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ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी

विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:८०:


दलीपनगर और भांडेर की सेनाएँ एक-दूसरे पर बिना बड़ा जनसंहार किए हुए तो और बंदूकें दागती रहती थीं। इक्के-दुक्के सैनिक लड़-भिड़ जाते थे, कभी-कभी छोटी-छोटी टोलियों की मुठभेड़ भी हो जाती थी। परंतु सौ-पचास हाथ भूमि इधर या उधर, इससे अधिक जय या पराजय किसी पक्ष को भी प्राप्त न हो पाती थी। - इधर-उधर के बड़े-बड़े नाले दोनों दलों की स्वाभाविक सीमा से बन गए थे, जब तब भरकों में मारकाट हो जाती थी। बीच के मैदानों से गोले और गोलियाँ भनभनाती निकल जाती थीं।
इस प्रकार के युद्ध से लोचनसिंह का जी ऊबने लगा। खुले मैदान में युद्ध ठानने का उसने कई बार मंतव्य प्रकट किया, परंतु राजा देवीसिंह की दूरदर्शिता के प्रतिवाद ने लोचनसिंह की न चलने दी।
आज अकस्मात् राजा, जनार्दन शर्मा, लोचनसिंह इत्यादि मुसावली के निकटवर्ती नाले में इकट्ठे हो गए।
आगे क्या करना चाहिए, इस पर सलाह होने लगी।

लोचनसिंह ने कहा, 'यहीं गड़े-गड़े मरना तो अब बिलकुल अच्छा नहीं लगता। हथियार बिना चलाए ही कदाचित् किसी दिन टें हो जाना पड़े।'
'तब क्या किया जाए?' जनार्दन ने धीरे से पूछा।
'अलीमर्दान की सेना पर तीर की तरह टूट पड़ना चाहिए।' लोचनसिंह ने उत्तर दिया।
'और तीर की तरह छूट निकलकर कमान को खाली कर देना चाहिए।' राजा देवीसिंह ने व्यंग्य किया।

'जैसी मरजी हो।' लोचनसिंह ने कुढ़कर कहा, 'लड़ाई के बहाने भड़भड़ करते रहिए, जब अलीमर्दान की सेना दुगुनी-चौगुनी हो जाए, तब घर चले चलिए।'

देवीसिंह का थका हुआ चेहरा लाल हो गया। सोचने लगे। एक पल बाद बोले, 'आज रात तक रामनगर पर अपना झंडा फहरा सकोगे?' लोचनसिंह उत्तर देने में जरा-सा हिचका। .

देवीसिंह, 'मौत के बदले रामनगर मिलेगा, लोचनसिंह!' 'मैं तैयार हूँ।' लोचनसिंह ने दृढ़ता से कहा।

जनार्दन जरा कसे स्वर में बोला, 'और आपके सरदार?'

इस थपेड़ की परवाह किए बिना ही लोचनसिंह ने कहा, 'मेरे साथी सरदार कुछ करने या मरने के लिए बहुत उतावले हो रहे हैं, परंतु-' .

जनार्दन, परंतु आज ही आपके मुँह से सुना।'

जनार्दन पर आँखें तानकर लोचनसिंह बोला, 'आप रामनगर विजय करिए, महाराज से रामनगर की जागीर आपको मैं बरबस दिलवा दूंगा।'

जनार्दन भी उत्तेजित होकर कुछ कहना ही चाहता था कि देवीसिंह ने कहा, 'मेरा एक मंतव्य है।
जनार्दन, 'महाराज!'
लोचनसिंह, 'क्या मरजी है?'

देवीसिंह, रामनगर पर शीघ्र अधिकार कर लेने के लिए बढ़ना यमराज को न्योतने के बराबर है, परंतु अलीमर्दान पर धावा बोलने की अपेक्षा यह भी कहीं ज्यादा अच्छा है। रामनगर का गढ़ और तोपें हाथ में कर लेने के उपरांत अलीमर्दान से खुली मुठभेड़ करना सरल हो जाएगा।' फिर एक क्षण सोचकर राजा ने कहा, 'लोचनसिंह, तुम्हें अंत्येष्टि-क्रिया की पवित्र आवश्यकता में बहुत विश्वास है?'

लोचनसिंह नहीं समझा। देवीसिंह बोला, 'मरने जाओगे, तो कफन भी साथ लेते जाओगे या नहीं?'

लोचनसिंह मुसकराया। उसके झुर्रादार चेहरे पर सौंदर्य की रेखाएँ छा गईं। बोला, 'महाराज ने बहुत सूझ की बात कही। हम लोग जितने आदमी रामनगर की ओर आज बढ़ेंगे, सब अपने-अपने सिर पर कफन बाँधेगे। वाह! क्या वेश रहेगा। कोई देखे तो कहेगा कि मौत से लड़ने के लिए यमदूत जा रहे हैं।'
 
राजा ने कहा, 'जो आज रात को रामनगर विजय करेगा, वह उसे जागीर में पाएगा।' इसके बाद इन लोगों ने अपनी योजना तैयार की।

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