ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
जैसे जंगल के कुपित पशुबिना किसी नियम-संयम के आगे-पीछे, नीचे-ऊँचे कहीं भी लड़ जाते हैं, उसी तरह रात के उस पहर में वह युद्ध होता रहा। विराटा की तो कभी अपने गोले दलीपनगर के सैनिकों पर, कभी कालपी के सैनिकों और कभी वृक्षों, पत्थरों पर फेंकती रहीं।
पूर्व दिशा में क्षितिज से नभ की ओर एक रेखा खिची। उसकी आभा स्पष्ट न थी
परंतु गगन की नीलिमा और तारिकाओं की प्रभा के ऊपर उसका तिलक-सा लग रहा था। वह
जिस आगमन की सूचना दे रही थी, कौन जानता था कि उसमें क्या है।
इस समय बड़ी देर बाद छोटी रानी और गोमती का एक भरके में मिलाप हो गया। दोनों
ने एक-दूसरे के लिए तलवारें तानी और दोनों ने एक-दूसरे के पास पहुँचकर मोड़
लीं।
'महारानी!' गोमती ने कहा। 'अरे! मैं समझी थी कोई और है।' छोटी रानी ने भी
आश्चर्य के साथ कहा। गोमती बोली, 'अच्छा हुआ, आप मिल गईं। मुझे कुछ कहना है।'
'जल्दी कहो। समय नहीं है।' छोटी रानी ने कहा। 'मैं रामदयाल के साथ विवाह न
करूंगी, विश्वास रखिए।' 'इन बातों की चर्चा का यह समय नहीं है। तुम चाहे उसके
साथ विवाह करना, चाहे उसका गला काट डालना; मुझे दोनों बातों में से एक से भी
कोई मतलब नहीं।'
'मैं उसका गला भी न काटूंगी। जितना आश्रय या स्नेह मुझे इन दिनों संसार में रामदयाल से मिला है, उतना कुमुद को छोड़कर मैंने किसी से नहीं पाया है।'
'तुम, जिस जगह रामदयाल हो, वहीं जाओ; मैं जिस जगह देवीसिंह या जनार्दन
होंगे, वहाँ जाऊँगी या जहाँ मेरी मौत होगी, वहाँ। ज़ाओ, हटो।'
'न। मैं आपके साथ रहूँगी। मैं इस तरह नहीं मरना चाहती। मैं दलीपनगर के राजा
को भी नहीं मारना चाहती, परंतु उस नृशंस, निष्ठुर से एक बात कहकर अपनी छाती
में पिस्तौल मारना चाहती हूँ। पिस्तौल मेरे पास है। उसे केवल इसी प्रयोजन से
अभी तक सुरक्षित रखा है।'
'वह मुझे दे दो। मैं उसका ज्यादा अच्छा प्रयोग करूँगी।' 'न। मेरी एक बात
सुनिए। आप और सब विचार एक ओर रखकर विराटा की कुमारी की रक्षा का कुछ उपाय
करिए। अलीमर्दान उसे जबरदस्ती अपनी दासी बनाना चाहता है। वह आपकी बात मानता
है। पहले ही यदि आप उसे निवारण कर देतीं, तो वह आपकी मान जाता।'
'पागल!' रानी ने कड़ककर कहा, 'इन छोटी-छोटी-सी बातों के सोचने का समय मुझे
नहीं है। दे अपनी पिस्तौल मुझे और हो जा मेरे साथ। तू रामदयाल की दासी बनना
चाहती है, यह मुझे मालूम हो गया है। मैं बाधा नहीं डालूँगी, भरोसा रख, परंतु
पिस्तौल इधर दे और चल मेरे साथ; यहाँ इस तरह खड़े-खड़े हम दोनों मार डाली
जाएँगी। चल नदी की ओर जहाँ से प्रातः नक्षत्र का उदय होता हुआ जान पड़ता है।
वहीं देवीसिंह इत्यादि कोई-न-कोई मिल जाएंगे।'
- गोमती ने फिर इनकार किया और कुछ कहने को थी कि रानी गोमती की ओर झपटी। गोमती उसका उद्देश्य समझकर हटी। रानी ने वार के लिए तलवार सँभाली। गोमती ने भागना आरंभ किया और रानी ने गाली देकर उसका पीछा किया। जिस ओर जनार्दन की टुकड़ी और कालपी का एक खंड परस्पर काँटों की तरह उलझ रहे थे, उसी ओर ये दोनों गईं। तलवारों के उस झंझावात के पास पहुँचकर गोमती उसमें प्रवेश न करने की इच्छा से फिर मुड़ी। रानी ने उसका फिर पीछा किया।
उधर से एक गोला इन दोनों के बीच में पड़कर आगेको सन्ना गया। जहाँ गिरा था,
वहाँ उसने इतनी धूल उड़ाई कि दोनों की आँखें भर गईं। दोनों ही एक-दूसरे से
जरा हटकर आँखें मींचने लगीं।
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