ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
विराटा में मंदिर की बगल में उत्तर-पश्चिम की ओर एक बड़ी टोर के नीचे एक खोह थी। उसी जगह कुमुद, गोमती और नरपति इन दिनों अपना अधिकांश समय बिताते थे। रामदयाल वहीं पहँचा। गोमती रामदयाल को देखकर प्रसन्न हुई। दिन-रात सिवा कुमुद और नरपति के साथ के और कोई तीसरा व्यक्ति उपलब्ध न था। दिन-रात सिवा गोलाबारी, मार-काट, हाय-हाय कुमुद तथा नरपति की वही बैंधी हुई बातों के और कुछ सुनने को कई दिन से नहीं मिला था।
देखते ही रामदयाल के पास आई। बोली, 'कब आए? कैसे आए? क्या समाचार लाए हो?'
रामदयाल ने कहा, 'अभी आ रहा हूँ, बड़ी कठिनाइयों को पार करके एक बार तो ऐसा
जान पड़ा कि अलीमर्दान की तोप मेरी छोटी-सी नाव को चकनाचूर किए देती है।
अँधेरे में एक किनारे से नाव लेकर चला था, परंतु धीरे-धीरे सूर्योदय तक यहाँ
आ पाया
गोमती की आँखों में कृतज्ञता झलक आई। कहा, 'क्यों प्राणों को इतने संकट में
डाला?'
रामदयाल गोमती को जरा दूर ले जाकर एक चट्टान के पास बातचीत करने लगा। गोमती बोली, 'तुम महाराज के बड़े आज्ञाकारी सैनिक हो।' 'नहीं हूँ।' उसने कहा, 'मैं आपका आज्ञाकारी सैनिक हूँ।' 'क्या समाचार है?' 'कहा है, अभी मिलना न होगा। विराटा पहुँचने पर इतना समय न मिल सकेगा कि बातचीत हो सके। जब लड़ाई समाप्त हो जाएगी, दलीपनगर का राज्य निष्कंटक हो जाएगा, महाराज का कहीं कोई बैरी न रहेगा, तब आपरथ में या किसी और सवारी पर दलीपनगर चली आएँ।'
'क्या महाराज ने यह सब कहा है?' 'मैं झूठ बोलने के लिए इतनी आफतों में क्यों अपनी जान डालता?'
गोमती ने दाँत पीसे। कुछ क्षण बाद बोली, 'इतनी बात कहने के लिए उन्होंने
तुम्हें यहाँ तक पहुँचाया? क्या वह रामनगर में आ गए हैं?'
रामदयाल ने उत्तर दिया, 'अभी रामनगर अधिकार में नहीं आया है।' रुद्ध स्वर में
गोमती ने पूछा, 'क्या मुझे चिढ़ाने और तुम्हारा प्राण लेने के लिए ही . .
रामदयाल से किस प्रकार निस्तार मिले?
वह कुंजर की शक्ति के बाहर की बात थी। परंतु उसने सोचा-'मैं इसके कुचक्रों
का निवारण कर सकता हूँ। करूँगा।' फिर अपनी तोपों की ओर ध्यान गया। जिस
प्रयोजन से वे वहाँ स्थित थीं और वह स्वयं उस स्थान पर जिस धारणा को लेकर
गड़ा-सा था, उस ओर भी ध्यान गया।
उस समय प्रतिकूल पक्ष की तोपें विराटा की दिशा में विरक्त-सी थीं। कुंजरसिंह
दबे पाँव गुफा की ओर गया।
गुफा में निविड़ अंधकार था। पत्थर से सटकर कुंजर ने कान लगाया। उस तमोराशि में केवल कुछ साँसों का शब्द सुनाई पड़ता था। निद्रा ने षड्यंत्रों पर भी अपना अधिकार कर लिया था।
इसी गुफा में वह देवी है। कुंजर ने सोचा, 'कल्याण और रूप, स्निग्धता और
लावण्य, वरदान और प्रेरणा की वह निधि उस कठोर गुफा के भीतर!' ।
कुंजर और अधिक नहीं ठहरा। उसका कर्तव्य इस निधि की रक्षा के साथ संबद्ध था।
लौट आया। मन में कहा-'देवी को किसी का कोई स्वप्न भी कभी आता होगा?'
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