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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: ९२:


रामदयाल को बहुत चक्कर काटकर चलना पड़ा। थोड़ी देर बाद गोमती थकावट के मारेरामदयाल की बाँहों में सो गईया अचेत हो गई। रामदयाल थोड़ी दूर चल-चलकर दम लेने के लिए रुक जाता, परंतु गोमती को गोद से न उतारता।
जबशिविर थोड़ी दर रहा गया और सवेरा होने में भी बहुत विलंबन था,रामदयाल एक जगह कुछ समय के लिए थम गया। उसने गोमती को गोद में आराम के साथ लिटाया। गोमती सोती रही।

रामदयाल ने उसे जगाया।
गोमती ने पूछा, 'कितनी दूर निकल आए होंगे? अभी तो जंगल में ही मालूम पड़ते हैं।'

रामदयाल ने उत्तर दिया, 'बहुत दूर निकल आए हैं। उद्दिष्ट स्थान निकट आ गया है। कुछ कष्ट तो नहीं है?'
'अब मैं पैदल चलूँगी। खूब गहरी नींद आ जाने के कारण फुर्ती मालूम होने लगी है। छोड़ दो।'
'अभी नहीं छोडूंगा। पहले एक बात बतलाओ।' 'क्या?' 'तुम मुझे प्यार करती हो?' गोमती ने कोई उत्तर नहीं दिया।

रामदयाल ने और भी आवेश के साथ कहा, 'गोमती, मैं राजा तो नहीं हूँ, परंतु मेरा हृदय राजमुकुटों के ऊपर है। उसे मैं तुम्हारे चरणों में रखता हूँ।'
गोमती धीमे स्वर में बोली, 'तुम अपने राजा के सम्मुख जब जाओगे, क्या कहोगे?' 'मैं उनके सम्मुख अब कभी नहीं जाऊँगा। बहुत दिनों से गया भी नहीं। अब तो मैं छोटी रानी के पास रहूँगा, यदि तुम भी वहाँ रहना पसंद करोगी तो, नहीं तो इस विशाल जंगल में कहीं भी हम लोग अपने लिए ठौर ढूँढ़ लेंगे।'
'रानी के पास किसके हित के लिए जा रहे हो? किसके होकर जा रहे हो?' 'अपने हित के लिए और अपने होकर। मैं इस समय अपने और तुम्हारे सिवा और किसी भी चीज को नहीं देख रहा हूँ।'

'मुझे राजा से एक बार मिलना है।' 'किसलिए?' रामदयाल ने जरा चौंककर पूछा।
'दो बातें कहना चाहती हूँ। उस विश्वासघाती को कुछ दंड भी देना चाहती हूँ, यदि संभव हुआ तो।'

रामदयाल ने संतोष की साँस लेकर पूछा, 'इसके बाद क्या करोगी?' गोमती ने उत्तर दिया, इसके बाद जो कुछ भाग्य में लिखा है, होगा। कुमुद के ही पास चली जाऊँगी।'
रामदयाल ने कुछ क्षण चुप रहने के बाद कहा, 'यदि इस लड़ाई से बचने के बाद कुंजरसिंह और कुमुद का स्त्री-पुरुष संबंध हो गया, तो तुम वहाँ क्या करोगी?'
गोमती चुप रही।

रामदयाल कहता गया, कुमुद और कुंजर में प्रेम है भी। प्रेम का जो आवश्यक परिणाम है, वह भी होकर रहेगा, यानी वे दोनों अपना कुटुंब बनावेंगे। क्या हम लोग ऐसा नहीं कर सकते? तुम्हारा शायद यह ख्याल है कि मैं तो केवल एक नौकर-मात्र हूँ। मैं पूछता हूँ, हृदयों में क्या कोई भेद होता है? और फिर मेरे पास संपत्ति भी काफी होगी। इसमें संदेह नहीं कि तुम महारानी न कहला सकोगी, परंतु तुम सदा मेरी रानी होकर रहोगी, इसमें भी कोई संदेह नहीं। राजा ने जैसा बरताव तुम्हारे साथ किया है, उसमें क्या तुम यह आशा करती हो कि वह तुम्हें अब ग्रहण कर लेंगे? तुमने उन्हें दंड देने के विषय में जो प्रस्ताव किया है, वह महज अपने को धोखा देना है। तुम उन्हें कोई दंड न दे सकोगी। जिस समय उनके सामने जाकर उन्हें कोई उलटी-सीधी सुनाओगी, उस समय वह तुम्हारा और अधिक अपमान करेंगे। हाँ, मैं दंड भी दे सकता हूँ, परंतु तुम कहो, तो।'

गोमती ने कहा, 'कुमुद जैसी स्त्री अब कभी न मिलेगी। और एक लंबी आह खींची।

रामदयाल ने साँस खींचकर कहा,'तुम अब भी उधर का ही ध्यान कर रही हो? यदि तुम्हारी इच्छा वहाँ फिर लौट चलने की हो, तो आज दिन-भर यहीं भरकों में छिप जाओ, संध्या-समय मैं तुम्हें वहीं पहुँचा दूंगा और अपने को किसी तोप के गोले के नीचे
खपा दूंगा।' वह सूक्ष्मता के साथ गोमती की ओर देखने लगा।

गोमती को चुप देखकर जरा जोश के साथ रामदयाल बोला, 'बोलो गोमती। मैं इसके लिए भी तैयार हूँ। सवेरा होनेवाला है। दिन में बाहर चलना-फिरना अनुचित होगा। यदि काफी रात होती, तो मैं इसी समय विराटा लौट पड़ता, यद्यपि सारा शरीर
चूर-चूर हो गया है और काँटों के मारे बिच्छ के डंकों जैसी ताड़ना हो रही है।'

गोमती ने सिर नीचा करके कहा, 'मैं तुम्हारे साथ चलूँगी। अब विराटा नहीं जाऊँगी।'

रामदयाल का शरीर काँप उठा। उसने तुरंत असहाय गोमती को उठाकर अपने गले से लगा लिया। गोमती की आँखों से आँसू बह निकले।

उन दिनों छावनियों के आस-पास पहरों की वह कड़ाई न थी, जो आजकल की रणक्रिया में दिखाई पड़ती है। इसलिए रामदयाल और गोमती को छावनी के बाहर के थानेवालों ने सवेरा हो जाने के बाद देखा। कुछ रोक-टोक और कठिनाई के बाद रामदयाल गोमती को लिए हुए छोटी रानी के तंबू के पास आ खड़ा हुआ। रानी उन दोनों को देखकर प्रसन्न नहीं हुई। रामदयाल से कहा, 'इस बेचारी को इस घोर संग्राम में क्यों ले आया?

रामदयाल ने निर्भयता से उत्तर दिया, 'गोमती की रक्षा और कहीं हो ही नहीं सकती थी। इनका यहाँ बाल भी बांका न हो सकेगा। आपकी रावटी में रहेंगी यह।'

रानी की आँखों से चिनगारी-सी छूट पड़ी, परंतु गोमती के म्लान मुख और दुर्दशाग्रस्त नेत्रों को देखकर असाधारण संयम के साथ बोलीं, 'अच्छा, इस लड़की को मेरे पास छोड़ दो। मैं इसकी रक्षा करूँगी। तेरा कार्यक्रम अब क्या है?' गोमती को रानी ने अपने निकट बिठला लिया।

रामदयाल को तू-तड़ाक का यह वार्तालाप आज अपूर्व श्रुति-कटु जान पड़ा परंतु उसकी चतुरता ने उसका साथ न छोड़ा। कहने लगा, 'जो आपका कार्यक्रम है, वही मेरा भी। जनार्दन शर्मा को ठिकाने लगाना है, यही न?'

रामदयाल की बातचीत के संक्षिप्त ढंग से रानी जरा चकित हुई। रोष में आकर बोलीं, 'तू इस लड़की को सँभाले रहना। मैं जनार्दन का सिर काटूंगी।'

जरा लज्जित स्वर में रामदयाल ने उत्तर दिया, 'देखभाल के लिए तो मैं इन्हें यहाँ लाया ही हूँ। यह हथियार चलाना जानती हैं। आपको इनसे सहायता मिलेगी, परंतु जनार्दन से लड़ने के लिए न तो आपको जाना पड़ेगा और न इन्हें, मैं जाऊँगा।'

रानी ने बेधड़क गोमती से पूछा, 'तुम्हारा इसका क्या नाता है?' गोमती के होंठ फड़के, माथे की नसें फूल गईं और चेहरा लाल हो गया। कुछ कहने को हुई कि गला रुंध गया।

रामदयाल ने दबे हुए स्वर में तुरंत उत्तर दिया, 'इस समय मैं इनका केवल रक्षक हैं। इससे ज्यादा जानने की आपको जरूरत भी क्या है?'

रानी ने सिंहनी की दृष्टि से रामदयाल की ओर देखा। फिर यथासंभव नरम स्वर में गोमती से बोलीं, 'तुम ठीक-ठीक बतलाओ, यह तुम्हारा सत्यानाश करने को तो नहीं लिवा लाया है? यह बड़ा झूठा और फरेबी है।'

रामदयाल ने कुपित कंठ से कहा, 'ठीक है महाराज! मेरी सेवाओं का यह पुरस्कार तो मिलना ही चाहिए। मान लीजिए, मैं इसका सत्यानाश करने को ही यहाँ लिवा लाया है, तो इनकी जितनी दुर्दशा हो चुकी है, उससे और अधिक तो होगी नहीं, और यदि मैं आपको बहुत खलने लगा हूँ तो इसी समय चले जाने को प्रस्तुत हूँ।'

गोमती ने स्पष्ट स्वर में कहा, 'मैं रानी के पास रहूँगी।'

रानी नरम पड़ गईं। बोलीं, 'रामदयाल, तुम हमें ऐसे अवसर पर छोड़कर न जाओगे तो कब जाओगे? इसीलिए तो तुम्हें झूठा और फरेबी कहा। छुटपन से तुम्हें देखा है। छुटपन से तुम्हें गालियाँ दी हैं। अब क्या छोड़ दूँगी?'

सिर नीचा करके रामदयाल ने अपने सहज स्वाभाविक ढंग से उत्तर दिया, 'सो आपके सामने सदा सिर झुका है। आपको जब कभी रंज या क्रोध में देखता हूँ, बुरा लगता है। मैं आपको धार में छोड़कर कैसे जा सकता हूँ? आपकी सहायता के लिए ही गोमती को भी लिवा लाया हूँ। आपका इनसे मन-बहलाव होगा और यदि लड़ाई के समय आपके ऊपर कोई संकट उपस्थित होगा, तो मेरे अतिरिक्त यह भी आपकी सहायक होगी।' ___ इसके बाद गोमती को कुछ संकेत करता हुआ रामदयाल छावनी में अलीमर्दान के पास चला गया। अपना जितना अपमान आज उसने अवगत किया, उतना जीवन में पहले कभी न किया था।

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