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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: ९४:


अलीमर्दान के शिविर में रामदयाल और गोमती के पहुँच जाने के बाद ही विराटाकी गढ़ी पर गोला-बारी बढ़ गई। कुंजरसिंह की तोपें उत्तर देने लगीं। परंतु कुंजरसिंह ने एक घंटे के भीतर ही देख लिया कि समस्या अत्यंत विकट हो गई है और अधिक समय तक विराटा की गढ़ी को सुरक्षित रखना संभव न होगा। __ तोपों के ऊपर अपने चुस्त तोपचियों को छोड़कर वह कुमुद के पास गया। खोह में
इस समय नरपति न था।

कुंजरसिंह ने धीमे स्वर में कहा, 'बिदा माँगने आया हूँ।'

कुमुद उसके असाधारण तने हुए नेत्र देखकर चकित हो गई। कोमल स्वर में पूछा, 'क्यों? क्या-'

'अंतिम बिदाई के लिए आया है। आज की संध्या देखने का अवसर मुझे न मिलेगा। चार-छः घंटे में यह गढ़ ध्वस्त हो जाएगा और रामनगर की सेनाएँ प्रवेश करेंगी। कुछ डर मत करना। खोह में ही बनी रहना। कोई सेना आपका अपमान नहीं कर सकेगी। यदि आप भी कल रात को बाहर चली जातीं, तो बड़ा अच्छा होता।'

कुमुद कुछ क्षण चुप रही। स्वर को संयत करके बोली, 'दुर्गा कल्याण करेंगी. विश्वास रखिए।'

'दुर्गा और आपका विश्वास ही तो मुझसे काम करवा रहा है।' कुंजरसिंह ने कहा, 'इसीलिए आपसे इसी समय बिदा माँगने आया हूँ। दुर्गा से मरते समय बिदा मागूंगा।' कुंजर मुसकराया। मुसकराहट क्षीण थी, परंतु उसमें न मालूम कितना बल था।

कुमुद की आँखें तरल हो गईं। ऐसी शायद ही कभी पहले हुई हों; जैसे गुलाब की पंखुड़ी पर बड़े-बड़े ओस-कण ढलक आए हों। उन्हें किसी तरह वहीं छिपाकर कुमुद ने कंपित स्वर में कहा, 'मैं आपके साथ चलूँगी।'

'मेरे साथ!' सिपाही कुंजर बोला, 'नहीं कुमुद, यह न होगा। गोलों की वर्षा हो रही है। उस संकट में आपको नहीं जाने दूंगा।' -
 
'मैं चलूँगी।'

कुमुद की आँखों में अब आँसू न थे। कुंजर ने दृढ़ता के साथ कहा, 'देवीसिंह की महत्त्वाकांक्षा पर मुझे बलिदान होना है, आपको नहीं। आप इसी खोह में रहें।'

'मैं दुर्गा के पास प्रार्थना करने जाती हूँ।' कुमुद बोली।

उसने पैर उठाया ही था कि एक गोला मंदिर की छत पर और आकर गिरा और वह ध्वस्त हो गई।

कुंजर ने कहा, 'वहाँ मत जाइए, दुर्गा का ध्यान यहीं करिए। मैं अब जाता हूँ। मरने के पहले मैं देवीसिंह को अपनी तोपों की कुछ करामात दिखलाना चाहता हूँ। उसे विजय सस्ती नहीं पड़ने दूंगा।'

'अभी मत जाओ।' क्षीण स्वर में कुमुद ने कहा, 'जरा ठहर जाओ। गोला-बारी थोड़ी कम हो जाने दो।' और बड़े स्नेह की दृष्टि से कुमुद ने कुंजर के प्रति देखा।

कुंजर उत्साहपूर्ण स्वर में बोला, 'मैं अभी थोड़ी देर और नहीं मरूँगा। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि देवीसिंह के सिर पर तलवार बजाकर फिर मरूंगा।'

कुमुद चुप रही। जल्दी-जल्दी उसकी साँस चल रही थी। आँखें नीची किए खड़ी थी। कुंजर भी चुप था। तोपों की धूम-धड़ाम आवाजें आ रही थीं। कुंजर ने पूछा, 'तो जाऊँ?' परंतु गमनोद्यत नहीं हुआ। कुमुद बोली, 'जाइए, पीछे-पीछे मैं आती हूँ।' 'तब मैं न जाऊँगा। 'यह मोह क्यों?' 'मोह?' कुंजर ने जरा उत्तेजित होकर कहा, 'मोह! मोह! न था। अब मरने का समय आ रहा है, इसलिए मुक्त होकर कह डालूँगा कि क्या था....।' परंतु आगे उससे बोला नहीं गया।
कुमुद उसकी ओर देखने लगी। कुछ क्षण बाद कुंजर ने कहा, 'तुम मेरे हृदय की अधिष्ठात्री हो, मालूम है?' कुमुद का सिर न-मालूम जरा-सा कैसे हिल गया। आँखें फिर तरल हो गई। 'तुम मेरी हो?' आवेशयुक्त स्वर में कुंजर ने प्रश्न किया। कुमुद ने कुछ उत्तर नहीं दिया। कुंजर ने उसी स्वर में फिर प्रश्न किया, 'मैं तुम्हारा हूँ।' कुमुद नीचा सिर किए खड़ी रही। कुंजर ने बड़े कोमल स्वर में प्रस्ताव किया, 'कुमुद, एक बार कह दो कि तुम मेरी हो और मैं तुम्हारा हूँ-संपूर्ण विश्व मानो मेरा हो जाएगा और देखना, कितने हर्ष के साथ मैं प्राण विसर्जन करता हूँ।' कुंजर को यह न जान पड़ा कि वह क्या कह गया।

कुमुद ने सिर नीचा किए ही कहा, 'आप अपनी तोपों को जाकर संभालिए। मैं दुर्गाजी से आपकी रक्षा और विजय के लिए प्रार्थना करती हैं।'

कुंजर ने हँसकर कहा, 'उसके विषय में तो दुर्गा ने पहले ही कुछ और तय कर दिया किसी पूर्व-स्मृति ने कुमुद के हृदय पर एकाएक चोट की। 'दुर्गा ने पहले ही कुछ और तय कर दिया है। इस वाक्य ने कुमुद के कलेजे में बरछी-सी छेद दी। वह विस्फारित लोचनों से कुंजर की ओर देखने लगी। चेहरा एकाएक कुम्हला गया। होंठ काँपने लगे। उसे ऐसा जान पड़ा, जैसे लड़खड़ाकर गिरना चाहती हो। सहारा लेकर बैठ गई। दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया।

कुंजर ने पास आकर उसके सिर पर हाथ रखा, 'क्या हो गया है कुमुद? घबराओ मत। तुम दूसरों को धैर्य बंधाती हो। स्वयं अपना धैर्य स्थिर करो। संभव है, मैं आज की लड़ाई में बच जाऊँ।'

कुमुद फिर स्थिर हो गई। बोली, 'मैं आज लड़ाई में तुम्हारे साथ ही रहूँगी। मानो।' कुंजरसिंह कुछ क्षण कोई उत्तर न दे पाया। कुमुद ने फिर कहा, 'वहाँ पास रहने से आपके कर्तव्यपालन में विघ्न न होगा और मैं दुर्गा की प्रार्थना भी कर सकूँगी।'

कुंजर बोला, 'केवल एक बात मुँह से सुनना चाहता हूँ।' बहुत मधुर स्वर में कुमुद ने पूछा, 'क्या?' 'तुम मुझे भूल जाना!' नीचा सिर किए हुए ही कुमुद ने कुंजर की ओर देखा। थोड़ी देर देखती रही। आँखों से आँसुओं की धार बह चली।

कपित स्वर में कुंजरसिंह ने पूछा, 'भुला सकोगी?' कुमुद के होंठ कुछ कहने के लिए हिले, परंतु खुल न सके। आँखों से और भी अधिक वेग से प्रवाह उमड़ा।

कुंजर की आँखें भी छलक आई! बड़ी कठिनाई से कुंजर के मुँह से ये शब्द निकले-'प्राणप्यारी कुमुद, सुखी रहना। एक बार मेरी तलवार की मूठ छू दो।'

तुरंत कुमुद उसके सन्निकट आकर खड़ी हो गई। उसका एक कोमल कर कुंजर की कमर में लटकती हुई तलवार की मूठ पर जा पहुँचा और दूसरा उसके उन्नत भाल को छूता हुआ उसके कंधे पर जा पड़ा।

ऊपर गोले साँय-सॉय कर रहे थे। तोपचियों ने कुंजरसिंह को पुकारा। कुंजर ने अपना एक हाथ कुमुद की पीठ पर धीरे से रखा और फिर जोर से उसे हृदय से लगा लिया। कुमुद ने अपना सिर कुंजर के कंधे पर रख दिया।

तोपचियों ने कुंजरसिंह को फिर पुकारा।

कुंजरसिंह कुमुद से धीरे से अलग हुआ। बोला, 'यहीं रहना, बाहर मत आना। सुखी रहना।'

कुमुद कुछ न बोल सकी।

खोह से बाहर जाते हुए पीछे एक बार मुड़कर कुंजर ने फिर कहा, 'अगले जन्म में फिर मिलेंगे-अवश्य मिलेंगे अर्थात् यदि आज समाप्त हो गया तो।'

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