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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:७:

राजा के जासूसों ने बाजों का पता दिया। मालूम हुआ, एक दरिद्र ठाकुर की बारात आ रही है और दूरी पर, उसके पीछे-पीछे, छिपी-छिपी कालपी की सेना भी आक्रमण करने के लिए आ रही है। _हकीम ने मना किया परंतु राजा ने एक न सुनी। घोड़े पर सवार होकर लड़ाई की तैयारी कर दी।

हकीम ने जनार्दन से कहा, 'पंडितजी इस राज्य की खैर नहीं है। अब क्या होगा?'

जनार्दन ने माथा ठोककर उत्तर दिया 'बडी कठिनाइयों से राज्य को अब तक बचा पाया है। मंत्री केवल गुणा-भाग जानता है। नीति-वीति कुछ नहीं समझता। कुमार दासीपुत्र है। अधिकांश सरदार उसे अंगीकार न करेंगे। रानियों में लड़ाई ठनी रहती है। लोचनसिंह एक महज झंझावात है। उत्तराधिकारी कोई नियुक्त नहीं है। महाराज का पागलपन और भी अधिक बढ़ गया है। राज्य की नैया डूबने से बचती नहीं दिखाई देती।'

'और इधर कालपी के सैयद से यह बैर बिसाहना गजब ही ढा देगा।' आगा हैदर ने कहा, 'आज किसी तरह महाराज की जान बच जाए, तो बाद में सैयद को तो मैं मना लँगा।'

जनार्दन, 'आपके पास रोग की दवा है, परंतु मौत की दवा किसके पास है? क्या ठीक है कि आज यह या हममें से कोई बचेंगे या नहीं। इस अकारण युद्ध से रोका भी, न माने। दलीपनगर से और सेना बुलाने के लिए हरकारा तो भेज दिया है, कदाचित् जरूरत पड़े। बड़ी साँसत है। यदि लोचनसिंह बिगड़ जाते तो राजा के सिर पर लड़ाई का भूत इतना जोर न करता।'

यह कष्ट-कहानी शायद और लंबी होती, परंतु इसी समय राजा की सवारी आ पहुँची। पीछे-पीछे कुंजरसिंह का घोड़ा था। जहाँ जनार्दन और हकीम खड़े थे, राजा ने घोड़े की बाग थामकर कहा, 'आप लोग लड़ नहीं सकते। पीछे रहें।' फिर मुड़कर कुंजरसिंह से कहा, 'तुम मेरे साथ मत रहो। लोचनसिंह इधर आएँ।'
लोचनसिंह तुरंत घोड़ा कुदाकर आ गया। 'क्या आज्ञा है?' 'कालपी की फौज पर धावा बोल दो।' 'जो हुकुम।' लोचनसिंह ने उत्तर दिया। दलीपनगर की सेना जासूसों के बताए मार्ग पर चल पड़ी और लोचनसिंह की स्वल्प सावधानता पवन पर।

कुंजरसिंह मन मसोसकर पीछे रह गया था। नरपति के दरवाजे के सामने से निकला। उधर दृष्टि गई। कुमुद को देखा। सचमुच अवतार। कुंजर ने नमस्कार किया। कुमुद जरा-सी-बहुत जरा-सी-मुसकराई, शायद उसे मालूम भी न हुआ होगा कि मुसकरा रही है।

कुंजरसिंह आगे बढ़ गया। जिस घर बारात आ रही थी, उसके दरवाजे पर तोरण-वंदनवार लगे हए थे। वहीं होकर दलीपनगर की सेना निकली। राजा ने लोचनसिंह से पूछा, 'क्या यहीं उस ठाकुर की बारात आ रही है?'
'हाँ महाराज।' लोचनसिंह ने उत्तर दिया।

राजा ने कहा, 'बहुत दरिद्र मालूम होता है। द्वार पर कोई ठाठ-बाट नहीं।' 'होगा महाराज, किस-किस का दुख रोवें। यहाँ और सब कहीं ऐसे अनेक भरे पड़े हैं।'
'अजी नहीं।' राजा ने चलते-चलते कहा, 'सब शरारत है, बदमाशी है; घर में संपत्ति गाड़कर रखते हैं, ऊपर से गरीबी का दिखलावा करते हैं। इस लड़ाई से लौटकर साहूकारों से सारी क्षति की पूर्ति कराऊँगा। बहुत दिनों से उनसे कुछ नहीं लिया है।'

लोचनसिंह कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर में दलीपनगर की छोटी-सी सेना पालर के बाहर जंगल के मुहाने पर पहुँच गई। ठाकुर की छोटी-सी बारात एक ओर से आ रही थी। वह कुछ दूरी पर ठिठक गई। दूल्हा पालकी में। कहार पालकी को अपने कंधों पर ही लिए रहे।
राजा ने लोचनसिंह से कहा, 'इस घमंड को देखते हो? पालकी नहीं उतारी गई। चाहूँ, तो अभी दूल्हा के खंड-खंड कर डालूँ।'
लोचनसिंह ने उपेक्षा के साथ कहा, 'महाराज! यह बुंदेला की बारात है। दूल्हा किसी के लिए भी पालकी से नहीं उतरेगा। निर्धन हो, चाहे श्रीसंपन्न, परंतु बुंदेले आपस में सब बराबर हैं।'

'सब बराबर हैं? तुम और हम?' 'मैं प्रजा हूँ।' लोचनसिंह ने उसी स्वर में कहा, 'वह बुंदेला आपकी प्रजा नहीं है। उसकी पालकी नीची नहीं हो सकती।' फिर चिल्लाकर कहारों से बोला, 'ले जाओ अपनी पालकी को।' पालकी और बारात कतराकर निकली।

थोड़ी देर में कालपी की सेना से मुठभेड़ हो गई।
राजा, लोचनसिंह और कुंजरसिंह थोड़ी देर घोड़ों पर ही लड़ते रहे। आधी घड़ी पीछे राजा का घोड़ा आहत हो गया। राजा के घोड़े से उतरते ही उनके अन्य सरदार भी पैदल लड़ने लगे।

कालपी की सेना बड़ी दृढ़ता और दिलेरी के साथ लड़ी, परंतु वह अल्पसंख्यक थी।
दलीपनगर की सेना भी बहुत न थी। एक को दूसरे के बल का पता न था। टुकड़ियों में बँटकर दोनों ओर की सेनाएँ भिड़ गईं ओर कटने लगीं।
कालपी की एक टुकड़ी ने राजा को उनके कुछ सरदार-सहित धर दबाया। रोगग्रस्त होने पर भी राजा पागलों की तरह लड़ने लगे। कई आक्रमणकारी हताहत हुए, परंतु ठेल-पर-ठेल होने के कारण एक किनारे दूर तक राजा को हटना पड़ा। उनके साथी जरा दूर पड़ गए। राजा मुश्किल से अपना बचाव करने लगे। क्षण-क्षण पर यह भासित होता था की राजा अब आहत हुए और अब। सहायता के लिए ऐसे समय में पुकारना राजा की बची-खुची शक्ति के बाहर था। इतने में पेड़ों की एक झुरमुट के पीछे इधर-उधर कुछ आदमी जोर से भागे। हमला करनेवालों का ध्यान जरा उचटा कि ब्याह का झाँगा पहने और मुकुट बाँधे बारात का वह दल्हा तलवार भाँजता हआ वहाँ आटा। ठेठ बुंदेलखंडी में बोला, 'काकाज, एक हाथ मोरोई देखने में आवे।' उधर पालकी पटककर भागे हुए कहारों ने कुहराम मचाया।
वह दूल्हा इतने वेग से लड़ा कि जगह-जगह से उसका झाँगा कटफट गया,रुधिर की धार बदन से बह निकली और सिर का मौर टुकड़े-टुकड़े होकर धरती पर सेंध गया। उसी समय दलीपनगर की सेना सिमिट आई। तलवार अनवरत रूप से चली। ऐसे चली कि कालपीवालों के छक्के छूट गए। जो सशक्त थे वे भाग खड़े हुए। मालवा से एक लड़ाई तो हारकर वे लोग आए ही थे, इस लड़ाई में भी एक बार पैर उखड़ने पर फिर भागने में ही कुशल देखी।

संध्या होने के पूर्व ही युद्ध समाप्त हो गया। कालपी की घबराई हुई सेना कालपी की ओर कोसों दर निकल गई।
राजा घायल हो गए थे और बहुत थक गए थे। दूल्हावाली पालकी में राजा को लिटाकर ले चले। दूल्हा साथ-साथ था। शरीर से रक्त बह रहा था, परंतु उसकी दृढ़ता में कमी नहीं दिखाई पड़ती थी। जान पड़ता था, मानो लोहे का बना हो।

राजा ने पालकी में लेटे-लेटे क्षीण स्वर में उसका नाम पूछा। उत्तर मिला, 'अन्नदाता, मुझे देवीसिंह कहते हैं।' 'ठाकुर हो?' 'हाँ, महाराज।' 'बुंदेला?' 'हाँ महाराज।' 'जीते रहो। तुमको ऐसा पुरस्कार दूंगा, जैसा कभी किसी को न मिला होगा।'

इस समय जनार्दन शर्मा और आगा हैदर भी पालको के पास गाँव की ओर से आ चुके थे और बड़े आदर की दृष्टि से उस दरिद्र दूल्हा को देख रहे थे। कुंजरसिंह उदास-सा पीछे-पीछे चला आ रहा था। लोचनसिंह कछ गनगनाता हुआ चला जा रहा था। वंदनवारवाले दरवाजे पर जब राजा की पालकी पहुँची तब देवीसिंह से राजा बोले, 'देवीसिंह, अब तुम अपना ब्याह करो। टीके का मुहूर्त आ गया है। ब्याह होने के बाद दलीपनगर आना-अवश्य आना। भूलना मत।'

पालकी दरवाजे पर ठहर गई। दूल्हा ने पालकी की कोर हाथ में पकड़कर क्षीण स्वर में कहा, 'मेरा ब्याह तो रणक्षेत्र में हो गया। अब महाराज के चरणों में मृत्यु हो जाए, बस यही एक कामना है।'

जब तक कोई सँभालने को दौड़ता, तब तक देवीसिंह धड़ाम से पालकी का सहारा छोड़कर अपनी भावी ससुराल के सामने गिर पड़ा।
लोचनसिंह ने आगे बढ़कर कहा, 'वाह, क्या बाँकी मौत मर रहा है! सब इसी तरह मरें, तो कैसे आनंद की बात हो।'
राजा ने तीव्र स्वर में कराहते हुए कहा, 'काठ के कठोर कलेजेवाले मनुष्य, इस नन्हे से दूल्हा की मौत पर तू खुश हो रहा है। सँभाल इसको।'
'यह न होगा।' लोचनसिंह ने अविचलित स्वर में कहा, 'क्षत्रिय को बिना किसी सहारे और लाड़-दुलार के मरने दीजिए। वह बचेगा नहीं।' फिर पालकीवालों से बोला, 'महाराज को शिविर में ले चलो। हकीमजी तुरंत दवा-दारू का बंदोवस्त करें। मैं इसकी क्षत्रियोचित अंत्येष्टि-क्रिया का प्रबंध किए देता हूँ।' __राजा कुछ कहने को हुए, परंतु दर्द ने फिर न बोलने दिया। इतने में कुंजरसिंह वहाँ आ गया। तुंरत घोड़े से उतर पड़ा। अचेत देवीसिंह को या उसकी लाश को घोड़े पर रखकर आगे बढ़ गया। लोचनसिंह ने पीछे से आकर कहा, 'आज देवी ने लाज रख ली। चलो राजा, पुजारी को कुछ देते चलें।'

कुंजरसिंह ने कोई उत्तर न दिया। जब वे दोनों नरपतसिंह के मकान के सामने पहुँचे, राजा की पालकी आगे निकल गई थी। लोचनसिंह ने घोड़े पर चढ़े-चढ़े नरपति को पुकारा। दरवाजे पर साँकल चढ़ी भी किसी ने उत्तर न दिया।

कुंजर ने कहा, 'जाओ, मैं यहीं ठहरूँगा।' लोचनसिंह ने फिर पुकार लगाई। उस मकान से तो कोई उत्तर नहीं मिला, परंतु एक पड़ोसी ने किवाड़ों के पीछे से कहा, 'वह तो देवी के साथ दोपहर के बाद न जाने कहाँ अंतर्धान हो गए।'

लोचनसिंह चल दिया। कुंजरसिंह कुछ और प्रश्न करना चाहता था, परंतु वह पड़ोसी पौर से खिसककर अपने घर के किसी भीतरी भाग में जा छिपा। लोचनसिंह बोला, 'देवी कूच कर गई। चलिए।'

सब लोग डेरे पर पहुँचे। राजा की मरहम-पट्टी हो गई। घाव काफी लगे थे, परंतु कोई भय की बात न जान पड़ती थी। लोग रात-भर उपचार में लगे रहे। देवीसिंह को भी बुलाया गया। कुंजरसिंह उसकी दवा-दारू करता रहा। अवस्था चिंताजनक थी।

दलीपनगर के सरदार राजा को दूसरे ही दिन दलीपनगर ले गए। राजा ने देवीसिंह भी साथ ले लिया।

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