ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:९७:
जब से गोमती छोटी रानी के पास आई, बोली कम, किसी गंभीर चिंता में, किसी गूढ़ विचार में डूबती-उतराती रही अधिक। छोटी रानी का अनुराग कथोपकथन में अधिक दिखलाई पड़ता था परंतु गोमती हाँ-हूँ करके या बहुत साधारण उत्तर देकर अपनी विषय रुचि-भर प्रकट कर देती थी।
छोटी रानी की रावटी विराटा के उत्तर-पश्चिम में, एक गहरे नाले के छोटे-से द्वीप पर थी। इसी नाले के छोर पर अलीमर्दान का डेरा था। रात हो रही थी। गोमती को अपने अंगों में शिथिलता अनुभव हो रही थी। रानी बातचीत करने के लिए आतुर थीं। गोमती कोई बचाव न देखकर बातचीत करने के लिए तत्पर हो गई।
छोटी रानी बोलीं, 'कई बार पहले भी कह चुकी थी कि इस लड़ाई में मैं स्वयं तलवार लेकर भिड़ेंगी। पुरुषों की ढीलढाल के कारण ही देवीसिंह अब तक मौज में है।'
'हाँ, सो तो ठीक ही है।' गोमती ने जमुहाई लेकर सहमति प्रकट की। 'मैं केवल यह चाहती हूँ कि देवीसिंह के सामने तक किसी तरह पहुँच जाऊँ।' रानी बोलीं।'
गोमती ने सिर हिलाया।
रानी कहती गईं, 'अब और अधिक जीने की इच्छा नहीं है। दलीपनगर के राज्य की भी आकांक्षा नहीं है, परंतु छलियों और अधर्मियों को अपने मरने से पहले कुचला हुआ देखने की अभिलाषा अवश्य है। देवीसिंह को रण में ललकार सकँ, जनार्दन शर्मा का मांस कौओं-कुत्तों को खिला सकँ, केवल यह ललक है। अलीमर्दान के पास इतनी सेना है कि यदि वह डटकर लड़ डाले तो देवीसिंह की सेना नष्ट-भ्रष्ट हो जाए। अवसर भी अच्छा है। विराटा उस छलिया पर आग बरसा ही रहा है। इधर से एक प्रचंड हल्ला और बोल दिया जाए तो युद्ध के सफल होने में विलंबन रहे। तब दलीपनगर फिर उसके सच्चे अधिकारी के हाथ में पहुंच जाए; नीच, राक्षस जनार्दन अपनी करनी को पहुँचे, स्वामिधर्मी सरदारों का जी-में-जी आवे और बागी भय के मारे दलीपनगर छोड़कर भागें। धर्म का राज्य हो और सब लोग शांति के साथ अपना-अपना काम करें। कुंजरसिंह को एक अच्छी-सी जागीर मिल जाए, तो वह भी सख के साथ अपना जीवन-निर्वाह करे; परंतु बड़ी सरकार से कुछ न बना।'
इसी क्षण रानी ने अपने स्थान के एक कोने में दृष्टि डाली। वहाँ राजपाट का कोई सामान न था। परंतु उसे अपनी वर्तमान वास्तविक अवस्था का फिर ध्यान हो आया।
भलए हए कंठ से वह बोलीं, 'राज्य नहीं चाहिए और न वह कदाचित् मिलेगा, परंतु हाथ में तलवार लेकर देवीसिंह के कवच और झिलम को अवश्य फाइँगी और फिर मरूँगी। इसे कोई नहीं रोक सकेगा, यह तो मेरे भाग्य में होगा, गोमती।' __ गोमती की शिथिलता कम हो गई थी। शरीर में सनसनी थी, गले में कंप।
धीरे से बोली, 'आप जो कुछ करें, मैं आपके संग में हूँ। मैं भी मरना चाहती हूँ। मुझे संसार में अब और कुछ भी देखने की इच्छा नहीं। कुमुद-विराटा की देवी-सुखी रहे, यही लालसा है।' _ 'विराटा की देवी!' रानी ने उत्तेजित होकर कहा, 'दाँगी की छोकरी को देवी किसने बना दिया?'
गोमती ने भी जरा उत्तेजित स्वर में उत्तर दिया, 'संसार उसे मानता है। और कोई माने या न माने, मैं उसे लोकोत्तर समझती हूँ। यदि इसी समय प्रलय होनेवाली हो, तो मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगी कि कम-से-कम एक वह बची रहे।'
रानी जोर से हँसकर यकायक चुप हो गईं और तुंरत बोलीं, 'नहीं, मैं प्रार्थना करूँगी कि मैं और देवीसिंह बचे रहें और मेरी तलवार। मैं अपनी तलवार से या तो उसका गला काट लूँ और या उसी तलवार को अपनी छाती में चुभो लूँ।'
'जनार्दन?' गोमती ने क्षीण तीक्ष्णता के साथ पूछा। 'मेरे साथ हँसी मत करो।' रानी ने निषेध किया, 'जनार्दन बचा रहेगा, तो उसके मारने के लिए रामदयाल भी तो बना रहेगा।'
गोमती का चेहरा एक क्षण के लिए तमतमा गया। परंतु अपने को संयत करके बोली, 'जब मैं स्वयं तलवार चला सकती हूँ, तब किसी के आसरे की कोई अटक नहीं है।' फिर तुरंत अपने असंगत उत्तर पर कुपित होकर बोली, 'मैं अपनी बकवाद से आपको अप्रसन्न नहीं करना चाहती, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि-'
'क्या?' रानी ने असाधारण रुचि प्रकट करते हुए पूछा, 'किस बात में संदेह नहीं?'
गोमती ने बिलकुल संयत स्वर में कहा, 'इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं लड़ना चाहती हूँ उसके साथ जिसने मेरा अपमान किया है, मेरे जीवन का नाश किया है-आपके साथ नहीं।'
रानी ने एक क्षण पश्चात् प्रश्न किया, 'रामदयाल कहाँ है?' 'मुझे नहीं मालूम।' गोमती ने उत्तर दिया। 'तुमसे कहकर नहीं गया?' 'न। आपसे कुछ कहकर गए होंगे-' 'वह तुम्हारे साथ ब्याह करना चाहता है, अर्थात् यदि तुम उसकी जाति की होओ तो।'
'और न होऊँ तो?' 'तो भी वह अपना घर बसाना चाहता है, तुम्हें यों ही रख लेगा।'
गोमती ने दाँत पीसे। बहुत धीरे और कांपते हुए स्वर में पूछा, 'वह कौन जाति के हैं?'
'दासी-पुत्र है।' रानी ने प्रखर कंठ से उत्तर दिया, 'दासी-पुत्रों की कोई विशेष जाति नहीं होती, उनका संबंध परस्पर हो : ग है। परंतु वह स्वामिभक्त है।'
'यहाँ तो मुझे सब दासी-पुत्र दिखाई दे रहे हैं।' गोमतीने मुक्त होकर कहा, 'मुझे तो कोई भी वास्तविक क्षत्रिय नहीं दिखाई देता। क्षत्रियत्व की डींग मारनेवालों में क्षत्रिय का क्या कोई भी लक्षण बाकी है? अपने को क्षत्रिय कहनेवाला कौन-सा मनुष्य दुर्बलों को सबलों से, पतितों को उत्थितों से, पीड़ितों को पीड़कों से, निस्सहायों को प्रपन्नों से बचाने में अपने को होम देता है? मैं तो यह देख रही हैं कि क्षत्रित्व की डींग मारनेवाले अपने अहंकार की झंकार को बढ़ाने और पर-पीड़न के सिवा और कुछ नहीं करते।' फिर नरम स्वर में तुरंत बोली, 'आपसे पूछती हूँ कि विराटा के मुट्ठी-भर दाँगियों ने आपका या दलीपनगर का क्या बिगाड़ा है जो उन पर प्रलय बरसाई जा रही है? क्या जिस प्रेरणा के साथ आप दलीपनगर के राजा या छलिया के साथ लोहा लिया चाहती हैं, उसकी आधी भी उमंग के साथ आप विराटा की उस निस्सहाय कुमारी की कुछ सहायता कर सकती हैं?'
रानी कुछ कहना चाहती थीं कि रामदयाल आ गया। उसके चेहरे पर उमंग की छाप थी। एक तीक्ष्ण दृष्टि से उसने रानी की ओर देखा और आधे पल एक कोने से गोमती को देखकर बोला, 'कल बहुत जोर की लड़ाई होगी, ऐसी कि आज तक कभी किसी ने न देखी और न सुनी होगी।'
क्रुद्ध स्वर में रानी ने कहा, 'तू उस लड़ाई में कहाँ होगा? ले जा इस लड़की को संसार के किसी कोने में और कर अपना जन्म सफल। मरने-मारने के लिए मुझे अब किसी साथी की जरूरत नहीं।'
किसी भाव के कारण गोमती का गला रुद्ध हो गया। कछ कहने को ही थी कि छोटी रानी के स्वभाव और अभ्यास से परिचित रामदयाल मानो दोनों ओर के वारों के बीच में ढाल बन गया हो। बोला, 'नवाब साहब एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय पर बातचीत करने के लिए आपके पास आए हैं। यहीं खड़े हैं, तुरंत मिलना चाहते हैं। लिवा लाऊँ?'
रानी ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी। कुछ ही पल बाद रामदयाल अलीमर्दान को लिवा लाया। रानी ने साधारण-सी आड़ कर ली और रामदयाल ने उसके बैठने के लिए आसन रख दिया।
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