ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
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मुसलमान नायक छोटी रानी, गोमती और रामदयाल को साथ-साथ जिस ओर और जिस प्रकार घुमाना चाहता था, वे नहीं घूम पाते थे। इसलिए उसकी प्रगति को बड़ी बाधा पहुँच रही थी। तो भी वह स्थिरचित्त होने के कारण धैर्य और चतुरता के साथ सैन्य-संचालन कर रहा था। जिस स्थान परलोचनसिंह के दल के साथ उसकी टुकड़ी की मुठभेड़ हो गई थी, वहाँ पर वह न था। वह जनार्दन के मुकाबले में था।
लड़ाई के आरंभ में जितना उत्साह गोमती के मन में था, उतना दो घड़ी पीछे न रहा। वह बच-बचकर युद्ध में भाग ले रही थी और रानी बढ़-बढ़कर। रामदयाल प्रायः। गोमती के साथ रहता था। रानी को बार-बार इस बात का बोध होता था और बार-बार वह एक अनद्दिष्ट क्रोध से भभक उठती थी। परंत थोड़ी ही देर में उन्हें भी भान होने लगा कि हाथ उस तेजी के साथ काम नहीं करता जैसा प्रारंभ में कर रहा था। वह भी पीछे हटीं। मुसलमान नायक की एक चिंता कम हुई।
वह सँभलकर, डटकर लड़ना चाहता था। परंतु अँधेरी रात में अपनी इच्छा के ठीक अनुकुल सारी सेना का संचालन करना उसके लिए क्या, किसी के लिए भी असंभव था। इधर-उधर सारी सेना गुंथ गई, कोई नियम या संयम नहीं रहा। केवल लोचनसिंह के साथ सैनिकों का एक खंड और देवीसिंह का दल इस पक्ष का और मुसलमान नायक के निकटवर्ती सैनिकों का भाग और विराटा की ओर अग्रसर होता हुआ अलीमर्दान का दल उस पक्ष का, ये लड़ाई में कोई बड़ा भाग न लेने के कारण कुछ व्यवस्थित थे। अलीमर्दान का दूसरा दल कुछ दूरी पर मुस्तैद खड़ा था। वह बिलकुल सुव्यवस्थित और किसी अवसर की ताक में था। परंतु सभी दल उमंग के साथ अपने-अपने कार्य में दत्त-चित्त हो जाने के बाद शीघ्र प्रातःकाल होने के लिए लालायित हो रहे थे।
रामनगर से विराटा पर तोपें नहीं चल रही थीं। विराटा से इसी कारण उत्तरोत्तर तोपों की बाढ़ बढ़ने लगी। कोई निशाना चूकता था और कोई लगता। रामनगर की अस्त-व्यस्त दीवारें और दृढ़ बुर्ज धीरे-धीरे भरभराकर टूट रहे थे। गढ़वर्ती सैनिकों की चिंता पल-पल पर बढ़ती जा रही थी, परंतु देवीसिंह का बँधा हुआ संकेत अभी तक नहीं मिला था।
देवीसिंह ठीक नदी किनारे था। दोनों किनारों के भीतर तोपों और बंदूकों की आवाज दौगनी-चौगुनी होकर गर्जन कर रही थी। घायलों का चीत्कार धूम-धड़ाके से मथे हुए सन्नाटे को बीच-बीच में चीर-चीर-सा देता था।
बेतवा अपने अक्षुण्ण कलरव के साथ बहती चली जा रही थी। तारों का नृत्य बेतवा की जलराशि पर अनवरत रूप से होता जा रहा था।
राजा ने अपने पास खड़े हुए एक सरदार से कहा, 'यदि कुंजरसिंह थोड़े समय के लिए भी अपनी मूर्खता के साथ संधि कर ले, तो आज का युद्ध अलीमर्दान के लिए अंतिम हो जाए।' एक क्षण बाद बोला, 'आज रात शायद रामनगर सेतोप चलाने का अवसर ही न आवे।'
सरदार ने कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया, परंतु प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखा। 'इसलिए कि,' देवीसिंह ने उत्तर दिया, 'रामनगर से तोप चलते ही विराटा का नदी-कूल भी बिलकुल सतर्क हो जाएगा और हम लोग आसानी से विराटा की गढ़ी में प्रवेश न करने पाएँगे।'
इसके बाद देवीसिंह अपने दल को लेकर बहुत धीरे-धीरे और सावधानी के साथ । विराटा की ओर बढ़ा।
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