ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
विराटा की रक्षा दृढ़ता के साथ हो रही थी। दाँगियों ने अपने स्थान को बचाने के लिए प्राणों की होड़ लगा रखी थी। गढ़ी के भीतर आदमी बहुत अधिक न थे। तोपें भी थोड़ी ही थीं। तोपों के चलानेवाले भी चतरन थे। परंतु उन लोगों में मर-मिटने की लगन थी
और विश्वास था कि देवी उनकी सहायता पर हैं।
नदी के पश्चिम तटवर्ती भरकों से अलीमर्दान की सेना विराटा की गढ़ी पर आक्रमण करती थी, परंतु बेतवा की धार उसे विफल-मनोरथ कर देती थी। असल में देवीसिंह की सेना की चपेट के कारण अलीमर्दान को विराटा के पीस डालने का अवकाशन मिल पाता था, नहीं तो विराटा के थोड़े से बहादुर दाँगी बहुत देर तक नहीं टिक सकते थे।
विराटा-युद्ध में कुंजरसिंह को अब तक कोई स्थान नमिल सका था। सबदलसिंह की यह धारण थी कि कुंजरसिंह को हरावल में या कहीं पर भी कोई मुख्य पद देने से देवीसिंह का विमुख हो जाना संभव है। ऐसी दशा में उसे मंदिर की रक्षा के काम पर नियुक्त कर दिया। कुंजरसिंह का विराटा से निकल भागना असंभव था। सबदलसिंह
को विश्वास था कि उसे वहाँ केवल बने रहने देने में देवीसिंह अप्रसन्न न होंगे।
कुंजरसिंह हथियार लिए हुए मंदिर में बना रहता था। जब कभी पड़े-पड़े मन ऊब उठता था तब मंदिर की प्राचीर के पास से बेतवा की धारा को टकटकी लगाकर देखने लगता था। कुमुद, गोमती और नरपति रात-दिन मंदिर के उत्तरवाले खंड के निचले स्थान में नीचे की एक खोह में बने रहते थे। प्रातःकाल दुर्गा-पूजन के निमित्त थोड़ी देर के लिए मंदिर में आते थे। कुमुद से बातचीत करने का और कोई अवसर न मिलता था, अथवा कुंजर बात करने के लिए अनुक्त अवसर न ढूँढ़ पाता था।
एक दिन कुंजर ने रामदयाल को मंदिर के पास अचानक देखा। चकित हो गया। खासा कड़ा पहरा होते हुए भी कैसे प्रवेश पा गया? उसकी पहली इच्छा यही हुई कि तलवार के वार से समाप्त कर दे, परंतु रामदयाल मुसकराता हुआ उसी की ओर बढ़ा। कुंजरसिंह अपनी इच्छा पूरी करने में हिचक गया।
रामदयाल ने कहा, 'राजा मुझे शायद अपना शत्रु समझते हैं। संभव है, राजा की कल्पना सही हो।'
कुंजरसिंह इस बेधड़क मंतव्य पर क्षुब्ध हो गया और किंकर्तव्यविमूढ़।
रामदयाल ने और पास आकर कहा, परंतु आप और मैं समान भाव से इस गढ़ी की रक्षा के आकांक्षी हैं। मैं अब महारानी की सेवा में नहीं हूँ। राजा देवीसिंह का संदेशा लाया हूँ।'
'रानी को किस दलदल में फंसाकर चले आए हो?' कुंजरसिंह ने कठोरता के साथ प्रश्न किया।
'मैंने किसी को दलदल में नहीं फंसाया है।' रामदयाल ने ठंडक के साथ उत्तर दिया, 'मैं खुद उनके पीछे बहुत बरबाद हुआ हूँ। बहुत मारा-मारा फिरा हूँ। उनका मुझ पर भी विश्वास नहीं रहा, तब निकाल दिया। मैं राजा देवीसिंह की शरण में गया। उन्होंने क्षमा प्रदान करके अपना लिया है और यहाँ भेजा है। राजा देवीसिंह के नाते से आप भले ही मुझे अपना बैरी समझें, परंतु मैं आपके बैर के योग्य नहीं हूँ।'
कुंजर ने एक क्षण सोचा। रामदयाल की बात पर उसे जरा भी विश्वास नहुआ, परंतु
उसे मार डालने की इच्छा में अनेक विघ्न दिखलाई दिए।
पूछा, 'क्या संदेशा लाए हो?'
उत्तर मिला, 'यदि क्षमा किया जाऊँ, तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि मेरा संदेशा
यहाँ के राजा सबदलसिंह के लिए ही है।'
कुंजरसिंह का जी जल गया। बोला, 'तब चलो उनके पास। मैं साथ चलता है।' 'किसी को
भेजकर उन्हें यहीं बुलवा लीजिए। सबके सामने जाने से संदेश के रहस्य के खुलकर
फैल जाने का भय है।' रामदयाल ने कहा।
पास ही एक तोप लगी हुई थी। गोलंदाज और कई सैनिक वहाँ नियुक्त थे। जरूरी काम
के नाम से कुंजर ने एक सैनिक को बुलाकर कहा, 'यह मनुष्य शत्रुया मित्रपक्ष का
है। अभी निश्चय नहीं हो सकता कि किस श्रेणी में इसे समझा जाए। राजा से कुछ
बात करना चाहता है। उन्हें तुरंत यहाँ भेज दो। मैं इस पर तब तक पहरा लगाए
हैं।'
रामदयाल गमनोद्यत सिपाही से बोला, राजा से कह देना कि मैं यहीं पर वध कर दिया
जाऊँ, यदि शत्र-पक्ष का निकलें या यदि मेरी बात उपयोगी सिद्ध न हो।'
थोड़ी देर में वह सैनिक सबदलसिंह को लेकर आ गया। राजा ने उतावली में पूछा,
'क्या बात है?'
वह बोला, 'क्या मैं राजा कुंजरसिंह के सामने कह सकता हूँ? राजा देवीसिंह का
संदेशा है।'
कुंजरसिंह ने झुंझलाकर बीच में कहा, 'मैं अब विराटा का शुभाकांक्षी हूँ। अब
जो विराटा के मित्र हैं, वे मेरे मित्र हैं और जो उसके शत्रु हैं, वे मेरे
शत्रु।'
सबदलसिंह बोला, 'तुम अपना संवाद सुनाओ।'
रामदयाल ने कहा, 'कल बड़े जोर का आक्रमण आपकी गढ़ी पर होगा-अलीमर्दान की सेना
का। उसका ध्यान बटाने के लिए हमारे महाराज रामनगर पर बड़े जोर का हल्ला
बोलेंगे। आप तोपों की बाढ़ का पक्का बंदोबस्त रखें।'
'और?' सबदलसिंह ने पूछा।' 'और।' रामदयाल ने उत्तर दिया, और संवाद उन्होंने
भविष्य में होनेवाली अपनी रानी के लिए भेजा है।'
सबदलसिंह ने गोमती के साथ होनेवाले देवीसिंह के संबंध की चर्चा सुन रखी थी।
फिर भी प्रश्नसूचक दृष्टि से वह रामदयाल की ओर और फिर तुरंत कुंजरसिंह की ओर
देखने लगा।
रामदयाल ने असंदिग्ध भाव से कहा, 'यदि आज्ञा हो तो उनसे ही कह दूं और विश्वास
न हो, तो आपको बतला दूं।'
सबदलसिंह बोला, 'नहीं, वह संवाद मेरे कानों के योग्य नहीं हो सकता। तुम अकेले
में कह सकते हो। परंतु दो दिन तक तुम इस स्थान को छोड़ न सकोगे।'
रामदयाल मुसकराकर बोला, 'मेरे लिए महाराज की आज्ञा भी यही है। अगले दो दिन
बड़ी कठिन अवस्था के रहेंगे। मेरा उनके पास रहना जरूरी है।'
अकेले में ले जाकर सबदलसिंह से कुंजर ने कहा, 'यह आदमी बड़ा नीच और नयंकर है।
अपनी गढ़ी में इसका ऐसे समय आना मुझे बड़े अशुभ का द्योतक मालूम होता है।'
सबदलसिंह बोला, 'आपको राजा देवीसिंह के किसी मनुष्य की कम-से-कम वर्तमान समय
में बुराई नहीं करनी चाहिए। आप मेरे अतिथि हैं, और मान्य हैं, परंतु यह बात
आपको ध्यान में रखनी पड़ेगी कि राजा देवीसिंह हम लोगों के परमसहायक हैं। मुझे
इस बात की चिंता है कि मिलने पर कहीं आपके लिए मुझे उत्तर न देना पड़े।
यदि मान लिया जाए कि वह मनुष्य देवीसिंह का नहीं है, तो मैंने इसे कुछ समय तक
रुके रहने के लिए कह ही दिया है। आप भी सावधानी के साथ इस पर दृष्टि रखें।'
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