ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:८८:
सरदार और रामदयाल छोटी रानी के डेरे पर पहँचे। कालपी की सेना की छावनी के एक सुरक्षित कोने में एक छोटा-सा तंबू खड़ा था। उसी में छोटी रानी अपने कुछ आदमियों के साथ थीं। भागकर जबरामनगर में रानी आई थीं तब से अब उनके गौरव में और भी बड़ी कमी हो गई थी।
रामदयाल तंबू के भीतर चला गया। सरदार बाहर रह गया। भीतर की हीनता रामदयाल को और भी अधिक अवगत हुई। रानी के चेहरे पर अब सहज दृढ़ता और सुलभ कोप के सिवा स्थायी निराशा के भी चिह्न अंकित थे।
रामदयाल को देखकर रानी ने कहा, 'इन दिनों कहाँ छिपा था? क्या मेरा सिर काटने के लिए आया है?'
रामदयाल ने कुछ डरते हुए हाथ जोड़कर उत्तर दिया, 'मैं विराटा में जासूसी के काम पर नियक्त था।'
'वहाँ क्या जासूसी की?' 'देवीसिंह का सेवक बनकर कुछ समय तक रहा। कुंजरसिंह ने कल पहचान लिया। लगभग उसी समय देवीसिंह भी वहाँ आ गए। उन्होंने भी पहचान लिया। दोनों को लड़ा-भिड़ाकर यहाँ चला आया हूँ। देवीसिंह रामनगर चले गए हैं और अब कुंजरसिंह रामनगर पर गोले बरसा रहे हैं।'
रानी जरा चिड़चिड़ाकर बोलीं, 'जब कालपी की इतनी बड़ी सेना ने रामनगर को न ले पाया तब विराटा की तो क्या कर पाएंगी?'
रामदयाल ने तुरंत उत्तर दिया, 'विराटा की तोपों का संचालन कुंजरसिंह ऐसा अच्छा कर रहे हैं कि रामनगर में देवीसिंह को रहना कठिन हो जाएगा।' - अपनी दशा की याद करके रानी ने कहा, 'अब और किसी के हाथ से कछ होता नहीं दिखाई देता। परंतु यदि दिलेर आदमियों की एक छोटी-सी सेना मुझे मिल जाए, तो मैं
कुछ करके दिखला दूँ। क्या कुंजरसिंह अपना पुराना पागलपन छोड़कर हमारा साथ देने को तैयार हो जाएगा?'
रामदयाल ने उत्तर दिया, 'कुंजरसिंह का पागलपन अब और बढ़ गया है। जिसे विराटा में देवी का अवतार या देवी की पूजारिन बतलाया जाता है, वह उनके कल कर्तव्य की लक्ष्य है। उनके किए जो कुछ हो, सो हो। नवाब की एक बड़ी सेना शीघ्र ही यहाँ आनेवाली है।'
धीरे स्वर में छोटी रानी बोली, 'अब वही एक आधार है। मुझे चाहे राज्य न मिले, कुंजरसिंह राजा हो जाए या कोई और, परंतु देवीसिंह और वह पिशाच जनार्दन धूल में मिल जाएँ। रामदयाल, मेरा प्रण न पुराहो पाया! यदि मेरे मरने के पहले कम-से-कम जनार्दन का सिर काट लाता, तो मुँहमाँगा इनाम देती, परंतु तेरे किए कुछ न हुआ।'
रामदयाल ने उत्साहित होकर कहा, 'नहीं महारानी, जनार्दन का सिर अवश्य किसी दिन काटकर आपके सामने पेश करूँगा।'
रानी एक ओर टकटकी बाँधकर कुछ सोचने लगीं। रामदयाल बोला, 'आप बिलकुल अकेली हैं, मुझे इधर-उधर भटकना पड़ेगा। आज्ञा हो, तो एक लड़की आपके पास कर जाऊँ।' रानी ने चौंककर कहा, 'लड़की तेरी कौन है?'
चालाक रामदयाल भी अपने चेहरे के रंग को फक होने से नरोक सका। बोला, 'वैसे तो मेरी कोई नहीं है, परंतु कुछ दिनों से जानने लगा हूँ, इसलिए चाहता हूँ, कि आपके पास रह जाए। जब देवीसिंह ने दलीपनगर के सिंहासन की ओर आँख नहीं डाली थी, उसके साथ विवाह करना चाहते थे। जब वह सिंहासन खसोट लिया, तब इस बेचारी का त्याग कर दिया। दुखिनी है और देवीसिंह से बहुत नाराज है।' ।
रानी ने नाम इत्यादि और थोड़ी-सी ऊपरी पूछताछ के बाद रामदयाल को गोमती के लिवा लाने की अनुमति दे दी। कहा, 'उसे वास्तव में देवीसिंह ने परित्याग कर दिया?
'हाँ, महाराज।'
'परंत मेरे पास रहने में उसे और भी अधिक कष्ट होगा। शायद किसी समय उसके प्राणों पर भी आ बने।'
'मैं भी तो आपकी सेवा में रहूँगा।' 'और तुम्हार प्रण। 'सदा सेवा में न रहँगा-प्रायः रहा करूँगा।'
रानी बोलीं, 'तुम उसे लिवा लाओ, परंतु दूसरे डेरे में रहेगी ओर उसकी चौकसी भी रखी जाएगी। किसी दिन शायद देवीसिंह उसे अपनाने के लिए तैयार हो जाए या शायद किसी दिन वही देवीसिंह के पास दौड़ जाए और हम लोगों को यों ही किसी आकस्मिक विपद् में डाल जाए।'
रामदयाल ने कहा, 'मेरे सामने ही देवीसिंह ने उस स्त्री का घोर अपमान किया था। वह अचेत होकर गिर पड़ी थी। देवीसिंह ने उससे कहा था कि मैं तो तुम्हें पहचानता भी नहीं हैं।'
रानी बोली, 'तू उसे ले आ। आजकल और कोई साथ में नहीं है। उसके साथ कुछ मन बहलेगा।' - रामदयाल वहाँ कुछ समय ठहरकर चला गया। सरदार से कहता गया, 'अब हम सब लोगों की मुरादें पूरी होंगी।'
वह बोला, 'इंशा अल्लाह।'
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