ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
: ८९:
रामदयाल विराटा के उत्तरवाले जंगल और भरकों में होकर इधर-उधर फैले भांडेर सैन्यदल की आँख बचाता हुआ अँधेरे में विराटा पहुँचा। विराटा के सिपाही उसे पहचानने लगे थे, इसलिए प्रवेश करने में दिक्कत नहीं हुई। सीधा कुंजरसिंह के पास पहुँचा। बोला, 'मैं गोमती के ठहरने का उचित प्रबंध कर आया हैं।'
'वहाँ जाने की वह अभिलाषा रखती हो, तो मैं न रोकूँगा।' कुंजर ने कहा। रामदयाल जरा चकित होकर बोला, 'उस दिन आप ही ने कहा था कि इन लोगों के ठहरने का प्रबंध कहीं बाहर कर देना चाहिए, सो मैंने कर दिया। अब यदि दूसरी मर्जी हो, तो मुझे कहना ही क्या है?'
कुंजरसिंह ने झुंझलाकर कहा, 'अच्छा, अच्छा! ले जाओ उसे जहाँ वह जाना चाहे, और कोई साथ नहीं जाएगा। कहाँ जाओगे?'
रामदयाल इस प्रश्न के लिए तैयार था। बोला,'यहाँ से चेलरा थोड़ी दूर है। वहाँ एक ठाकर रहते हैं। उनके यहाँ प्रबंध कर दिया है। मैंने तो सबके लिए ठीक-ठाक कर लिया है। यदि सब लोग वहीं चले चलें, तो बहुत अच्छा होगा।'
'सब लोग नहीं जाएँगे, पहले ही बतला चुका हूँ और यदि उन लोगों की इच्छा होगी, तो मैं साथ पहँचाने चलँगा।' कुंजरसिंह ने कहा। फिर एक क्षण ठहरकर बोला. 'यदि अकेली गोमती जाएगी तो भी मैं साथ चलूँगा।'
रामदयाल ने आहत निर्दोषिता के स्वर में कहा, 'मैं मार्ग बतलाए देता हूँ। ठाकुर का नाम प्रकट किए देता हूँ। आपकिसी को साथ लेकर गोमतीको या जो जाना चाहे, उसे लिवा जाइए। यदि मेरी बात में कोई फर्क निकले, तो जो जी चाहे, सो कर डालिएगा।'
इस पर कुंजरसिंह रामदयाल को लेकर खोह पर गया। कुंजर ने रामदयाल के आने का कारण बतलाया। जरा विचलित स्वर में कुमुद से कहा, 'आप यदि जाना चाहें, तो इस संकटमय स्थान से चली जाएँ। मैं पहुँचाने के लिए चलूँगा।'
कुमुद ने दृढ़ता, परंतु कोमलता के साथ उत्तर दिया, 'विराटा के योद्धाओं की सफलता के लिए मैं यहीं रहकर दुर्गा से प्रार्थना करूँगी। गोमती को अवश्य बाहर भिजवा दीजिए। उस दिन से यह बड़ी अस्वस्थ रहती है।'
गोमती की इच्छा जानने के लिए कुंजर ने उसकी ओर दृष्टिपात किया। गोमती ने कुमुद की ओर देखकर कहा, 'मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है। प्राणों को बनाए रखने की कोई कामना नहीं है। कहीं भी रहँ, सर्वत्र समान है। यदि बहिन के पास ही रहकर मेरा प्राणांत होता, तो सब बात बन जाती।' फिर जरा नीचा सिर करके बोली, परंतु अभी मरना नहीं चाहती हूँ।'
कुमुद ने उसकी ओर स्नेह की दृष्टि से देखा। एक क्षण बाद गोमती बोली, 'ऐसी भली छत्रछाया छोड़कर कहीं भी जाना पागलपन है, परतु यहाँ और अधिक ठहरने से मैं सचमुच बावली हो जाऊँगी। मंदिर में अब धंसा नहीं जाता,खोह में पड़े रहने से अनमनापन बढ़ता जाता है, इसलिए रामदयाल के साथ जहाँ ठीक होगा, चली जाऊँगी। केवल एक विनती है।'
दयार्द्र होकर कुमुद ने प्रश्न किया, 'वह क्या है बहिन?' उस लड़की का गला सँध गया। बोली, 'केवल यह कि मुझसे जो कुछ भी अपराध हुआ हो, वह क्षमा हो जाए।'
कुमुद ने उसे कंधे से लगा लिया। इसके बाद कुमुद ने कुंजर से कहा, 'आप इस किले की रक्षा कर रहे हैं। कैसे कहूँ कि आप इस बेचारी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा आवे?' 'मैं अवश्य जाऊँगा और दुर्गा की कृपा से अभी लौटूंगा।' कुंजरसिंह ने उत्तर दिया।
रामदयाल अभी तक चुपचाप था। उसने प्रस्ताव किया, इन्हें पुरुष का वेश धारण करके चलना चाहिए।'
इस प्रस्ताव को कुंजरसिंह और गोमती दोनों ने स्वीकृत किया।
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