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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: ९८:


'कल देवीसिंह को उसके सब पापों का फल मिलेगा महारानी साहब।' अलीमर्दान ने कहा, 'चाहे इस लड़ाई में मेरी आधी फौज खतम हो जाए, पर मोर्चा लिए बिना चैन न लूँगा। खुदा ने चाहा तो कल शाम को इस वक्त हम लोग रामनगर और विराटा पर पूरा अधिकार कर लेंगे।'
रानी ने रामदयाल के द्वारा कहलवाया, 'मुझे आपसे यही आशा है। मेरी समझ में हल्ला रात में ही बोल दिया जाए। सेना को कई दलों में बाँट दिया जाए। कुछ तो समय-कुसमय के लिए तैयार बने रहें, बाकी दल कई ओर से चढ़ाई करके डटकर लड़ जाएँ।'
अलीमर्दान बोला, 'मैंने भी कुछ इसी तरह का उपाय सोचा है। मैं एक विनती करने आया हूँ।'

रामदयाल ने पूछा, 'क्या आज्ञा है?' 'विनती यह है।' अलीमर्दान ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, 'कि इस धावे का सेनापतित्व महारानी साहब और मेरे नायक के हाथ में रहे। महारानी साहब की शूरता हमारे सैनिकों की छाती को लोहे की बना देगी।'
रानी ने रामदयाल के द्वारा कहा, 'आपकी आज्ञा का पालन किया जाएगा। आपन भी चाहते, तो भी मैं सेना के आगे रहकर अपने पद और मर्यादा का मन मनाती।'

रामदयाल कहने में शायद कुछ भूल गया था, इसलिए आड़-ओट की अपेक्षा न करके रानी स्वयं बोलीं, 'कल मैं बताऊँगी कि क्षत्राणी इसे कहते हैं।' इस नए अनुभव से अलीमर्दान एक क्षण के लिए जरा चंचल हुआ।
रानी ने अपनी सहज उत्तेजना की साधारण सीमा से आगे बढ़कर कहा, 'मैं कल इस समय आपसे बात करने के लिए जिऊँ या न जिऊँ, परंतु वह काम करूंगी, जिसे स्मरण करके परुषों के भी रोमांच हो जाया करेगा।'

रानी का गला सँध गया। सँधे हुए स्वर में बोलीं, 'मैंने कपटाचारियों के छल और अधर्म के कारण जो कुछ सहा है, उसे मेरे ईश्वर जानते हैं। मैंने कदाचारियों और विद्रोहियों के सामने कभी सिर नहीं नवाया और न कभी नवाऊँगी। अभिमान के साथ उत्पन्न हुई थी और अभिमान के साथ मरूंगी।' रानी अपने भरे हुए गले और आंदोलित हृदय को संभालने के लिए जरा ठहरीं। अलीमर्दान इस उद्गार का कोई उपयुक्त उत्तर सोचने लगा। रानी अपने को न संभालकर सिसककर बोलीं, 'मेरे स्वामी वैकुंठवास की तैयारी कर रहे थे; निर्दयी राक्षसों ने उनके सिरहाने बैठे-बैठे एक प्रपंच-जाल रचा और उसमें दलीपनगर के मकट को फाँसकर उसे पद-दलित किया। यदि इन आतताइयों को
मैंने दंड न दे पाया, तो मेरे जीवन और मरण दोनों व्यर्थ हए।' - रामदयाल अपने कोने से हटकर रानी के पास आ गया। सांत्वना देने लगा, आप रोएँ नहीं। थोड़ी-सी घड़ियों के बाद घमासान युद्ध होगा। उसमें जो कोई कुछ कर सकता है, करेगा।'
अलीमर्दान को कोई विशेष उत्तर याद न आया, तो भी बोला, 'आपके रोने से हम सबको बहुत रंज होगा। आप भरोसा रखें, कल लड़ाई का सब नक्शा बदल जाएगा। आपकी बहादुरी हमारे सब सिपाहियों को शहीद बनाने का बल रखती है।'

रानी ने गला साफ करके कर्कश स्वर में कहा, 'मेरे पास जो थोड़े से सरदार बचे हैं वे धावे में निकट रहेंगे। मैं लडूंगी, वे लड़ेंगे। मैं आगे रहकर लडूंगी, परंतु सेना का संचालन आप अपने सरदार के हाथ में दीजिए। मैं जिस दिशा से डाकू देवीसिंह का व्यूह वेध करूँगी, उस ओर फिर शायद ही लौटूं। मुझे सैन्य-संचालन का अवकाश न मिलेगा।'
अलीमर्दान तुंरत बोला, 'सरदार आपके नजदीक ही रहेंगे।' गोमती ने रामदयाल से ऐसे स्वर में पूछा जिसे अलीमर्दान सुन सके, 'नवाब साहब कहाँ रहेंगे?'
अलीमर्दान इस प्रश्न के लिए तैयार था। तपाक से बोला, 'समय समय के लिए जो एक बड़ा दल तैयार रहेगा, उसका संचालन मैं करूंगा। उसके सिवा मुझे विराटा की भी थोड़ी-सी चिंता है। विराटा का राजा हम लोगों से लड़ता रहा है। एक-दो दिन से जरूर वह देवीसिंह की तरफ ध्यान दिए हुए है, पर उसकी ओर से हम लोगों को असावधान न रहना चाहिए। यदि उसने पीछे से हमारी सेना को धर दबाया, तो सब बना-बनाया बिगड़ जाएगा।'
गोमती ने सीधा अलीमर्दान को संबोधन करके कहा, 'आप विराटा के राजा की संधि-प्रार्थना को क्यों स्वीकार नहीं कर लेते? आप तो बहुत शक्तिशाली नवाब हैं। आपको भगवान् ने सब कुछ दिया है, तो भी जो कुछ थोड़ी-बहुत धन संपत्ति विराटा के पास बची है, वह आपको भेंट कर देगा। आप उसे क्षमा कर दें।'

अलीमर्दान ने रामदयाल से संकेत में पूछा, 'यह कौन है?'

रामदयाल ने बहत धीरे से अलीमर्दान को उत्तर दिया, 'यह वहाँ रही हैं। इस समय महारानी की आश्रित हैं, हम लोगों के पक्ष की हैं। मैंने एक बार कहा था न!'
इसे रानी ने चाहे सुना हो, चाहे न सुना हो, गोमती ने सुन लिया। बोली, 'मैं भी महारानी के पास रहकर लड़ूँगी। ठाकुर की बेटी हूँ। अपना कर्तव्यपालन करूँगी। इससे अधिक जानने से आपको कोई लाभ न होगा।'

अलीमर्दान ने कहा, 'यों तो मैं महारानी साहब के इशारे पर नाचने को तैयार हैं, परंतु विराटा के राजा ने जो गुस्ताखी की है, उसका दंड देना जरूरी जान पड़ता है। परंतु यदि महारानी साहब का हुक्म होगा, तो मैं उसे भी माफ कर दूंगा।'

रानी बिना किसी उत्साह के बोलीं, 'हमारा लक्ष्य दलीपनगर के बागी हैं। देवीसिंह और उसके सहायक जनार्दन के टुकड़े उड़ाना हमारा कर्तव्य है। विराटा को हम लोग इस समय छोड़ दें, तो बहुत अच्छा होगा। विराटा के राजा की उस लड़की पर कोई वार न होना चाहिए। आगे जैसी नवाब साहब की मर्जी हो।'

अलीमर्दान ने कहा, 'आपकी आज्ञा होतो मैं स्वयं थोड़े-से आदमियों को अपने साथ विराटाले जाऊँ और वहाँ के ठिकानेदार को कायदे के साथ वहाँ का राजा बना आऊँ।

मेरा उसके साथ कोई वैर नहीं है।'

'ना' रानी ने उत्तर दिया, 'आप यदि उस ओर चले जाएंगे, तो यहाँ गड़बड़ फैलने का डर है। आप यदि लड़ाई में आरंभ से ही भाग न लें तो अपनी कुमक के साथ निकट ही बने रहें। आप अभी विराटा न जाएँ। रामदयाल को आप चाहें, तो अपने साथ रखें।'

'न।' रामदयाल ने तेजी के साथ कहा, 'महारानी जहाँ होंगी, वहीं मैं भी रहूँगा। मैं भी लड़ना जानता हूँ। महारानी के शत्रुओं को मैं भी पहचानता हूँ।'

अलीमर्दान बहुत अच्छा' कहकर वहाँ से चल दिया। जाते-जाते कहता गया, 'थोड़ी देर में धावा कर दिया जाएगा। थोड़ा-सा आराम करके तैयार हो जाइए।' । __ सरदार अलीमर्दान के साथ आया था और साथ ही गया। डेरे पर पहुँचने पर बोला, 'तो क्या हुजूर विराटा पर हमला न करेंगे?'
'कौन कहता था?' अलीमर्दान ने रुखाई के साथ कहा, 'आधी रात के बाद ही मैं एक दस्ता लेकर विराटा की ओर जाता हूँ। शायद बिना किसी जोखिम के विराटा में दाखिल हो जाऊँगा; परंतु मेरे यहाँ से कूच करने के पहले तुम्हारी तैयारी में किसी तरह की कसर न रहनी चाहिए। मैं अगर पद्मिनी को लेकर जल्द लौट पड़ा तो तुम्हारी मदद के लिए आ मिलूँगा। अगर देर हुई तो मेरी बाट मत देखना और न मेरी चिंता करना। अब यों भी सारी लड़ाई की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर रहती है। शायद ऐसा मौका आ जाए कि मुझे पद्मिनी को लेकर भाँडेर चला जाना पड़े, तो मामूली शर्तों के साथ देवीसिंह के साथ संधि करके चले आना। दिल्ली से लौटकर फिर कभी देखेंगे; परंतु विराटा का मोर्चा हाथ से न जाने देना चाहिए। जब तक विराटा से मेरे लौट पड़ने की खबर तुम्हें न लगे, तब तक लड़ाई जारी रखना।'

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