ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
दूसरे दिन रामदयाल गोमती के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में संध्या के उपरांत विराटा से चल पड़ा। कहनान होगा कि वह इधर-उधर बहुत न भटककर और चक्कर काटकर अलीमर्दान की छावनी में गया और सीधा अलीमर्दान के पास पहुँचा। प्रातःकाल हो गया।
उसने रामदयाल को पहचान लिया। बोला, 'तुम्हारी रानी साहबा तो बहुत पहले आ गई हैं। तुम कहाँ थे?'
रामदयाल ने उत्तर दिया, 'मैं हुजूर का कुछ काम कर रहा था।' 'वह क्या?' 'विराटा से रामनगर पर गोले पड़ रहे हैं।' रामनगर के नाम पर अलीमर्दान की जरा त्योरी बदली।
रामदयाल उसके भाव को समझ गया। बोला, 'जहाँ तक मैंने सुना है, इस समय आपका अधिकार रामनगर पर नहीं है।'
अलीमर्दान बोला, 'रनिवास में रहकर भी तुम्हें बात करने की तमीज न आई।' 'मैं माफ किया जाऊँ।' रामदयाल ने क्षमा-प्रार्थना का कोई भी भाव प्रदर्शित न करते हुए कहा, 'यदि अब भी रामनगर आपके हाथ में है, तो मैंने रामनगर पर विराटा से गोले बरसाने में गलती की है।' . इस पर अलीमर्दान जरा मुसकराया। बोला, 'रामनगर पर इस समय मेरा कब्जा नहीं है, परंतु भरोसा है कि जल्दी होगा। यह सचमुच समझ में नहीं आरहा है कि तुमने विराटा को रामनगर के खिलाफ किस उपाय से किया? इस रात हमारी छावनी की तरफ एक भी गोला नहीं आया, यह अचरज की बात है।' _ 'वह एक लंबी कहानी है।' रामदयाल ने कहा, परंतु विराटा इस समय कुंजरसिंह के हाथ में है और उसे मालम हो गया है कि उसका विकट वैरी देवीसिंह रामनगर में जा पहुँचा है। कुंजरसिंह इस समय इस ढर्रे पर काम कर रहा है कि पहले देवीसिंह को मिटाऊँ, फिर आप पर वार करूँ।'
अलीमर्दान हँसा। बोला, 'इतनी बड़ी अकल की बात क्या तुमने कुंजरसिंह को सझाई है?' फिर गंभीर होकर उसने कहा, 'कुंजरसिंह हमसे नाहक बुरा मान गया। असल में तुम लोगों ने सिंहगढ़ में उसे हाथ से निकल जाने दिया। वह आदमी साथ में रखने लायक था।' फिर सोचकर बोला, 'उसमें बेहद हेकड़ी है। यह भी एक कारण
उसके भाग खड़े होने का हुआ।'
रामदयाल ने इस बात को अनसुनी करके कहा, 'अब उस सुंदरी के प्राप्त होने में भी बहुत विलंब नहीं है।'
अलीमर्दान बहुत गंभीर हो गया। बोला, 'तुम उस विषय में मेरी सहायता कर सको, तो जैसा मैं कह चुका हूँ, तुम्हें भारी इनाम दूँगा।'
'अब उसका समय आ गया है।' रामदयाल ने भी गंभीर होकर कहा, 'विराटा पर धावा बोल दीजिए। देवीसिंह कोई सहायता विराटा को न दे सकेगा। सीधा मार्ग में बतला दूंगा।'
अलीमर्दान मन-ही-मन प्रसन्न हुआ, परंत बिना कोई भाव प्रकट किए बोला, 'आज की
रात को अजमाओ।'
'आज रात को नहीं।' रामदयाल ने प्रस्ताव किया, 'एक-आध रोज ठहर जाइए। विराटा
में निस्सीम गोला-बारूद या मनुष्य नहीं हैं। कुंजरसिंह को जरा थक जाने
दीजिए।' फिर नीची आँख करके बोला, 'एक जरा-सा काम मेरा है। पहले वह हो जाने
दीजिए।'
आँख चमकाकर अलीमर्दान ने कहा, 'क्या माजरा है भाई?' बड़ी नम्रता और लज्जा का नाट्य करते हुए रामदयाल बोला, 'मैंने भी सोचा है, अब अपना घर बसालें। हमारी महारानी आपकी दया से दलीपनगर का राज्य पाजाएँ और मैं अपनी एक मडैया डालकर घर की देख-भाल करूँ, बस, यही प्रार्थना है।'
अलीमर्दान ने हँसकर कहा, 'इसमें मेरी सहायता की किस जगह जरूरत पड़ेगी?' . .
'उस स्त्री को,' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'यथासंभव मैं कल विराटा से लिवा
लाऊँगा। मैं चाहता हूँ, यहीं कहीं सुरक्षित स्थान में उसे रख दूँ। न मालूम
विराटा में कब कितना उपद्रव उठ खड़ा हो। ऐसी हालत में उसका वहाँ रखना ठीक
नहीं है। यहाँ थोड़ा-सा सुरक्षित स्थान मिल जाएगा?'
'बहुत-सा।' अलीमर्दान बोला, 'तुम्हारी महारानी यहीं पर हैं। उनके पास उस
स्त्री को छोड़ देना हर तरह उचित होगा।'
रामदयाल सोचने लगा।
इतने में अलीमर्दान का एक सरदार आया। उसने रामदयाल को पहचान लिया। बोला,
'हजुर, रानी साहबा के सिर के लिए दो हजार महरें इनाम के तौर पर राजा देवीसिंह
ने रखी हैं।'
अलीमर्दान ने पूछा, रानी साहबा को मालूम है या नहीं?' उसने जवाब दिया, 'अभी
सवेरे उनके किसी सेवक ने ही बतलाया था।' 'मुझे मालूम था,' अलीमर्दान ने कहा,
और उसके साथ यह भी मालूम हो गया था कि दीवान जनार्दन शर्मा ने भी अपनी तरफ से
दो सौ मुहरें उसी सिर के लिए इनाम में
और रखी हैं।'
रामदयाल चकित होकर बोला, 'क्या ये लोग पागल हो गए हैं?'
अलीमर्दान ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। सरदार से कहा, 'इस समय
विराटा पर गोलाबारी न की जाए। आज दिन-भर और रात-भर बराबर रामनगर पर ही गोला
बरसाओ और लगातार दलीपनगर की सेना पर हमले करो। इसी समय महारानी के पास जाओ।
कहना, थोड़ी देर में हाजिर होता हैं। रामदयाल को भी साथ लेते जाओ।'
वे दोनों गए।
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