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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:८४:


देवीसिंह अपने साथ भेजे गए चारों सिपाहियों को पहरेवालों के पास छोड़कर अपने दोनों सैनिकों को लिए हुए, मंदिरा गया। मूर्ति के पास दीपक टिमटिमाता हुआ देखकर आगे बढ़ा। जब निकट पहुँच गया, सबसे पहले नरपतिसिंह मिला। उसने अचकचाकर पूछा, 'आप लोग कौन हैं?'

देवीसिंह ने उत्तर दिया, 'आप लोगों के मित्र।' देवीसिंह बैठने के लिए उपयुक्त स्थान देखने लगा। नरपति एक क्षण चुप रहकर जरा जोर से बोला, 'आपका नाम?' 'थोड़ी देर में अपने आप प्रकट हो जाएगा। देवीसिंह ने जरा बेतकल्लुफी के साथ कहा।

इतने में रामदयाल आ गया। पहले उसे संदेह हुआ। फिर सोचा, असंभव है। विश्वास को दृढ़ करने के लिए जरा और आगे बढ़ा।

पहचानने में विलंब नहीं हुआ। तुरंत पीछे हटने की ठानी, परंतु देवीसिंह ने पहचान लिया। बोले, 'रामदयाल।' 'महाराज!' अनायास रामदयाल के मुंह से निकल पड़ा।
देवीसिंह ने कहा, 'बड़ा आश्चर्य है? तू यहाँ कैसे आया? और कौन तेरे साथ है?' राजा ने बहुत संयत भाव से प्रश्न किया था, परंतु आत्मगौरव से प्रेरित प्रश्न का स्वर काफी ऊँचा होकर रहा।

कुमुद रामदयाल के पीछे आकर खड़ी हो गई।

देवीसिंह ने देख लिया, परंतु पहचाना नहीं। तो भी रामदयाल के पीछे एक स्त्री की उपस्थिति कई कारणों से असह्य-सी हुई। जरा प्रखर स्वर में पूछा, 'जानता है रामदयाल, यह मंदिर है और मैं...'

'महाराज, महाराज, मैं निरपराध हूँ। मैंने क्या किया है?' 'तूने जो कुछ किया है, उसका भरपूर पुरस्कार मिलेगा। तेरे सरीखे नराधम की अपवित्र देह कम-से-कम इस देवालय में नहीं आनी चाहिए थी। फिर देवीसिंह ने स्वर की कर्कशता को कम करके पछा, 'मंदिर की अधिष्ठात्री कहाँ हैं?' - रामदयाल सँभलकर बोला, 'जिस मंदिर की रक्षा के लिए अन्य हिंदू प्राण हथेली पर रखे फिर रहे हैं, उसी की रक्षा के लिए हम लोग भी यहाँ जमा हैं।'

'हम लोग।'

देवीसिंह आपे से बाहर होकर बोले, 'बदमाश! नीच! यहाँ से हटना मत!

'मैं स्वामिभक्त हूँ।' भर्राए हुए गले से रामदयाल बोला, 'मैं स्वामिधर्मी हूँ। मझे केवल मंदिर की अधिष्ठात्री की ही रक्षा अभीष्ट नहीं है, किंतु जिनके एक संकेत मात्र से मैं अपना सिर घूरे पर काटकर फेंक सकता हूँ उनकी भी रक्षा वांछनीय है और यही कुछ दिनों से मेरा अपराध आपकी दृष्टि में रहा है।'

इस समय एक और स्त्री कुमुद के पीछे आकर खड़ी हो गई थी। रामदयाल ने कनखियों से देख लिया था।

राजा ने तलवार पर हाथ रखकर कहा, 'इस मंदिर में कदाचित् नर-बलि कभी नहीं हुई होगी। आज हो।'

कुमुद रामदयाल के पीछे से जरा आगे आई-मानो घोर तमिस्र से एकाएक पूर्ण चंद्र का उदय हुआ हो। बोली, 'यह मंदिर है। इसमें न कभी नर-बलि हुई और न कभी होगी।'

तलवार पर से हाथ हटाकर देवीसिंह ने विस्मित होकर प्रश्न किया 'आप कौन हैं?' 'और आप?' बड़ी सरलता के साथ कुमुद ने पूछा। परंतु प्रश्न की नोक देवीसिंह को अपने भीतर धंसती-सी जान पड़ी।

प्रश्न का कोई उत्तर न देकर देवीसिंह ने दूसरा प्रश्न किया, 'राजा सबदलसिंह का निवास-स्थान क्या यहाँ से बहुत दूर है?'

रामदयाल ने उत्तर दिया, 'जरा दूर है। मैं बुला लाऊँ? जाता हूँ?' 'नहीं, कदापि नहीं।' देवीसिंह ने कड़ककर कहा, 'यहीं खड़ा रह।'
रामदयाल हट नहीं पाया। आधे क्षण उपरांत देवीसिंह ने उसी वेग से फिर पूछा, 'वह स्त्री कहाँ है?'

रामदयाल एक दीर्घ निःश्वास परित्याग कर बोला, 'वह बेचारी आफत की मारी, पदवंचित और कहाँ होगी?'
'क्या? कहाँ छिपाया है?'

'यहाँ। और जो कुछ मन में हो, सो कर डालिए। चूकिए नहीं।'

गोमती ने पीछे से आकर कहा। अंचल के सामने के नीचे छोर पर दोनों हाथ बाँधे गोमती बेधड़क राजा के सामने आकर खड़ी हो गई। देवीसिंह ने गोमती को पहले कभी नहीं देखा था। घटना की आकस्मिकता से वह चकित हो गया। रामदयाल पर आँख अपने आप जा पड़ी। वह शायद पहले से तैयार था। बोला, 'महाराज ने शायद न पहचान पाया हो परंतु मैं विश्वास दिलाता हूँ कि बहुत दिन कष्ट में बीते हैं। महारानी ने कष्ट में जीवन बिताना अच्छा समझा, परंतु स्वाभिमान के विरूद्ध अपने आप आपके पास जाना उचित नहीं समझा।

गोमती कुद्ध होकर बोली, 'रामदयाल, तुम मेरे लिए कुछ भी मत कहो। वह धर्मशास्त्र को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। सामंत-धर्म का वीरों की तरह निर्वाह करते हैं। जो कुछ शेष रह गया हो, उसे भी कर डालने दो। मेरे बीच में मत पड़ो।'

रामदयाल ने टोककर कहा, 'मेरी लाश के विषय में महाराज गिद्धों और कौवों को वचन दे ही चुके होंगे। इसलिए उस महाप्रसंग के उपस्थित होने के पहले एक-आध बात मन की कह डालने में कोई और अधिक संकट खड़ा नहीं हो सकता।'

फिर देवीसिंह से बोला, 'महाराज को याद होगा कि उस दिन अभी बहुत समय नहीं हुआ, पालर में किसी के हाथ पीले करने के लिए बरात सजाकर लाए थे। लड़ाई हो पड़ी, घायल हो गए, फिर वेहाथ पीले न हो पाए। अब तक वे ज्यों-के-त्यों हैं और ये हैं। केवल ऋतुओं ने उन्हें कुछ कृश-भर कर दिया है, परंतु बदले नहीं हैं। खैर, अब मुझे मार डालिए।'

देवीसिंह का हाथ खड्ग पर नहीं गया। छाती पर हाथ बाँधे हुए बोले, 'झूठी बात बनाने में इस धरती पर तेरी बराबरी का शायद और कोई न मिलेगा। सच-सच बतला, छोटी रानी को कहाँ छिपाया है? मेरे सामने पहेलियों में बात मत करना, नहीं तो मैं इस स्थान की भी मर्यादा भूल जाऊँगा।'

फिर नरपति की ओर देखते हुए राजा ने कहा, 'मैंने आपको अब पहचाना। कुछ समय हआ. आप मेरे पास गए थे।'

नरपति कछ देर से कुछ कहने के लिए उतावला-सा हो रहा था। बोला, 'बहत दिनों से आपकी इस थाती को हम लोग टिकाए हुए थे। अब आप स्वयं गोमती को लिवाने आ गए हैं, लेते जाइए। सयानी लड़की को अपने घर ही पर रहना अच्छा होता है। इस समय जो कुछ थोड़ी-सी कड़आहट पैदा हो गई, उसे बिसार दीजिएगा।'

'किसे लिवा लेता जाऊँ?' देवीसिंह ने कहा। 'किसे लिवा ले जाएँगे?' गोमती ने तमककर पूछा। बोली, 'क्या मैं कोई ढोर-गाय हूँ।

देवीसिंह ने नरपति से कहा, 'मैंने इन्हें आज के पहले कभी नहीं देखा। संभव है, वह पालर की रहनेवाली हैं। आपने मुझसे दलीपनगर में कहा था। परंतु मैं इस समय इन्हें कहीं भी लिवा ले जाने में असमर्थ हूँ, लड़ाई हो रही है। तोपें गोले उलग रही हैं। मार-काट मची हुई है। जब शांति स्थापित हो जाए, तब इस प्रश्न पर विचार हो सकता है। मैं इस समय यह जानना चाहता हूँ कि छोटी रानी कहाँ हैं? यहाँ हैं या नहीं?'

कुमुद बोली, 'इस नाम की यहाँ कोई नहीं हैं। मैं दूसरा ही प्रश्न करना चाहती हूँ। क्या आप समझते हैं कि स्त्रियों में निजत्व की कोई लाज नहीं होती?'

देवीसिंह ने नरम स्वर में उत्तर दिया, 'आप सब लोग मेरे साथ रक्षा के स्थान में चलना चाहें तो अभी ले चलने को तैयार हूँ; परंतु दूसरे प्रसंग वर्तमान अवस्था के अनुकूल नहीं हैं।

'मैं नहीं जाऊँगी।' क्षीण स्वर में गोमती ने कहा। फिर क्षीणतर स्वर में बोली, 'दुर्गा मेरी रक्षा करेंगी।' और तुरंत धड़ाम से पृथ्वी पर गिरकर अचेत हो गई। कुमुद उसे सँभालने के लिए उससे लिपट-सी गई।

राजा देवीसिंह यथार्थ दशा समझने के लिए उसकी ओर झुके। जरा दूर से ही कुंजरसिंह सब सुन रहा था; परंतु इस समय दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में उसे वास्तविक वस्तु-परिचय न हुआ। इतना जरूर भान हुआ कि देवीसिंह किसी भीषण दुर्घटना के जिम्मेदार हो रहे हैं।

इतने में रामदयाल चिल्लाया, 'सर्वनाश होता है।' कुंजरसिंह ने तलवार खींच ली। जोर से बोला, 'न होने पाएगा।' और लपककर देवीसिंह के पास जा पहुँचा।

देवीसिंह ने भी तलवार खींच ली। उनके साथियों के भी खड्ग बाहर निकल आए। पहरेवालों ने भी समझा कि गोलमाल है। वे हथियार लेकर भीतर घुस आए।

कुंजर से देवीसिंह बोला, 'दुष्ट, छली, सँभल।'
कुमुद गोमती को छोड़कर खड़ी हो गई। परंतु विचलित नहीं हुई। कोमल किंतु दृढ़ स्वर में बोली, 'देवी के मंदिर में रक्त न बहाया जाए।'

देवीसिंह रुका। कुंजरसिंह ने भी वार नहीं किया। कुमुद ने फिर कहा, 'राजा, आपको यह शोभा नहीं देता।' 'मेरा इसमें कोई अपराध नहीं।' देवीसिंह बोला, 'यह मनुष्य नाहक बीच में आ कूदा।'

'देवीसिंह।' कुंजर ने दाँत पीसकर कहा, 'ना मालुम यहाँ ऐसी कौन-सी शक्ति है, जो मुझे अपनी तलवार तुम्हारी छाती में दूंसने से रोक रही है। तुम तुरंत यहाँ से चले जाओ। बाहर जाओ।'

'जाइए।' कुमुद भी बिना किसी क्षोभ के बोली।

देवीसिंह की आँखों में खून-सा आ गया। तो भी स्वर को यथासंभव संयत करके बोले, कुंजरसिंह, मैं आज ही तुम्हारा सिर धड़ से अलग करना चाहता था। परंतु यहाँ न कर सका, इसका उस समय तक खेदरहेगा जब तक तुम्हारा सिर धड़ पर मौजूद है।'

कुंजर ने कहा, 'गलियों के भिखारी, छल-प्रपंच करके मेरे पिता के सिंहासन पर जा बैठा है, इसलिए ऐसी बातें मार रहा है। मंदिर के बाहर चल और देख ले कि पृथ्वी माता को किसका प्राण भार-समान हो रहा है।'

देवीसिंह गरजकर बोले, 'चल बाहर, दासीपुत्र, चल बाहर। महाराज नायकसिंह के सिंहासन पर शुद्ध बंदेला ही बैठ सकता है, बाँदियों के जाये उसे छू भी नहीं सकते।'

कुमुद ने कहा, 'यहाँ अब और अधिक बातचीत न करिए, अन्यथा देवी के प्रकोप से आपको बहुत हानि होगी।'

इस निवारण पर भी दोनों दल वहाँ से नहीं हटे। पैंतरे बदल गए और वहाँ केवल एक क्षण इसलिए गुजरा कि कौन किस पर किस तरह का वार करे कि नरपतिसिंह ने उस छोटे से रणक्षेत्र में बड़ा भारी गोलमाल उपस्थित कर दिया। वह मंदिर में किसी तरह लड़ाई बंद कर देना चाहता था, परंतु उसके ध्यान में उस क्षण केवल एक उपाय आया। उसने चुपचाप मुँह की फूंक से दीपक बुझा दिया।

प्रकाश के यकायक तिरोहित हो जाने से मन्दिर के भीतर का पूर्व-वंचित अंधकार और भी अधिक काला मालुम होने लगा।

कुमुद ने अपने सहज कोमल स्वर से जरा बाहर कहा, 'कुमार, अपनी रक्षा करो।'

वहाँ कुंजर को या किसी को इस प्रकार के किसी भी संकेत की जरूरत न थी। जो मारने के लिए उतारू होता है, वह प्रायः मरने के लिए भी तैयार रहता है। परंतु ऐसे मनुष्य बहुत थोड़े हैं जिन्हें वार कर पाने का रत्ती भर भी भरोसा न हो और मारे जाने का सोलहों आने संदेह जान पड़े। इसलिए वे सब अपने बचाव के लिए तलवार भाँजते हए मंदिर के निकास-द्वार के लिए अग्रसर हए। इतनी हड़बड़ी मची कि अपनी ही ठोकर और अपनी ही तलवार से कई लोग थोड़े-थोड़े से घायल हो गए। किसी-किसी  को दूसरे के भी हथियार के छोले लग गए, परंत गंभीर घाव किसी के नहीं लगा।


थोड़े समय में आगे-पीछे सब योद्धा निकल गए। मंदिर के बाहर एक चट्टान के पास देवीसिंह ने खड़े होकर पुकारा, 'मेरे सिपाही!' उत्तर देकर एक-एक करके देवीसिंह के सैनिक उसकी आवाज पर आ गए। कुंजरसिंह मंदिर के बाहर जरा पीछे आ पाया था। पहरा ठीक करके वह आगे बढ़ा। उसके साथ सिपाही भी थे। थोड़ी दूर से देवीसिंह की आवाज सुनकर कुंजर ने तैश में आकर कहा, 'मारो, जाने न पावे।'
उसके साथ सिपाही भी चिल्लाए, 'मारो।'

उस अंधरे में तारों के प्रकाश में मार्ग टटोलता हआ देवीसिंह पत्थरों और पठारियों की ऊबड़-खाबड़ भूमि लाँघना हुआ नदी की ओर उतर गया। बेतवा की लंबी-चौड़ी धार उस अंधेरे में बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ती थी।

कुंजरसिंह के सिपाहियों ने दूर तक पीछा नहीं किया। परंतु उसके तोपची ने रामनगर की ओर तोप दाग दी। प्रखर प्रकाश और प्रखरतर शब्द हुआ। उस प्रकाश में देवीसिंह को अपनी बँधी हुई नाव और उस पर बैठे हुए सैनिक स्पष्ट दिखाई पड़ गए। वह अपने दोनों साथियों को लिए हुए नाव की ओर बढ़ा।

थोड़ी देर में सबदलसिंह मंदिर के पास आया। चिल्लाकर बोला, 'कुंजरसिंह, यह क्या है, कहाँ हो?'

चिल्लाहट के पैने किंतु बारीक स्वर में किसी ने मंदिर से कहा, 'शत्रुओं का निवारण कर रहे हैं।'

यह स्वर कुमुद का था। सबदलसिंह पहचान नहीं पाया, परंतु समझ गया कि दो में से किसी स्त्री का स्वर है और अवस्था संकटमय है। तोपों की ओर जल्दी-जल्दी डग बढ़ाकर उसने फिर कुंजरसिंह को पुकारा।

कुंजरसिंह ने उत्तर दिया और साथ ही सिपाहियों को जोर से आज्ञा दी, 'बचने न पावे। नाव लेकर दूर नहीं गया होगा।'
इस समय देवीसिंह नाव पर पहुँच गए थे। बेतवा के पूर्वी किनारे की ओर नाव खेते हए उसी किनारे-किनारे वह रामनगर की ओर चले गए। कुंजरसिंह के पास पहुँचकर सबदलसिंह ने पूछा, 'क्या था कुमार? क्या राजा देवीसिंह आए थे?'

कुंजरसिंह उत्तर नहीं दे पाया। उसके उसी सैनिक ने, जिसने देवीसिंह पर विराटा गढ़ी के पास आने के समय ही संदेह किया था, कहा, 'देवीसिंह कैसे हो सकते थे? मुसलमान लोग हिंदुस्तानी वेश रखकर घुस आए थे। मैंने उसी समय कह दिया था, परंतु कुँवर को विश्वास था कि दलीपनगर के राजा ही हैं। इनके साथ कुछ बातचीत भी हो पड़ी थी। न मालूम क्यों उसी समय काटकर नहीं डाल दिया?'

'मुसलमान थे?' सबदलसिंह ने आश्चर्य से कहा, 'पठारी का पहरा कमजोर हो गया था?'

'न।' वह सिपाही तुंरत बोला, 'कुँवर तलवार खींचकर तुंरत दौड़ पड़े थे और हम लोग तैयार थे, परंतु उसके वेश और देवीसिंह की नकल के धोखे में आ गए।'
उस सिपाही को अपने मन में इस अन्वेषण पर बड़ा हर्ष हो रहा था। 'क्या बात थी?' सबदलसिंह ने कुंजर से पूछा, 'आप चुप क्यों हैं?' कुंजरसिंह ने उत्तर दिया, 'यह सिपाही ठीक कह रहा है। हम लोग धोखे में आ गए थे।'

'तब रामनगर-पतन की बात निरी गप थी?' सबदलसिंह ने रामनगर गढ़ी की ओर देखते हुए प्रश्न किया, 'न मालूम कब विपद् से छुटकारा मिलेगा?'

कुंजरसिंह ने बेतवा की दूर बहती हुई धार की ओर देखते हुए उत्तर दिया, 'अभी तक हम थोड़े से आदमियों ने जैसी और जिस तरह से लड़ाई लड़ी है, वह आपसे छिपी नहीं है। अब और घोर, घोरतर युद्ध होगा, आप विश्वास रखें। हमारे गोलंदाज आज रात में रामनगर को चकनाचूर कर डालेंगे।'
सबदलसिंह क्षमा-प्रार्थना के स्वर में बोला, 'आपके कौशल से ही अब तक हम इने-गिने मनुष्य अपने पैरों पर खड़े हुए हैं।' और प्रश्न किया, 'बात क्या थी?'

कुंजरसिंह ने बात बनाने का निश्चय कर लिया था। कहा, 'शायद कोई देवीसिंह का रूप धरकर आया था। मंदिर में गया। मैं भी पीछे-पीछे गया। अपने चार सैनिक उसके साथ भेज दिए गए। वहाँ देखा, वह स्त्रियों से कह रहा है कि हमारे साथ चलो, नाव तैयार है। गोमती से उसने कुछ कहा-सुनी की। वह अचेत होकर गिर पड़ी। मैंने गड़बड़ समझकर तलवार खींची, इतने में हवा से दीपक बुझ गया। इस कारण, वह जो वास्तव में देवीसिंह-सा मालूम होता था, अपने साथियों को लेकर खिसक गया। मैंने पीछा किया, परंतु हाथ न आया।'

सबदलसिंह का इतने से कदाचित् समाधान हो गया। वह अपने स्थान की ओर चला गया।

थोड़ी देर में रामदयाल कुंजरसिंह के पास आया। हाथ जोड़कर बोला, 'क्या मेरा अपराध क्षमा किया जाएगा?'

कुंजर ने थोड़ी देर पहले रामदयाल को शत्रुरूप में देखा था। उसके जी में रामदयाल के लिए इस समय बहुत घृणा न थी। उसने उत्तर दिया, और बातें पीछे देखी जाएँगी। हम इस समय यह चाहते हैं कि देवीसिंह के इस तरह यहाँ घुस आने का समाचार इधर-उधर न फैलने पावे।'

रामदयाल ने इस प्रस्ताव को समझ लिया। कहा, 'उसमें मेरा लाभ ही क्या है? उलटे मुसीबत में पड़ने का डर है।'

'मंदिर में कुशल है?' कुंजर ने पूछा।

'मेरे इस समय यहाँ आने का कारण वहीं की बात है।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'गोमती की हालत खराब मालूम होती है। आप एक क्षण के लिए चलिए।'

गोलंदाजों को रामनगर पर अनवरत गोले बरसाने का हुक्म देकर कुंजर रामदयाल के साथ चला गया।

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