ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:९६:
अलीमर्दान शीघ्र युद्ध समाप्त करना चाहता था। दीर्घकाल तक लगातार लड़ते रहना किसी पक्ष के भी मन में हठ के रूप में न था। छोटी रानी को कुछ समय पहले वह सहायक समझता था, परंतु अब उसके लिए भार-सी होती जा रही थीं। विराटा की पद्मिनी के लिए उसका जी उत्सुकता से भरा हुआ था। देवीसिंह को यदि वह चार-छ: कोस ही पीछे हटा सकता और थोड़ा-सा अवकाश पाकर कुमुद को विराटा से अपने साथ ले जाता, तो भी वह अपने को विजयी मान लेता। विराटा और रामनगर के छोटे-छोटे-से राज्य उसकी महत्त्वाकांक्षा के क्षितिज नहीं थे। उसकी राजनीतिक कल्पनाओं के केंद्र दिल्ली और कालपी थे।
अपनी ही उमंग और सनक से उत्तेजित होकर उसने अपने एक सरदार को बुलाया। कहा, 'देवीसिंह परजोर का हमला करके उसे पीछे हटाना बहुत जरूरी है। विराटा को भी आँख से ओझल नहीं होने देना चाहिए। यदि विराटावालों के ध्यान में पूर्व दिशा की ओर भाग खड़े होने की समा गई, तो फिर कुछ हाथ नहीं लगेगा। सारी मेहनत बेकार हो जाएगी।'
'जब तक कुंजरसिंह विराटा में है,' उसने मंतव्य प्रकट किया, 'तब तक वहाँ की चिंता नहीं है। वह बराबर देवीसिंह की सेना पर गोला-बारी करता रहेगा।'
अलीमर्दान उत्तेजित स्वर में बोला, 'मैं चाहता है, अपने सिपाही बढ़कर हाथ करें। देवीसिंह पीछे हटाया जाए। तुम रानी को साथ लेकर पहल करो। मैं एक दस्ता लेकर विराटा पर धावा करता हूँ। आगे तकदीर।'
सरदार ने अचकचाकर कहा, 'सेना को टुकड़ों में बाँटना शायद हानि का कारण हो बैठे।'
'जरूर हो सकता है।' अलीमर्दान ने चुटकी ली, 'यदि हमारी फौज इस कायदे और पाबंदी के साथ लड़ती रही, तो।'
वह मुंहलगा नायक था परंतु जब नवाब को उत्तेजित देखा तब उसने विरोध करने का साहस नहीं किया। इसके सिवा कुंजरसिंह के दो ओर से दबोचे जाने के प्रस्ताव में एक हिंसामूलक आशा थी, इसलिए वह शीघ्र सहमत हो गया। आक्रमण के सब पहलुओं पर बातचीत करके योजना को सांगोपांग तैयार कर लिया। रानी को इस प्रकार
की लड़ाई के लिए सहमत कर लेना वह बिलकुल सहज समझता था।
रानी तो सहज सरल गति को घृणा के साथ शिथिलता की संज्ञा देने की मानो प्रतिभा रखती थीं। परंतु अलीमर्दान जानता था कि रानी को अपनी तैयार की हुई योजना को निर्णय के रूप में बताने से वह तत्काल उत्साहपूर्ण सहमति प्राप्त न होगी, जो उसी के मुँह से अपनी योजना पर उसके निश्चय की छाप लगवाने से होती। इसलिए उन दोनों ने छोटी रानी के डेरे पर जाने का संकल्प किया।
अलीमर्दान और सरंदार इस अभीष्ट से अपने स्थान से बाहर जाने को ही थे कि एक हरकारा सामने आया।
हजर!' हॉफता हआ बोला, 'दिल्ली से खानदौरान का पत्र आया है।' जैसे तेजी के साथ बहनेवाले नाले की धार को एकाएक एक बड़ी चट्टान की बाधा सामने मिल जाए और उसके आगे की धार क्षीण हो जाए, उसी तरह अलीमर्दान सन्न-सा हो गया। सँभलकर उसने हरकारे से कहा 'कहाँ है लाओ।'
हरकारे ने अलीमर्दान के हाथ में चिट्ठी दी। दिल्ली का सिंहासन संकट में था। दिल्ली में ही दिल्ली का एक सरदार विमुख हो गया था। और सरदार पर इतना भरोसा न था जिसका अलीमर्दान पर। राजपथ को स्वच्छ करने के लिए अलीमर्दान को तुरंत शेष सेना समेत दिल्ली आने के लिए पत्र में लिखा था। पत्र पर बादशाह की मुहर थी। खानदौरान ने उसे भेजा था। खानदौरान के बनने-बिगड़ने पर अलीमर्दान का इस तरह के अनेक सरदारों की भाँति, भविष्य निर्भर था। इसलिए वह पत्र फरमान के रूप में था
और अनिवार्य था। __ अलीमर्दान ने सरदार को पत्र या फरमान दे दिया। उसने पढ़कर मुसकराकर कहा, 'हुजूर को शायद पहले से कुछ मालूम हो गया था। कल के लिए लड़ाई का जो कुछ ढंग तय किया गया है, वह इस फरमान की एक लकीर के खिलाफ नहीं जा रहा है।' __ अलीमर्दान भी उत्साहित होकर बोला, 'इसमें संदेह नहीं कि इस परवाने से कल की
लड़ाई को दोहरा जोर मिलना चाहिए। भाईखाँ, अगर लड़ाई चींटी की रफ्तार से चली, तो कल ही या ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन बाद हमें देवीसिंह से सुलह करनी पड़ेगी और जीते-जिताए मैदान को छोड़कर चला जाना पड़ेगा। अंत में कुंजरसिंह और उनके देवी-देवता कहीं कूच कर देंगे और फिर हजार लड़ाइयों का भी वह फल न होगा, जो कल की एक कसदार लड़ाई का होना चाहिए। क्या कहते हो?'
सरदार ने उत्तर दिया, 'इंशाअल्ला कल ही सवेरे लीजिए, चाहे हमारी आधी सेना कट जाए।'
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