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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: ९१:


र गोमती को रामदयाल सहारा देता हुआ, एक तरह से घसीटता हुआ अलीमर्दान की छावनी की ओर ले चला।

खैर,मकोय और हींस के काँटेदार जंगल में होकर चलना पड़ा। ऊबड़-खाबड़ भूमि और भरकों की भरमार में यात्रा और भी कष्टपूर्ण हो गई। ऊपर से गोली-गोले कभी-कभी समीप आकर ही गिरते थे। काँटों के मारेरामदयाल का शरीरजगह-जगह से लोहलुहान हो गया। पसीने के साथ मिलकर रक्त पतली धारों में बह रहा था। परंत वह अर्द्ध-चेतन गोमती को अपनी थकी हुई बाँहों में कसे हुए था। उसके जो अंग रामदयाल के शरीर द्वारा सुरक्षित नहीं थे, वे कहीं-कहीं काँटों से छिल गए थे और रामदयाल को शायद उसी की अधिक चिंता मालूम होती थी। बिलकुल थक जाने के कारण एक जगह वह बैठ गया। गोमती भी रामदयाल के पास ही बैठ गई। । थोड़ी देर तक दोनों कुछ न बोले। जब रामदयाल की हॉफ शांत हो गई तब धीरे परंतु भर्राए हुए स्वर में बोला, 'बहुत कष्ट हुआ है, क्यों?'

गोमती ने जरा रीती दृष्टि से रामदयाल की ओर देखा, परंतु उत्तर कुछ न दिया।

थोड़ी देर और चुप रहने के बाद रामदयाल बोला, 'आपके शरीर में काँटे अटक गए होंगे, उन्हें निकाल दूं।'
गोमती ने कहा, 'कहीं इधर-उधर-पैरों में भले ही हों; उन्हें ठिकाने पर पहुँचकर निकाल लँगी, अभी रहने दो।'

रामदयाल को अपने काँटे भी काफी कसकरहे थे। गोमती केन पूछने पर भी उसने कहा, 'मेरे शरीर को तो काँटों ने छलनी कर दिया है। मैं नहीं जानता था कि इस मार्ग में इतना बुरा जंगल मिलेगा।' और अपने लोहलहान हाथों को गोमती के सामने करके देखने लगा। गोमती ने भी देखा।

रामदयाल ने कहा, 'अगर कुंजरसिंह आते, तो यहाँ हम लोगों की क्या सहायता कर सकते थे? काँटों में फंसकर मुझे ही बुरा-भला कहते। खैर, उसे भी सह लेता, क्योंकि कुछ उनके लिए तो मैं सब कर नहीं रहा हूँ।'

गोमती बोली, 'मैं अब पैदल चलूँगी। जैसे तुम इतना कष्ट भोग सकते हो, वैसे ही मैं भुगत लूंगी।'

रामदयाल ने एक आह भरकर कहा, 'मैं काँटों-कंकड़ों में घिसटना कैसे देखंगा।' 'तुम भी तो थक गए हो?' 'थक तो अवश्य गया हूँ, परंतु अभी मरा तो नहीं हैं।'
गोमती थोड़ी देर चुप रहकर बोली, 'थोड़ी दूर चलकर देख लूँ। यदि चलते न बना, तो सहारा ले लँगी।'

रामदयाल ने आग्रह के साथ गोमती का हाथ पकड़कर कहा, 'मेरे गठीले शरीरको देखो। इस बहते हए रक्त को देखो। पैरों की उँगलियाँ ठोकरों से फट गई हैं, उन्हें भी देख लो, तब मालूम हो जाएगा कि पैदल चलना कितनी आफत का काम है।'

गोमती रामदयाल के हाथ में हाथ दिए रही, पर उसने वह सब कुछ नहीं देखा।

रामदयाल ने यकायक गोमती का वह हाथ झटककर, अपने हृदय पर चिपटाकर रख लिया और असाधारण आवेश के साथ बोला, और मेरे घायल हृदय को देखो।'
गोमती अपने हाथ को रामदयाल की छाती पर कुछ क्षण रखे रही और फिर उसने खींच लिया।

रामदयाल ने उसी आग्रह के स्वर में कहा, 'देखोगी?' गोमती ने कोई उत्तर नहीं दिया।
रामदयाल कहता गया, 'मैं पापी हूँ, नीच हूँ, बुरा है और सभी कुछ हैं। मेरे राजा ने जैसा कुछ मुझे बनाया, वह मैं सब है; परंतु तुम्हारे लिए मैं कुछ और हैं।'

आवेश के अतिरेक में एक क्षण के लिए वह रुद्ध हो गया, परंतु अपने ऊपर शीघ्र अधिकार स्थापित करके बोला, 'मेरे लिए केवल दो मार्ग हैं-एक तो यह कि तुम्हें किसी सुरक्षित स्थान में पहुँचाकर तुरंत मर जाऊँ, या खैर, तुम्हारे मुँह की बात सुनकर फिर कुछ कहूँगा।'

गोमती ने पूछा, 'कहाँ चलोगे?' 'ऐसे स्थान पर, जहाँ तुम्हें किसी तरह का कष्ट न हो सकेगा।' 'मैं लौट न जाऊँ?' गोमती ने क्षीण स्वर में प्रस्ताव किया।
रामदयाल ने कहा, 'उस कैंकरीली भूमि पर बैठे-बैठे कष्ट होने लगा होगा, वहाँ मत बैठो।'

गोमती बोली, अच्छा, जहाँ चलना हो, चलो। भाग्य में जो कुछ होगा, देखूगी।' वह खड़ी हो गई। रामदयाल उसका हाथ पकड़कर चलने लगा। थोड़ी दूर चलकर वह फिसलकर गिर पड़ी। अधिक चोट आ जाती, परंतु रामदयाल ने संभाल लिया। तो भी  उसका घुटना छिल गया। रामदयाल ने उसे उठाकर कंधे से लगा लिया। बोला, 'अब पैदल नहीं चलने दूंगा। क्या कहती हो?'

गोमती बोली, 'क्या कहूँ?' |

रामदयाल ने गोमती को उठा लिया। रामदयाल को जान पड़ा, जैसे उसकी सब थकावट यकायक कहीं चल दी हो। उसे अपने एक-एक रोम में विलक्षण बल प्रतीत होने लगा। गोमती को हृदय से सटाकर रामदयाल ने प्रश्न किया, 'तुम यदि समझो कि मैं तुम्हारे साथ कोई घात कर रहा हूँ तो इस क्षण या जब चाहो, मुझे छुरी के घाट उतार देना। परंतु मैं जीते-जी तुम्हें अपने से अलग न होने दूंगा।' ।

थोड़ा-सा स्थान जरा साफ-सुथरा मिल जाने से गोमती को बातचीत का सुभीता मिला। बोली, 'यहाँ जगह चलने लायक है। मुझे पैदल ही चलने दो।'

रामदयाल ने काँपते हुए कंठ से कहा, 'मैं अपने को जैसा इस समय पा रहा हूँ वैसा कभी न पाया था। मैं बड़ी स्वच्छता के साथ अपने जीवन को बिताऊँगा। जो कुछ मैंने किया है, उसे भूल जाऊँगा और तुम्हारे योग्य बनूंगा। तुम मुझे अवसर दोगी?'

गोमती ने थोड़ी देर कोई उत्तर नहीं दिया। फिर बोली, 'यहाँ से कहाँ चलोगे?'

रामदयाल ने तुरंत उत्तर दिया, 'मैं छोटी रानी के पास जाना चाहता था, परंतु अब मैं सोचता हूँ कि वहाँ न जाऊं। किसी ऐसे स्थान पर चलें, जहाँ हम दोनों निरापद रह सकें।'

गोमती ने अनुरोध के-से स्वर में कहा, 'मैं उन्हीं के पास चलना चाहती हूँ। मैं अभी युद्धभूमि छोड़ना नहीं चाहती।'
'वहाँ संकट में पड़ जाने का भय है।'
'तम भी तो वहाँ रहोगे?'
रहूँगा। परंतु गोला-बारी हो रही है। ऐसा न हो कि तुम बिछुड़ जाओ।
' वहीं चलो, मैं वहीं कुछ कर सकूँगी।'

रामदयाल ने कुछ क्षण पश्चात् इस प्रस्ताव को मान लिया। फिर यकायक उसे हृदय के पास समेटकर बोला, 'गोमती, तुम मेरी होकर रहना। रहोगी न?'
गोमती ने कोई उत्तर नहीं दिया।

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