ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
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राजा देवीसिंह ने भी संध्या होने के उपरांत दूसरे दिन की समर-योजना के सब छोटे-बड़े अंगों पर विचार करने के बाद यह तय किया कि प्रातःकाल के लिए न ठहरकर आधी रात के बाद ही लड़ाई आरंभ कर दी जानी चाहिए। लोचनसिंह संतुष्ट था।
देवीसिंह ने इस योजना में विराटा को भी स्थान दिया। उसने अपना निश्चय जिन शब्दों में प्रकट किया था, उसका तात्पर्य यह था-विराटा व्यर्थ ही हमारे कार्य की सरलता में बाधा डालता है। प्रातःकाल होने के पूर्व ही उस पर अधिकार कर ही लेना चाहिए। फिरदिन में रामनगर और विराटा दोनों गढ़ों की तोपों के गोले अलीमर्दान की सेना पर फेंके जाएँ। इधर लोचनसिंह और जनार्दन खुले में उसकी सेना के पैर उखाड़ दें।
दलीपनगर की सेना खुली लड़ाई की आशा की उमंग में तीन दलों में विभक्त होकर सावधानी के साथ आधी रात के बाद आगे बढ़ी। एक दल उत्तर की ओर नदी के किनारे-किनारे विराटा की ओर चला। इसका नायक देवीसिंह था। दूसरा दल जनार्दन के सेनापतित्व में नदी के भरकों और किनारों को देवीसिंह के दल की ओट बनाता हुआ उसी दिशा में बढ़ा। लोचनसिंह का दल पश्चिम और उत्तर की ओर से चक्कर काटकर अलीमर्दान की सेना को आगे से यद्ध में अटका लेने और पीछे से घेरकर दबा लाने की इच्छा से उमड़ा। विराटा की गढ़ी से रामनगर पर उस रात कभी थोड़े और कभी बहुत अंतर पर गोले चलते रहे, परंतु देवीसिंह के पर्वनिर्णय के अनुसार रामनगर से उन तोपों का जवाब नहीं दिया जा रहा था। रामनगर केतोपचियों को आदेश दिया जा चुका था कि जब एक बंधा हुआ संकेत उन्हें अपनी क्षेत्रवर्ती सेना से मिले, तब वे तोपों में बत्ती
लोचनसिंह ने उस रात देवीसिंह के आदेश के अनुसार बहुत सावधानी के साथ कूच किया। उसने अपने सैनिकों से कहा था, 'बिल्ली की तरह दबे हुए चलो और समय आने पर बिल्ली की तरह की झपाटा मारो।' थोड़ी देर तक लोचनसिंह और उसके सैनिकों ने इस सतर्क वृत्ति का पूरी तरह पालन किया, परंतु पग-पग पर लोचनसिंह को उसका अधिक समय तक पालन कर पाना दुष्कर और दस्सह जान पड़ने लगा। मार्ग बहुत बीहड़ और ऊँचा-नीचा था। सावधानी के साथ उस पर चलना संभव न था, किंतु अनिवार्य था। परंतु जहाँ मार्ग सुथरा और विस्तृत मैदान पर होकर गया था, वहाँ मावधानी का व्रत बनाए रखना स्थिति की व्यग्रता और लोचनसिंह की प्रकृति के विरुद्ध था। इसलिए लोचनसिंह अपने दल के आगे विरुद्ध उमंग से प्रेरित होता हुआ सपाटे के साथ बढ़ने लगा। निकट भविष्य में किसी तरंत होनेवाले भयंकर विस्फोट की कल्पना से उन पके-पकाए सैनिकों का कलेजा धक-धक नहीं कर रहा था, परंतु पैर के पास ही किसी छोटी-सी असाधारण आकस्मिक ध्वनि के होते ही सैनिक चौकन्ने हो जाते थे, कभी-कभी थर्रा भी जाते थे और आधे क्षण में उनका धैर्य फिर उनके साथ हो जाता था।
इस तरह से वे लोग करीब आध कोस बढ़े होंगे कि लोचनसिंह यकायक रुक गया और जमीन से घुटनों और छाती के बल सट गया। उसके पीछे आनेवाले सैनिक यकायक खड़े हो गए। उनके चलते रहने से जो शब्द हो रहा था, वह मानो सिमटकर केंद्रित हो गया और एक बड़ी गूंज-सी उस जंगल में उठकर फैल गई।
आकाश में चंद्रमा न था। बड़े-बड़े और छोटे-छोटे तारे प्रभा में डूबते-उतराते-से मालूम पड़ते थे। छोटे तारेटिमटिमा रहे थे। तारिकाएँ अपनी रेखामयी आभा आकाश पर खींच रही थीं। पक्षी भरभराकर वक्षों से उड़-उड़ जाते थे। आकाश के तारों की टिमटिमाहट की तरह झींगुरों की झंकार अनवरत थी। लोचनसिंह ने अपने पास खड़े हुए सैनिक का पैर दबाया। लोचनसिंह के इस असाधारण ढंग से उस सैनिक को तुरंत यह धारणा हुई कि कोई बड़ा और विकट संकट सामने है। वह भी घुटनों और छाती के बल पृथ्वी से सट गया। लोचनसिंह के पास अपना कान ले जाकर धीरे से बोला, 'दाऊजू, क्या बात है?'
'सामने और दाएं-बाएँ से कोई आरहा है। शायद अलीमर्दान की सेना बढ़ी चली आ रही है-बड़ी सावधानी के साथ।'
'तो क्या किया जाए?' 'जरा ठहरो। पीछेवालों को तुरंत संकेत करो कि वे सब इसी तरह पृथ्वी से सट जाएँ।'
उस सैनिक ने धीरे से यह संकेत अपने पीछे के सैनिकों में पहुँचाया। परंत जैसा कि बिलकुल स्वाभाविक था, इस संकेत के सब ओर पहुँचने में काफी विलंब हो गया। जो लोग मार्ग की दुर्गमता के कारण आगे-पीछे हो गए थे, उन तक तो वह संकेत पहुँचा ही नहीं।
कुछ ही क्षण बाद लोचनसिंह को सामने आनेवाला शब्द यकायक बंद होता हुआ जान पड़ा और उसके दाहिनी ओर नदी की दिशा में बंदूक की आवाज सुनाई पड़ी।
लोचनसिंह ने अपने पासवाले सैनिकों से धीरे से कहा, 'अभी हिलना-डुलना मत।' जिस दिशा में बंदूक चली थी, उस दिशा में शोर हुआ। एक ओर से कालपी और दूसरी ओर से दलीपनगर की जय का शब्द परस्पर गुंथ गया। तब भी लोचनसिंह का हाथ बंदूक या तलवार पर नहीं गया।
पास खड़े हुए सैनिक ने लोचनसिंह से पूछा, 'दाऊजू, क्या आज्ञा है?'
लोचनसिंह ने कडुवाहट के साथ उत्तर दिया, 'चुप रहो। जब तक मैं कुछ न कहूँ, तब तक चुप रहो।'
जिस दिशा में जय की गूंज उठी थी, उस दिशा में बंदूकों की नाल से निकलनेवाली लौ प्रतिक्षण बढ़ने लगी और वह नदी की ओर अग्रसर होने लगी।
लोचनसिंह ने धीरे से अपने पास के सैनिक से कहा, 'जान पड़ता है, अलीमर्दान की सेना सब ओर से बढ़ती आ रही है। इस समय जनार्दन की टुकड़ी के साथ मुठभेड़ हो गई है। होने दो। बोलो मत। उसका करतब थोड़ी देर देख लिया जाए।'
पास के सैनिक ने कोई उत्तर नहीं दिया। परंतु पीछे के सैनिकों में से कुछ चिल्ला उठे, 'दाऊजू, क्या आज्ञा है?'
इस प्रकार की आवाज उठते ही सामने से कुछ बंदूकों ने आग उगली। लोचनसिंह के पीछेवाले सैनिकों ने उत्तर दिया; परंतु आगे की कतार, जो पृथ्वी से सटी हुई थी, उसने कुछ नहीं किया। लोचनसिंह के उन साथियों की बंदूकों की गोलियाँ वायु में फुफकार मारती हुई कहीं चल दीं, किसी के बाल को भी उन्होंने न छुआ होगा, परंतु अलीमर्दान की सेना के उस दल की बाढ़ ने लोचनसिंह के कई सैनिकों को हताहत कर दिया। इसका पता लोचनसिंह को उनके कराहने से तुरंत लग गया।
बहुत शीघ्र लोचनसिंह की दाहिनी ओर लड़ाई ने गहरा रंग पकड़ा। उसकी टकड़ी का एक भाग और जनार्दन की सेना का बड़ा खंड उसी केंद्र पर सिमट पड़े। देवीसिंह नदी-किनारे पर अपने दल को लिए स्थिर हो गया।
लोचनसिंह के निकटवर्ती सैनिक सोचने लगे कि वह कहीं मारा तो नहीं गया, नहीं तो ऐसा किंकर्तव्यविमूढ़ क्यों हो जाता? अलीमर्दान की सेना के उस भाग ने, जो लोचनसिंह के सामने था, सोचा कि इस ओर क्षेत्र रीता है। वह बढ़ा। जब वह लोचनसिंह के बहुत पास आ गया, तब तारों के प्रकाश में लोचनसिंह को एक बढ़ता हुआ झुरमुट-सा जान पड़ा।
लोचनसिंह ने कड़ककर कहा, 'दागो।' पृथ्वी से सटे हुए उसके सैनिकों ने बंदूकों की बाढ़ एक साथ दागी। पीछे के सैनिकों ने भी गोली चलाई। इस बाढ़ से कालपी की सेना का वह भाग बिछ-सा गया। थोड़ी देर में बंदकों को फिर भरकर लोचनसिंह अपने उस दल को झपटकर लेकर बढ़ा। कालपी की सेना के योद्धा भी इस मुठभेड़ के लिए सन्नद्ध थे। एक क्षण में ही बंदूकों ने आग और लोहा उगला। फिर धीरे-धीरे बंदूकों की ध्वनि कम और तलवारों की झनझनाहट अधिक बढ़ने लगी। लोचनसिंह पल-पल पर अपने दल के एक भाग के साथ आगे बढ़ रहा था। परंतु वह नदी से बराबर दूर होता चला जा रहा था। उसके दल का दूसरा भाग नदी की ओर कटकर आगे-पीछे होता जाता था। उसी ओर से जनार्दन का दल खूब घमासान करने में लग पड़ा था। कालपी की सेना का भी अधिकांश भाग इसी ओर पिल पड़ा।
कुछ घड़ियों पीछे अलीमर्दान के सरदार को मालूम हुआ कि दलीपनगर की एक सेना का भाग उसके पीछे घूमकर युद्ध करता हुआ बढ़ रहा है। वह धीरे-धीरे पीछे हटने लगा। परंतु लोचनसिंह के बढ़ते हुए दबाव का विरोध करने के लिए उसे जाना पड़ा। युद्ध कभी थमकर और कभी बढ़-घटकर होने लगा। अँधेरे में मित्र-शत्रु की पहचान लगभग असंभव हो गई। सैनिक केवल एक धुन में मस्त थे-'जब तक बाँह में बल है, अपने पासवाले को तलवार के घाट उतारो।'
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