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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:८१:


दूसरे दिन संध्या के पूर्व नित्य-जैसी लड़ाई होती रही। लोचनसिंह जितने मनुष्यों को रामनगर पर आक्रमण करने के लिए चाहता था, उतने उसे मिल गए। उनके चेहरे पर उत्साह था या नहीं, यह अँधेरे में नहीं दिखाई पड़ रहा था, परंतु मन के रोकने पर भी कुछ बात करने के लिए उतावले-से जान पड़ते थे-परस्पर कोई करारी दिल्लगी करने के लिए सन्नद्ध से। बिलकल पास से देखनेवाला जान सकता था कि वे लोचनसिंह के साथ होने पर भी फुसफुसाहट में ठिठोली कर रहे थे और मुसकराते भी थे।

नदी के किनारे-किनारे बिना पहचाने जाना असंभव था। इसलिए अपने भरके की सीध से कभी तैरकर और कभी भूमि पर रामनगर तक चुपचाप जाना लोचनसिंह ने तय किया। रामनगर के नीचे पहुँचकर फिर आक्रमण करना था या मौत के मुँह में फँसना था।

लोचनसिंह ने नदी में उतरने के लिए कपड़े कसे। पैर डालने नहीं पाया था कि समीप खड़े हुए एक सिपाही ने स्वर दबाकर कहा, 'दाऊजू, और कपड़े चाहें भीग जाएँ परंतु सिर से बँधा हुआ कफन न भीगने पावे।'

लोचनसिंह ने उत्तर दिया, भीगे हुए कफन से मुक्ति और भी जल्दी मिलेगी। पर अब फसफसाहट मत करो।'
लोचनसिंह पानी में जाने से पहले कुछ सोचने लगा। उसी स्वर में वह सैनिक बोला, 'दाऊजू, देखते क्या हो, कूद पड़ो।'
लोचनसिंह ने कहा, 'जो कुछ देखना है, वह रामनगर में देखूगा। यहाँ देखने को रखा ही क्या है। नदी का तैरना शूरता का काम नहीं, केवल बल का काम है।'

सिपाही कुछ और कहना चाहता था, परंतु लोचनसिंह पानी में सरक गया और सिपाही भी पीछे हो गए।

नदी के बहाव के विपरीत अँधेरी रात में तैरना वीरता का भी काम था, और खासतौर से उस समय, जब किनारों पर शत्र बंदूकें भरे धाँय-धाँय कर रहे थे।
घोर परिश्रम के पश्चात् रामनगर से कुछ दूरी पर सब-के-सब पहुँच गए। वहाँ पानी चट्टानों से होकर आया है। धार तेज बहती है। विजय प्राप्ति के लिए सुरक्षित स्थान पर इकट्ठा होना आवश्यक था। परंतु इस स्थान पर प्रकृति को पराजित करना सहज न था। टुकड़ी तितर-बितर होकर, इधर-उधर चट्टानों पर बैठकर दम लेने लगी।


थोड़े समय पश्चात्, किसी पूर्वानर्णय के अनुसार दलीपनगर की सेना की ओर से रामनगर के ऊपर असाधारण रीति से गोलाबारी शुरू हो गई। लोचनसिंह को अपने निकट एक ऊँची चट्टान दिखाई दी, जो चढ़ाव खाती हुई रामनगर के किले की दीवार के नीचे तक चली गई थी। परंतु बीच में तेज धारवाला पानी पड़ता था और साथी इधर-उधर बिखरे हुए थे।

लोचनसिंह ने आवाज दबाकर कहा, 'पीछे-पीछे आओ।' इस बात को किसी ने न सन पाया। तब और जोर से बोला, 'इस ओर आओ।'

इस पुकार को उसके साथियों ने सुन लिया और पास ही एक चट्टान से अटकी हुई डोंगी में चुपचाप पड़े किसी व्यक्ति ने भी।

'धायँ-धायँ' की आवाजें आगे-पीछे जल्दी-जल्दी हुई। तेज बहती हुई धार पर गोलियाँ छर्र हो गईं। लोचनसिंह पानी में कूद पड़ा, परंतु नाव के पास पहुँचने में धार बार-बार विघ्न उपस्थित करने लगी। डोंगी के भीतर से बंदूकों के पुनः भरे जाने का शब्द आने लगा। लोचनसिंह को आभास हुआ कि अब की बार बचना असंभव होगा। वह धार के खिलाफ बहुत बल लगाने लगा और धार भी उसे जोर से झटके देने लगी। हाँफता हुआ लोचनसिंह धीरे से चिल्लाया, 'क्या सब मर गए?'

पास की चट्टान से टकराते हुए पानी को चीरते हुए आकर एक व्यक्ति ने स्पष्ट कहा, 'अभी तो सिर का कफन गीला भी नहीं हुआ है।'

'शाबाश!' लोचनसिंह बोला, 'कौन?'

उत्तर मिला, 'बुंदेला।'. इस उत्तर से लोचनसिंह को तृप्ति नहीं हुई। वह सिपाही किसी दृढ़ता में इतराता हआ-सा, उस धार को पार करके नाव के पास जा पहुँचा। लोचनसिंह ने भी दुगना बल लगा दिया। वह भी नाव के नीचे जा लगा। पीछे से और सिपाहियों के आने की आवाज मालम हई। जो सिपाही पहले आया था, उसने नाव पर चढ़ने की चेष्टा की।

नाव के भीतर से किसी ने बंदक की नाल से उसे ढकेल दिया। वह नीचे गिर पड़ा और थोड़ा-सा बह गया। तब तक लोचनसिंह आ धमका। उसके साथ भी वही क्रिया का गई। क्रिया सफल हुई। लोचनसिंह भी नीचे धसक गया। इतने में वह सैनिक आ गया और नाव पर चढ़ गया। लोचनसिंह और उसके अन्य सिपाही भी कुछ ही समय पीछे नाव में जा घुसे। नाव में रामनगर के छ:-सात सैनिक थे, परंतु दो के सिवा और सब सो रहे थे। दर की तोपों और पास की बंदकों से वे थके-थकाए जाग न सके थे परंतु नवागंतुकों के फँस पड़ने से रस्सों से बँधी हुई नाव डगमगा उठी, इसलिए नाव थर्रा  उठी। किसी अज्ञात संकट में अपने को फंसा हुआ समझकर और असाधारण शब्दों से घबराकर भाग उठे। इधर-उधर उछल-उछलकर गिरने लगे। दो सिपाही जो बंदकें लिए तैयार थे, चला न पाए। लोचनसिंह ने उन्हें तलवार से असमर्थ कर दिया।

लोचनसिंह और उसके सिपाहियों को नाव में जितनी बंदकें मिलीं, ले ली और अपने पास की पिस्तौलें पौंछ-पोंछकर भर लीं। बोंडे सुलगाकर और उन्हें भलीभाँति छिपाकर किले की ओर आ लेती हुई यह टुकड़ी बढ़ी। ऊपर से तोपें आग उगलकर दलीपनगर की सेना को जवाब देने लगी थीं। कभी-कभी आग की चादर-सीतन जाती थी।

आगे चलकर उस बातूनी सैनिक ने लोचनसिंह से कहा, 'अब क्या करोगे दाऊजू?' 'फाटक पर गोलियों की बाढ़ दागो।' लोचनसिंह ने आज्ञा के स्वर में उत्तर दिया।
वह सैनिक बिना किसी झिझक के बोला, 'फाटक पर बाढ़ दागने की अपेक्षा उस पर जोर का हल्ला बोलना अच्छा होगा।'

लोचनसिंह ने कड़वे कंठ से कहा, 'यह गलत कार्यवाही होगी। जो कहता हूँ, सो करो।'
वह सैनिक बोला, 'सो तो यों भी कफन सिर से बाँधकर चले हैं।'

लोचनसिंह ने कलेजा कोंचने वाली कोई बात कहनी चाही, परंतु केवल इतना ही मुंह से निकला, 'अच्छा तो तुम उ केले फाटक पर जाकर कुछ चिल्लाओ।'
वह सैनिक बिना कुछ कहे-सुने तुरंत फाटक की ओर दीवार के किनारे-किनारे बढ़ गया।
और सैनिकों ने कहा, 'हमें भी वहीं जाकर मरने की आज्ञा हो?' । लोचनसिंह जरा सहमा। मौत की छाती पर सवार सैनिकों की इस बात के भीतर किसी उलाहने की छाया देखकर वह जरा-सा लज्जित भी हुआ। बोला, 'हम सब वहीं चल रहे हैं।'

इतने में वह वाचाल सैनिक फाटक के पास पहुँच गया। तोपों की उस धूमधाम में आवाज खूब ऊँची करके वह चिल्लाया, 'खोलो, हम आ गए।'
फाटक पर रामनगर की सेना के योद्धा थे, वे घबराए। घबराकर इधर-उधर बंदूकें दाग हड़बड़ाहट में पड़ गए। उसी समय लोचनसिंह और उसके साथियों ने फाटक के पास आकर जोर का शोर-गुल किया। कुछ बंदूकें भी दागीं।

भीतर के सिपाही फाटक छोड़कर भीतर की ओर हटे। लोचनसिंह और उनके साथी कमंद की सीढ़ी लगाकर दीवार पर चढ़ गए।

भीतर घमासान युद्ध होने लगा। बंदूकें-तमंचे कड़कने और तलवारें खनकने लगीं। रामनगरवालों को अँधेरे में यह न जान पड़ा कि दूसरी ओर से कितने सैनिक घुस आए हैं। फाटक खुल गया और रामनगर की सेना में भगदड़ मच गई। छोटी रानी लड़ती हुई फाटक से निकल गईं।
दलीपनगर की सेना ने जोर के साथ जयजयकार किया।

रामनगर में बहुत कम लड़ाके भागने से बचे। जो नहीं भागे थे, उन्होंने हथियार डाल दिए। लोचनसिंह की सेना के भी कई आदमी मारे गए और अधिकांश घायल हो गए, परंतु अपने अदम्य उत्साह और विजय के हर्ष में घावों की पीड़ा बहुत कम जान पड़ी। उक्त बातूनी सिपाही ने लोचनसिंह से कहा, 'दाऊजू, फाटक बंद कर लीजिए, अपनी सेना को जयजयकार सनाकर बलाइए, नहीं तो यह विजय अकारथ जाएगी।'
लोचनसिंह बिना रौब के बोला, 'तुम्हारा नाम?'

उत्तर मिला, 'कफनसिंह बुंदेला।' लोचनसिंह ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। फाटक बंद करवाकर देवीसिंह का जयजयकार करता रहा। दलीपनगर की सेना का घेरा रामनगर की बाहरवाली सेना और अलीमर्दानवाले दस्ते ने छोड़ दिया और टुकड़ियाँ दूर हट गईं। दलीपनगर की सेना ने रामनगर के गढ़ पर अधिकार कर लिया। उस अँधेरी रात में यह किसी को न मालूम होने पाया कि देवीसिंह ने कब और कहाँ से गढ़ में प्रवेश किया।
देवीसिंह के आ जाने पर गढ़ की ढूँढ़-खोज की गई। छोटी रानी तो निकल गई थीं, पर बड़ी रानी मिल गई। उन्हें कैद कर लिया गया।

रामनगर के पतन के बाद पतराखन ने राजा देवीसिंह का अधिकार स्वीकृत कर लिया, परंतु राजा ने उसे रामनगर में ससैन्य रहने का अवसर नहीं दिया। बेतवा के पूर्वी किनारे पर ही पूर्ववत् रहने को कहा, जिससे आवश्यकता पड़ने पर उसकी सेना का उपयोग किया जा सके।

बड़ी रानी को अपनी मूर्खता पर बड़ा पछतावा था, परंतु उनके पछतावे की मात्रा का कोई लिहाज किए बिना ही राजा ने क्षमा दे दी। दृष्टि जरूर उन पर काफी रखी। रानी ने इस नजरबंदी को ही बहुत गनीमत समझा।

विजय की रात्रि के बाद जो सवेरे रामनगर में राजा के सरदारों की बैठक हुई, उसमें सभी लोग राजा की इस उदारता पर मन में रुष्ट थे। छोटी रानी का जिक्र आने पर लोचनसिंह ने कहा, 'महाराज यदि अपराधियों को दंड न देंगे तो विजय पर विजय बेकार होती चली जाएगी।'
जनार्दन अवसर पाकर मुसकराया। बोला, 'दाऊज, यह प्रश्न सेनापति के लिए नहीं, इसे तो राजनीतिज्ञ ही सुलझा सकते हैं।'

लोचनसिंह को किसी बहस का स्मरण हो आया। बराबरी के दाव मारने और . . खानेवाले सिपाही ने रामनगर पर विजय के उल्लास में इस बात का बरा न माना।

जरा-सा मुसकराकर उसने कहा, 'यह चोट! अच्छा, खैर; कभी देखा जाएगा।' फिर राजा से बोला, 'रामनगर की जागीर कब और किसे दी जाएगी? अब इस प्रश्न पर विचार कर लिया जाए।'
जनार्दन तुरंत बोला, 'चामुंडराय लोचनसिंह के सिवा उसे और कौन पाएगा? महाराज ने उसी समय तय कर दिया था। कछ और निर्णय उसके विषय में नहीं करना है। मुझे तो चिंता छोटी रानी की है। उन्हें तुरंत कैद करने की आवश्यकता है। उनके स्वतंत्र रहने से बहुत सरदार चल-विचल हो जाते हैं और अलीमर्दान को उनकी ओट में अपना काम बनाने का सुभीता भी रहता है। फिर राजा के मुख की ओर निश्चयात्मक दृष्टि से देखने लगा।

राजा ने कहा, 'छोटी रानी को जो कोई कैद कर लावेगा, उसे दो सहस्र मुहरें इनाम में दी जाएंगी। यह घोषणा विस्तार के साथ कर दी जाए।'

जनार्दन खुशी के मारे उछल पड़ा। बोला, 'सौ मुहरें महाराज के दीन ब्राह्मण जनार्दन की ओर से भी दी जाएंगी।'
उस सूचना के साथ लोचनसिंह ने मुसकराते हुए कड़वेपन के साथ पूछा, 'यह भी जाहिर किया जाएगा या नहीं कि रानी चुपचाप गिरफ्तार हो जाएँ; क्योंकि पकड़ने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा?'

राजा हँस पड़ा। एक क्षण बाद बोला, 'रामनगर की जागीर का सिरोपाव चामुंडराय लोचनसिंह को इसी समय दे दिया जाए, शर्माजी।'
लोचनसिंह ने बारीक आह लेकर कहा, 'यदि मुझे मिल सकती होती, तो पहले ही कह चुका हूँ कि मैं महाराज को लौटा देता, परंतु वह मुझे नहीं मिलना चाहिए।'
'क्यों?' राजा ने जरा विस्मय के साथ पूछा। उत्तर मिला, इसलिए कि मैंने रामनगर नहीं जीता।' 'तब किसने जीता?' जनार्दन ने प्रश्न किया।

राजा से लोचनसिंह ने कहा, 'उसका संपूर्ण श्रेय मेरे एक सैनिक को है। खेद है, रात के कारण उसका नाम नहीं पूछ पाया। वह जीवित अवश्य है, परंतु अँधेरे में न मालूम कहाँ चला गया। उसकी खोज करवाई जानी चाहिए; मर गया हो, तो उसके घर में जो कोई हो, उसे यह जागीर दे दी जाए।'
राजा ने सहज रीति से सम्मति प्रकट की, 'यदि सबकी सम्मति हो तो मैं यह चाहता हूँ कि रामनगर का कुछ भाग पतराखन के पास रहने दिया जाए। अब यह शरणागत हुआ है, इसलिए बिलकुल बेदखल न किया जाए।'
लोचनसिंह ने जरा निरपेक्ष भाव से कहा, 'हमारे उस सैनिक का पता महाराज पहले लगवाएँ, तब रामनगर का कोई एक टुकड़ा पतराखन को या और किसी को दें।'

राजा बिना उत्तेजना के बोला, 'लोचनसिंह, तुम्हें उस सिपाही ने कुछ तो अपना नाम बताया होगा?

'बतलाया था महाराज।' लोचनसिंह ने उत्तर दिया, परंतु वह नाम बनावटी जान पड़ता है। कहता था, मेरा नाम कफनसिंह बुंदेला है?'
'विचित्र नाम है! राजा ने मसकराकर जरा आश्चर्य के साथ कहा, 'तुम्हारी सेना में क्या सब योद्धा इसी तरह के बेतुके नाम रखते हैं?'

लोचनसिंह गंभीर स्वर में बोला, 'यदि मेरी सेना में सब सैनिक उस कफनसिंह सरीखे हों, तो आपको घर-घर चामुंडराई की उपाधि न बॉटनी पड़े।'
राजा ने पूछा, 'क्या तुम उसका स्वर पहचान सकते हो?' लोचनसिंह ने जरा लज्जित होकर उत्तर दिया, 'शायद न पहचान पाऊँगा। ऐसी जल्दी में सब काम हुआ और बातचीत हुई कि याद रखना कठिन है।'

'वाह रे सेनापति!' राजा ने हँसकर चुटकी ली।
लोचनसिंह का मस्तक लाल हो गया। बोला, 'सेनापति को सैनिकों के स्वर याद रखने की आवश्यकता नहीं।'
राजा ने तुरंत स्वर बदलकर कहा, 'कफनसिंह बुंदेला।'
लोचनसिंह का क्रोध घोर विस्मय में परिवर्तित हो गया। क्षीण स्वर में बोला, 'यही स्वर सुना था।'

'महाराज का!' जनार्दन ने आश्चर्य के साथ कहा।
देवीसिंह खूब हँसकर बोला, 'महाराज का नहीं, कफनसिंह बुंदेला का।' . लोचनसिंह सँभल गया। गंभीर होकर बोला, 'तब आप जागीर चाहे जिसे दे सकते हैं।

'तीन-चौथाई लोचनसिंह को और एक-चौथाई पतराखन को, यदि वह स्वामिभक्त बना रहा तो।"

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