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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


८५:


कुंजर के मंदिर में पहुँचने के पहले नरपति ने फिर दीपक जला दिया था। जब कजर भीतर पहुँचा, वह पूर्ववत् टिमटिमा रहा था। नरपति ने बड़े भोलेपन के साथ कहा, 'कभी-कभी ऐसी हवा चल उठती है कि दीपक अपने आप बुझ जाता है। उस समय जब नलवारें खिंच गई थीं और पैंतरे बदल गए थे: ऐसे कसमय प्रकाश लोप हो गया कि आप उन लोगों को काट-कूट न पाए।'
नरपति कुछ और भी पवन की इन आकम्मिक निष्ठरताओं पर कहता, परंतु कुंजर का ध्यान दूसरी ओर था। इसके सिवा उसे एक ओषधि के लिए रामदयाल के साथ खोह में जाना था, जहाँ वह उसके साथ कुंजर के आने पर चला गया।
कुमुद गोमती का सिर अपनी गोद में रखे टकटकी बाँधे कुंजर की ओर देख रही थी-मानो काफी समय से उसकी प्रतीक्षा कर रही हो।

कुंजर ने बड़े उत्साह, बड़ी उत्कंठा के साथ कुमुद से पूछा, 'अवस्था बहुत बुरी तो नहीं है?'

दया के कोमलतापूर्ण कंठ से कुमुद बोली, 'बहुत बुरी तो नहीं जान पड़ती, परंतु कुछ उपचार आवश्यक है।'

अपने को कुछ असमर्थ-सा समझकर कुंजर ने पूछा, 'मुझसे जिस उपचार के लिए कहा जाए, तुरंत करने को प्रस्तुत हूँ।'
कुमुद जरा मुसकराकर बोली, 'आपकी तलवार की कदाचित् आवश्यकता पड़ेगी। उपचार तो मैं कर लूँगी।'
जरा आश्चर्य के साथ, परंतु बहुत संयत स्वर में कुंजर ने कहा, 'आज्ञा हो।'

कुमुद के मुख पर एक हलकी लालिमा दौड़ आई। गोमती की ओर आँख फेरकर बोली, 'यह दुखिनी है और कोमल। हम लोगों का कुछ ठीक नहीं, यहाँ क्या हो। शीघ्र अच्छी हो जाएगी। परंतु अच्छे होते ही इसे किसी सुरक्षित स्थान में विराटा से बाहर पहुँचा देना चाहिए।'

'पहुँचा दिया जाएगा।' कुंजर ने उत्तर दिया। 'कब?' फिर पूछा।

कुमुद ने फिर उसी मुसकराहट के साथ उत्तर दिया, 'एक-आध दिन में, जब यह अच्छी हो जाए।'
'साथ किसे भेजा जाए?' कुंजर ने बढ़ती हुई उत्कंठा के साथ कहा।

कुमुद ने उत्तर दिया, रामदयाल के सिवा और यहाँ कोई ऐसा नहीं दिखलाई पड़ता, जिसका नाम ले सकूँ।'
'रामदयाल!' कुंजर अपनी उठती हुई अस्वीकृति को दबाकर बोला, 'देखा जाएगा। यह अच्छी हो ले।'
अपनी बड़ी-बड़ी आँखें पसारकर कुमुद बोली, 'रणक्षेत्र में होकर सुरक्षित स्थान में इसे पहुँचाना पड़ेगा। आप अपने कुछ सैनिक इसके साथ भेज दीजिएगा।'
'मैं स्वयं जाऊँगा।' कुंजर ने कहा। कुमुद गोमती को होश में लाने के लिए दुलार के साथ उपाय करने लगी। गोमती की आँखें बंद थीं, उसी दशा में बोली, 'यह मेरे कोई नहीं हैं।' बड़े मीठे स्वर में कुमुद ने कहा, 'गोमती!' वह अचेत थी।
 
कुंजर ने प्रश्न किया, 'इसे कहीं चोट तो नहीं आई है?'
कुमुद ने उत्तर दिया, 'ऊपर तो कहीं नहीं आई है; परंतु इसके हृदय को, जान पड़ता है, कठोर पीड़ा पहुँची है।'

कुंजर बोला, 'वह मनुष्य बड़ा नृशंस है।'
कुमुद ने फिर आँख ऊपर उठाई। उस दृष्टि में बड़ी अनुकंपा थी। कहा, 'उस चर्चा को जाने दीजिए। भावी प्रबल होती है। जो होना होता है, बिना हए नहीं रहता। इस लड़की को बाहर पहुँचाकर फिर हम लोग और बातें सोचेंगे। मैं जानती हूँ, उस मनुष्य ने केवल गोमती को ही संकट में नहीं डाला है।' ।

'मैं क्या कहूँ।' कुंजर कपित स्वर में बोला, 'मेरा इतिहास व्यथापूर्ण है, मेरे साथ बड़ा अन्याय हुआ है।' फिर तुंरत उसने कहा, 'परंतु... परंतु आपका शुभ दर्शन-मात्र मेरी उस संपूर्ण कहानी में एक बड़ी भारी मार्ग-प्रदर्शक ज्योति है। वह समय मेरी अँधेरी रात के अवसान की उषा है। केवल उसी प्रकाश के सहारे मैं संसार में चलता-फिरता हूँ।'

कुंजर कुछ और कहता, परंतु कुमुद ने रोककर पूछा, 'वह यहाँ तक कैसे आए? चारों ओर मुसलमानों और उनके सहायकों की सेनाएं रुकी हुई हैं।'

कुमुद के साथ वह छल नहीं कर सकता था। एक बहुत बारीक आह को दबाकर उसने उत्तर दिया, रामनगर पर उसका अधिकार हो गया है। कम-से-कम वह कहता यही था। इसीलिए शायद यहाँ तक चला आया।'
कुमुद ने कहा, 'आपकी तोपें किस ओर गोले फेंक रही हैं?' 'रामनगर पर।' कुंजर का सहज उत्तर था। कुमुद ने अपने आँचल से गोमती पर हवा करते हुए कहा, 'मैं भी यही सोच रही थी।' 'क्यों?' कुंजर ने जरा डरते हुए प्रश्न किया।
कुमुद बोली, 'आपको कभी-न-कभी देवीसिंह से लड़ना ही पड़ेगा, आज या फिर कभी; परंतु अवस्था कुछ भयानक हो जाएगी।'
'मैंने एक उपाय सोचा है।' कुंजरसिंह ने कहा, 'मुझे एक चिंता सदा लगी रहती है।'

आँखें नीचे किए हुए ही कुमुद ने पूछा, 'क्या?' 'यह खोह सुरक्षित नहीं है। किसी दूसरे स्थान में आपको पहुँचाकर फिर निश्चितता के साथ यहाँ लड़ता रहूँगा।'
'मैं नहीं जाऊँगी।' कुमुद ने धीरे से कहा। 'मैं नहीं जाऊँगी।' क्षीण स्वर में अचेत गोमती बोली। कुमुद चौंक पड़ी। गोमती अचेत थी। कुंजर ने कहा, 'यह स्थान अब आपके रहने योग्य नहीं रहेगा। बड़ा घमासान यद्ध
होगा। मैं गोमती को रामदयाल के साथ किसी अच्छे स्थान में छोड़ दूंगा और आपको भी किसी सुरक्षित स्थान में।'

कुमुद बोली, 'आपके लिए यदि यह स्थान सुरक्षित है, तो मेरे लिए भी।' फिर मुसकराकर कहा, 'मुझे आपकी तोपों पर विश्वास है।'
कुंजर की देह-भर में रोमांच हो आया। उसे ऐसा जान पड़ा, मानो आकाश के नक्षत्र तोड़ लाने की सामर्थ्य रखता हो। कुछ कहना चाहता था। अवाक्रह गया। उसी समय नरपति और रामदयाल के आने की आहट मालूम हुई।
कुमुद ने जल्दी से कहा, 'यदि रामदयाल अविश्वसनीय हो तो उसके सहारे गोमती को नहीं छोड़ना चाहिए।'
रामदयाल सबसे पहले आया। आतुरता के साथ बोला, 'इस बीच में अवस्था और तो नहीं बिगड़ी?'

कुंजर ने उत्तर दिया, 'नहीं।' ' औषधोपचार के बाद गोमती को चेत आने लगा। अर्द्ध-चेतनावस्था में बोली, 'वह कहाँ हैं?'
कुमुद ने अपने बड़े-बड़े स्नेहपूर्ण नेत्रों से मानो उसे ढक दिया। उसके मुँह के बहुत . पास अपनी आँखें ले जाकर कहा, 'घबराओ मत, दुखी मत होओ।'
जब गोमती को बिलकुल चेत आ गया, वह अपने सिर को कुमुद की गोद से उठाने लगी। कुमुद ने रोक लिया। बोली, 'लेटी रहो।'
कुंजर ने कहा, 'रात बहुत हो रही है। अब आप लोग अपनी खोह में चले जाएँ।' रामदयाल बोला, 'अभी वह चलने-फिरने लायक नहीं जान पड़ती।' 'थोड़ी देर में सही। कुंजर ने कहा, परंतु रात को रहना वहीं चाहिए। आज की रात बहुत गोला-बारी होगी।'

'हम लोग जाते हैं। कुमुद ने कहा, 'आज रात में खोह पर कुशल-क्षेम पूछने के लिए न आना।'

कुमुद इत्यादि वहाँ से चली गईं।

उस रात कुंजरसिंह कदाचित् इच्छा होने पर भी खोह के पास न जा सका। रात-भर बेतरह रामनगर पर गोले ढाए। उधर से भी जवाब में कुछ गोलाबारी हुई, परंतु विराटा की कोई हानि नहीं हुई। रामनगर पर अलीमर्दान की भी तोपें गोला उगलती रहीं। परंतु एक बात का आश्चर्य कुंजरसिंह को हो रहा था। अलीमर्दान की ओर से विराटा पर एक तोप ने भी वार नहीं किया। कुंजर ने भी शायद यह समझकर कि पहले एक शत्रु से सुलझ लें, फिर दूसरे को देख लेंगे, अलीमर्दान को नहीं छेड़ा।
उस रात कुंजरसिंह के कान में कुमुद के अंतिम वाक्य ने कई बार झंकार की-उसने कहा था-'आप रात में खोह पर कुशल-क्षेम पूछने न आना।'

उस निषेध में कुंजर को एक अपूर्व मोह-सा जान पड़ा था।

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