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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

: ९०:


कुंजरसिंह गोमती को लेकर गढ़ के उत्तर की ओर जाने की दुविधा में था। वह सोचता जाता था कि रामदयाल के ऊपर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है परंतु कुमुद ने कहा था कि साथ जाओ, इसलिए जा रहा था। निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचाकर लौटने में समय लगेगा और इस बीच में गढ़ की समस्या कुछ उलट-पलट गई, तो क्या होगा? यह बात उसके मन में गड़ रही थी।
उसी समय सबदलसिंह मिला। कुंजरसिंह से उसने पूछा, 'कहाँ जा रहे हो?'
उसने उत्तर दिया, 'यह एक निरीह स्त्री गढ़ से बाहर जाना चाहती है। चेलरे तक पहुँचाने जा रहा हूँ।"

सबदलसिंह बोला, 'लौटने में बहुत देर लग जाएगी। तब तक अगर यहाँ आपकी जरूरत पड़ गई तो क्या होगा? साथ में यह आदमी तो है। दो की जाने की क्या जरूरत है? इस स्त्री से आपका कोई नाता है?'
कुंजर ने झिझक के साथ उत्तर दिया, 'कोई भी नाता नहीं है। कहा गया था, इसलिए जा रहा हूँ।'

रामदयाल तुरंत बोला, 'मेरे बाहुबल और विवेक का यदि भरोसा किया जाए, तो मैं अकेला ही इस काम को निभा सकता हैं।'
कुंजरसिंह को उत्तर देने में हिचकते हुए देखकर सबदल ने रामदयाल से कहा, 'तुम्हारा इनसे कोई नाता है?'
'क्या बतलाऊँ।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'इसे वह जानती हैं, मैं सेवक-मात्र हूँ।'

सबदल ने कुछ विनम्र और अधिकारयुक्त स्वर में कुंजर से कहा, 'राजा, आप न जा सकेंगे। देवी ने मानो आप ही को तोपों पर नियुक्त किया है। थोड़े समय के लिए भी आपका यहाँ से चला जाना न मालूम हम सब लोगों के लिए भयंकर हो उठे।'
कुंजर असमंजस में पड़ गया। एक क्षण बाद ही एक आकस्मिक घटना ने उसे निर्णय के किनारे पहुँचा दिया। उसी

समय एक ओर से नरपति दौड़ता हुआ आया। घबराहट में बोला, 'मंदिर की दालान पर एक गोला अभी आकर गिरा है। दीवार का एक हिस्सा टूट गया है। देखिए, धूल उड़ रही है। शायद हमारी खोह पर भी गोले पड़ें।'
कुंजर ने भी देखा। उसने कहा, 'आप खोह के भीतरी हिस्से में रहें। मैं अपनी तोपों की मार से उधर की तोपों के मुंह बंद किए देता है।' उसी क्षण रामदयाल से बोला, 'तुम इन्हें सुरक्षित स्थान में ले जाओ। मैं न जा सकूँगा। इन्हें कष्ट न होने पावे। खबरदार!'

रामदयाल आश्वासन देता हुआ गोमती के साथ चला गया।

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