर सिमट पड़ने के लिए खिंचने को ही थे।
प्रहरी के समाचार को प ते ही, जैसे प्रचंड झंझावात से पल्लव झकझोर खा जाते हैं, वैसे ही सबदलसिंह और उनकी सेना, जिसे फटियल लड़ाकुओं की भीड़ की उपाधि से ही संबोधित किया जा सकता है, विश्राम और थकावट से उचटकर सजग हो गई और एक मार्के के ठौर पर इकट्ठी हो गई। सबदलसिंह थोड़ा ही सो पाया था। धंसी हुई आँखों को पोंछता-पाँछता आ गया। कुंजरसिंह भी अपने तोपचियों को कुछ सलाह देकर उसी समय आया। एक बड़े पीपल के पेड़ के नीचे वे सब इकट्ठे हो गए। कुंजरसिंह ने कहा, 'आज हम लोगों की विजय-रात्रि है।' 'कदाचित् अंतिम भी।' सबदलसिंह बोला। . 'क्यों?' कुंजरसिंह ने जरा आश्चर्य के साथ कहा, 'मैं यदि गलती नहीं कर रहा हूँ तो रामनगर की गढ़ी मेरी तोपों ने ध्वस्त कर दी है। अलीमर्दान और देवीसिंह की सेनाएँ सवेरा होते-होते आपस में लड़-कटकर समाप्त हुई जाती हैं। तब कल विजय अवश्यंभावी है।'
सबदलसिंह ने क्षीण मसकराहट के साथ उत्तर दिया, 'हमें जो समाचार अभी मिला है, वह किसी दूसरे भविष्य की ही सूचना देता है। अलीमर्दान की सेना का एक बड़ा भाग किनारे पर आ पहुंचा है। दूसरी ओर से देवीसिंह का एक दल भी निकट आ गया है।
रामनगर पर गोले चलाने में कोई बुद्धिमानी नहीं जान पड़ती।'
जरा उद्धत स्वर में कुंजरसिंह ने कहा, 'तब किस बात में बुद्धिमानी है?' 'मरने में।' तीक्ष्णता के साथ सबदलसिंह बोला, 'मरने में। देवीसिंह से कोई सहायता प्राप्त नहीं हो सकती। उस ओर से हम बिलकुल निराश हो चुके हैं। एक-एक पल हमारे लिए बहुमूल्य है। मालूम नहीं, कब अलीमर्दान की सेना यहाँ घुस पड़े और हमारी मर्यादा पर आ बने।'
कुंजरसिंह ने कुछ सोचकर कहा, 'तब मैं मैदान की ओर तोपों का मुँह फेरता हूँ। उन्हें छठी का दूध याद आवेगा।'
और एक क्षण पश्चात्, सबदलसिंह जरा रोषपूर्ण स्वर में बोला, उन सबको अपनी प्रबल और हमारी हीन स्थिति का भी स्मरण हो जावेगा। कुँवर साहब, यह लड़ाई कल से और अधिक आगे नहीं जा सकेगी।'
इस मंतव्य पर कुंजरसिंह को कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। और लोगों में से भी कोई कुछ न बोला। सबदलसिंह ने धीरे, परंतु दृढ़ता के साथ कहा, 'हम लोगों ने संधि के धर्मसम्मत सब उपाय कर छोड़े। अलीमर्दान हमारी मर्यादा चाहता है। वह हम उसे नहीं देंगे। बाहर से अब किसी सहायता की कोई आशा नहीं है, इसलिए मेरी समझ में केवल एक उपाय आता है।'
उपस्थित लोगों की दृष्टियाँ तारों के क्षीण प्रकाश में उस उपाय के सुनने के लिए सबदलसिंह की ओर घिर गईं।
सबदलसिंह ने उसी दृढ़ स्वर में कहा, 'हम सब गढ़ी से निकलकर शत्रुओं से लड़ते-लड़ते मरें। किसी को इनकार हो, तो कह डालने में संकोच न करे।'
कोई न बोला। सबदलसिंह कहता गया, परंतु हम अपने पीछे अपने बाल-बच्चों को अनाथ
नहीं छोड़ सकते। अपनी बहू-बेटियों को मुसलमानों के घरों में भेजने से जो
कालिख हमारे नाम पर लगेगी, उसे सहन गंगा नदियाँ नहीं धो सकेंगी। इसलिए
ग्वालियर, चित्तौड़ और चंदेरी में जो कुछ हुआ था, वही विराटा में भी हो।'
'वह क्या?' जरा व्याकुलता के साथ कुंजरसिंह ने प्रश्न किया।
'जौहर।' धीरज के साथ सबदलसिंह ने उत्तर दिया, 'हमारी स्त्रियाँ और बच्चे हम
सबको मरा हुआ समझकर चेतन चिता पर चढ़ जाएंगे और हम सब थोड़े समय बाद ही अपनी
तलवारों के विमान पर बैठकर उनसे स्वर्ग में जा मिलेंगे।'
कुंजरसिंह को यह काव्यात्मक कल्पना कुछ कम पसंद आई। बोला, 'मुझे यह बहुत
अनुचित जान पड़ता है। जिन बालकों को गोद में खिलाया है, जिन स्त्रियों के
कोमल कंठों के आशीर्वाद से बाँहों ने बल पाया है, उन्हें अपनी आँखों जीते-जी
खाक होते हुए कभी नहीं देखा जा सकता। जब लोग सुनेंगे कि हमने अपने हाथों से
निर्दोष बालकों को जला मारा, तब क्या कहेंगे?'
सबदलसिंह ने कहा, 'क्या कहेंगे? कहें। हमारे मर जाने के पीछे लोग हमारे लिए
क्या कहते हैं, उसे हम नहीं सुनेंगे और फिर ऐसी अवस्था में हमारे बड़ों ने भी
तो जगह-जगह यही किया है।'
'यहाँ कदापि न हो।' कुंजरसिंह बोला, 'इसमें संदेह नहीं कि जैसे सो जाने के
बाद कुछ पता नहीं रहता कि क्या हो रहा है, वैसे ही मर जाने के बाद की अवस्था
है। इसलिए जीते-जी ऐसा काम क्यों किया जाए कि मरने के समय जिसके लिए पछताना
हो और आसानी के साथ मरने में बाधा पहुँचे?'
दर्शनशास्त्र की इस संगत या असंगत बात के समझने की चेष्टा न करके सबदलसिंह ने
क्षीण स्वर में कहा, 'हम लोग कई दिन से यही बात सोच रहे हैं। मरने से यहाँ
कोई नहीं डरता। परंतु हमारे पीछे जो विधवाएँ और अनाथ होंगे, उनकी कल्पना
कलेजे को तड़पा देती है।'
'क्या पहले कभी विधवा या अनाथ नहीं हुए हैं?' अपने मन को आश्वासन देने के लिए
अधिक और अपने श्रोताओं को अपेक्षाकृत कम कुंजरसिंह ने कहा, 'यदि हमारा यही
सिद्धांत है, तो हमें कभी न मरने का ही उपाय सोचना चाहिए और जब हमारे सामने
हमारे सब प्रियजन समाप्त हो जाएँ, तब हमें मरना चाहिए। जब रणक्षेत्र में
सैनिक जाता है, तब क्या वह यह सब सोच-विचार लेकर जाता है? चलो, हम सब मरने के
लिए बढ़ें। एक-एक प्राण का मूल्य सौ-सौ प्राण लें और अपने बाल-बच्चों को
परमात्मा के भरोसे छोड़ें। उनके लिए हमें इसलिए भी नहीं डरना चाहिए कि हमारे
विरोधियों में अनेक हिंदू भी हैं।'
सबदलसिंह के साथियों ने इस बात को मान लिया। वे सब मरने से नहीं हिचकते थे,
परंतु अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को अपने हाथ से नष्ट नहीं कर सकते थे।
'परंतु।' उनमें से एक असाधारण उत्साह के साथ बोला, 'केसरिया बाना हम अवश्य
पहनेंगे। मौत के साथ हमारा ब्याह होना है, हम सादा कपड़ा पहनकर दूल्हा नहीं
बनेंगे।'
घोर विपत्ति में भी मनुष्य का साथ हँसी नहीं छोड़ती। वे सब इस बात पर थोड़े
हँसे और सभी ने इस बेतुकी-सी बात को पसंद किया।
सबदलसिंह बोला, परंतु केशर शायद ही विराटा-भर में किसी के घर मिले।'
उन सैनिकों में से जिसने दूल्हा बनाने का प्रस्ताव किया था, कहा, 'मैं अभी
ढूँढ़कर लाता हूँ। केशर न मिलेगी, तो हल्दी तो मिलेगी। मौत के हाथ भी तो उसी
से पीले होंगे।' और तुरंत वहाँ से अदृश्य हो गया।
सबदलसिंह ने कुंजर से कहा, 'अब अपनी तोपों से और अधिक आग उगलाओ।' .
कुंजरसिंह बोला, परंतु जान पड़ता है, अँधेरी रात के युद्ध में दोनों दल गुंथ
गए होंगे।'
'तब जहाँ इच्छा हो, गोले बरसाओ।' सबदलसिंह ने कहा, 'परंतु शत्रु के हाथ
गोला-बारूद न पड़ने पावे।'
कुंजरसिंह अपने तोपचियों के पास गया। तोपों के मुँह मुरकाए। बहुत देर लग गई।
लक्ष्य बाँधने में कम समय नहीं लगा। जब इस लक्ष्य पर गोलाबारी आंरभ करादी, तब
सबदलसिंह के पास लौटा।
इस बीच में सबदलसिंह के उन सब सैनिकों ने अपने फटे कपड़े हल्दी से रँग लिए
थे। थोड़ी-सी केशर भी एक जगह मिल गई थी। सबदलसिंह ने उसका टीका सबके भाल पर
लगाया। कुंजरसिंह ने भी अपने वस्त्र हल्दी में रेंगे। सबदलसिंह ने केशर का
टीका उसके भाल पर लगाते हुए कहा, 'आज दौगियों की लाज ईश्वर और तुम्हारी तोपों
के हाथ है।'
'राजा!' कुंजरसिंह ने कहा, 'निराश नहीं होना चाहिए। क्या ठीक है, शायद ईश्वर कोई ऐसा ढंग निकाल दे कि बात रह जाए और सब बच जाएँ।'
'और कुछ रहने की जरूरत नहीं, रहे या न रहे।' एक अधेड़ सैनिक बोला, 'हम लोग केसरिया बाना पहन चुके हैं। यह बिना ब्याह के नहीं उतारा जा सकता। सगाई पक्की करके अब विवाह से भागना कैसा? बचने-बचाने के सबविचार ध्यान से हटाओ। यदि यही बात मन में थी,तो भाल पर केशर का तिलक किस बिरते पर लगाया? अब ब्रह्मा के सिवा उसे कौन पौंछ सकता है? और इतने दिनों धीरे-धीरे बहुत लड़े, अब जी खोलकर हाथ करेंगे और स्वर्ग में विश्राम लेंगे। सच मानिए, देह भार-सी जान पड़ने लगी है।'
सबदलसिंह चिल्लाकर बोला, 'मूठ पर हाथ रखकर राम-दुहाई करो कि सब-के-सब मरने
का प्रयत्न करेंगे।'
सबने तलवार की मूठों पर हाथ रखकर जोर से कहा, 'राम दुहाई, राम दुहाई।' ये
शब्द कई बार और देर तक दुहराए गए। उत्तरोत्तर उस ध्वनि में प्रचंडता आती गई।
वे लोग इधर-उधर घूम-घूमकर दुहाई देने लगे। इन लोगों के बढ़ते हुए शोर को
अलीमर्दान ने भी सुना। उसने सोचा, खेल बिगड़ गया, अब चुपचाप काम नहीं बन
सकता। यही विचार उसके सरदारों और सैनिकों के भीतर उठा। किसी एक ही भाव से
प्रेरित होकर वे लोग पहले थोड़े-से और कुछ पल उपरांत ही बहुत से गला खोलकर
बोले, 'अल्ला हो अकबर।'
'राम दुहाई' पुकार इस प्रखर और प्रबल स्वर की गूंज में पतली और फीकी-सी पड़ गई। एक बार विराटा के सिपाहियों का कलेजा धसक-सा गया। परंतु 'अल्ला हो अकबर' की प्रबल गूंज के ऊपर कुंजर की तोपों की प्रबलता धायँ-धायँ हो रही थी, इसलिए सबदलसिंह के सैनिकों के हृदय में मरने-मारने की धुन ने, एक निराशाजनित भयंकर नवीन अनुभव शीघ्र ही प्राप्त करने की कामना ने पुनः साहस का संचार कर दिया। उन्हें आशा होचली कि लड़ाई की लंबी घसीटी हुई थकावट से निस्तार पाने में विलंब नहीं है।
देवीसिंह ने भी 'राम दुहाई' और 'अल्ला हो अकबर' के जयकार सुने और उसे भी
अपनी योजना को बदलना पड़ा। उसने सोचा-अलीमर्दान विराटा पर आक्रमण करना ही
चाहता है। अब किसी उपयुक्त अवसर की बाट जोहना बिलकुल व्यर्थ है। विराटा
परजिसका अधिकार पहले होगा, वही इस युद्ध को जीतने की आशा करे। इन मूखों की
तोपें बिना किसी भेद के गोले बरसा रही हैं। यदि शीघ्र हमारे हाथ में आ गईं तो
हम रामनगर और विराटा दोनों स्थानों से अलीमर्दान की सेना को कुचल सकेंगे। वह
अपनी सेना लेकर जरा और आगे बढ़ा, सवेरा होने में दो-तीन घंटे की देर थी। वह
थोड़ा-सा और ठहरना चाहता था, कम-से-कम उस समय तक, जब तक अपने दल को खुलकर
लड़ने योग्य परिस्थिति में प्रस्तुत न देख ले।
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