ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
|
364 पाठक हैं |
वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
अलीमर्दान की सेना ने विराटा को और दलीपनगर की सेना ने रामनगर को अपना लक्ष्य
बनाया। लोचनसिंह भांडेर पर धावा करना चाहता था, परंतु देवीसिंह की स्पष्ट
आज्ञा दी कि भांडेर पर आक्रमण करके कठिनाइयों को न बढ़ाया जाए। यह प्रपंच
लोचनसिंह की समझ में अच्छी तरह न आता था कि भांडेर की सेना हमारे ऊपर तो
आक्रमण करे और हम शत्रु के राज्य के बाहर से उसका विरोध करें, परंतु उसके घर
में घसकर मार न करें। इसका समाधान लोचनसिंह को इस प्रकार मिला कि दिल्ली का
बादशाह इस भाँति की लड़ाई को आत्म-रक्षा समझकर तरह दे देगा, परंतु शाही सूबे
में घुसकर मार-काट करने को चुनौती का रूप दे डालेगा। इस कल्पना को वह
आत्म-प्रवंचना कहता था, परंतु राजा की आज्ञा होने के कारण वह उसका प्रतिकार न
कर सकता था। निदान उसे भी अपना ध्यान विराटा-रामनगर की ही ओर दौड़ाना पड़ा।
उधर अलीमर्दान ने सालौन भरॉली से शीघ्र कूच कर दिया। तो वह बहुत कम साथ ला
सका था। विराटा में प्रवेश करने की पूरी चेष्टा की, परंतु मुसावली के पास
दलीपनगर के कई दस्तों के साथ मुठभेड़ हो गई। संधि के पूर्व पत्र-व्यवहार की
किसी पक्ष को चिंता न रही। इस मुठभेड़ में दोनों दलों को अनचाहे स्थानों पर
मोर्चाबंदी करनी पड़ी। अलीमर्दान की सेना धनुष के आकार में नदी किनारे-किनारे
रामनगर के नीचे तक भरकों में फैल गई। दलीपनगर की सेना रामनगर और विराटा को
हस्तगत करने के प्रयत्न में इस मोर्चेबंदी का प्रतिकार करने में प्रथम से ही
विवश हुई। न तो अलीमर्दान रामनगर की टुकड़ी से मिल पाता था और न दलीपनगर की
सेना विराटा में पहुँच पाती थी। रामनगर के गढ़ से विराटा और देवीसिंह के
मोर्चों पर गोला-बारी की जा रही थी, परंतु इतनी शिथिलता और अनजानपने के साथ
कि वह बहुत कम हानि पहुँचा रही थी। उधर विराटा की सेना को अपनी भौगोलिक
स्थिति के कारण अधिक सुभीता था, परंतु अलीमर्दान की रोकथाम के सिवा वहाँ के
भी गोलंदाज और अधिक कुछ नहीं कर पा रहे थे। परंतु दलीपनगर की तोपें रामनगर की
गढ़ी को ढीला कर देने में कोई कसर नहीं लगा रही थीं।
जब कभी एक दूसरे पर खुल्लमखुल्ला टूटकर इस या उस गढ़ को हथियाने की कोशिश
करता था, तभी भीषण मार-काट हो पड़ती थी और आक्रमण करनेवाले दल को पीछे हटना
पड़ता था।
इस तरह लड़ते-लड़ते कई दिन हो गए। देवीसिंह को चिंता हुई। मंत्रणा के लिए एक
दिन राजा, जनार्दन, लोचनसिंह और कुछ और सरदार बैठे।
जनार्दन ने कहा, 'यदि अलीमर्दान के पास और कमक आ गई या बादशाह ने हम लोगों को
बागी समझकर दिल्ली से कोई बड़ा दस्ता भेज दिया तो बड़ी कठिनाई होगी। युद्ध
खिंच गया है, कौन जाने क्या होगा।'
लोचनसिंह बोला, 'होगा क्या, आप अपने घर में बैठकर जप-तप करना, हम अपनी निबट
लेंगे।
'इन बातों से काम न चलेगा, लोचनसिंह।' राजा ने कहा, 'इस समय हम यह निश्चय कर
रहे हैं कि शीघ्र क्या करना चाहिए।'
लोचनसिंह ने उत्तर दिया, 'मेरी समझ में तो यह आता है कि इधर-उधर की हाथापाई
छोड़कर भांडेर पर जोर का हल्ला बोल दिया जाए, तो अलीमर्दान को लेने के देने
पड़ जाएंगे।'
'यह तो नहीं हो सकता।' जनार्दन ने कहा।
'राजनीति इस समय ऐसा करने से रोकती है।' देवीसिंह बोला। 'राजनीति अर्थात्
शर्माजी महाराज जब जैसा हम लोगों को बतलावें।' लोचनसिंह ने कहा।
राजा देवीसिंह ने नियंत्रण करने के ढंग पर कहा, 'नहीं, मैं इसे ठीक समझता
हूँ, चामुंडराय। भांडेर हमारे दृष्टिकोण से इस समय परे है।'
'तब या तो इसी तरह युद्ध को लस्टम-पस्टम चलने दीजिए या घर लौट चलिए।'
लोचनसिंह बोला।
लोचनसिंह की इस गंभीर सम्मति पर कुछ क्षण तक किसी ने कुछ न कहा।
लोचनसिंह तुरंत बोला, 'मुझे महाराज जो आज्ञा दें, उसके लिए तैयार हूँ, परंतु
केवल राजनीति-विशारदों से लड़ाई के दाँव-पेंचसीखने का उत्साह मेरे भीतर नहीं
है। उस सेना का भार, जिसका संचालन शर्माजी कर रहे हैं, किसी और को दीजिए तब-'
राजा ने कहा. 'तम्हें आपे से बाहर हो जाने की बहत आदत पड़ गई है।'
'अब बोलूँ तो जीभ काट लीजिएगा। कहिए तो यहाँ से अपने डेरे पर चला जाऊँ।'
लोचनसिंह ने बिना क्रोध के कहा।
कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। ऐसा जान पड़ा, मानो लोचनसिंह के अलक्ष्य आतंक
को आस-पास के वायुमंडल ने भी सीख लिया हो।
राजा देवीसिंह ने स्नेह और दृढ़ता के ढंग से कहा, 'चामुंडराय, कल तुम्हारी
शूरता और विलक्षण स्फूर्ति की फिर परीक्षा है।'
लोचनसिंह बोला, 'क्या आज्ञा है?' 'कल रामनगर की गढ़ी में हम लोग प्रवेश कर
लें।' राजा ने कहा। शब्दों की झंकार सब लोगों के कानों में समा गई। लोचनसिंह
की आँखों से चिनगारी-सी छूटी, बोला, 'आज्ञा का पालन होगा, परंतु दो शर्ते
हैं।'
राजा ने कहा, 'तुमने चामुंडराय कभी आज तक वीरता-प्रदर्शन में शर्ते नहीं
लगाई। आज नई बात कैसी? परंतु खैर, मैं वचन देता हूँ, रामनगर की गढ़ी और
आस-पास का इलाका तुम्हारा होगा।'
लोचनसिंह हँसा, ऐसा कि पहले शायद ही कभी इस तरह हँसते देखा गया हो। फिर गंभीर
होकर अवहेलना के साथ बोला, रामनगर की गढ़ी और मेरे पास जो कुछ है, वह सब मैं
उसे दे दूँगा, जो अलीमर्दान की फौज को चीरकर विराटा में कल पहँच जाए। महाराज!
मेरी इस भाँति की शर्ते नहीं हैं।'
'फिर क्या?' जनार्दन ने सकपकाकर और खुशामद की दृष्टि से पछा। 'पहली तो यह,
लोचनसिंह ने उत्तर दिया, 'कि सैन्य-संचालन का काम आपके हाथ में न रहे, और
दूसरी यह कि मैं यदि मारा जाऊँ, तो मेरी लाश की मिट्टी बिगड़ने न पावे, उसकी
खोज करके शास्त्र के अनुसार दाह किया जाए। नदी में न फेंका जाए और न किसी
गड्ढे में डाला जाए।'
'स्वीकृति है।' राजा ने प्रसन्न होकर कहा, 'जनार्दन मेरे साथ रहेंगे। मैं अब
इनके दस्ते का संचालन करूँगा। परंतु जागीर देने की मेरी शर्त भी मान्य
रहेगी।'
लोचनसिंह उत्तेजित होकर बोला, 'तब मैंने जो कुछ कहा है, वह भी मान्य रहेगा,
क्योंकि रामनगर के विजय करने के बाद यों भी मैं ही उसका स्वामी होऊँगा। केवल
राजा न होने के कारण ही उसे आपके हाथों अर्पण करके फिर ले लेना कोई बड़े
महत्त्व की बात न होगी।'
राजा ने कुछ नहीं कहा। बात उड़ाने के लिए केवल हँस दिया।
जनार्दन के जी में कुछ खटक गया था। परंतु वह भी बरबस मुसकाने लगा। उस
मुसकराहट ने लोचनसिंह को किंचित् भी कुंठित नहीं किया। जनार्दन अपनी दुर्दशा
छिपाने के लिए छटपटाने लगा।
उपयुक्त अवसर पाकर बोला, 'मैं इनकी लाश को तलाश करके शास्त्रोक्त
अंत्येष्टि-क्रिया करने का प्रण करता हूँ। इन्हें वास्तव में और कुछ चाहिए भी
नहीं।'
रामनगर पर करारा धावा करने की बात तय हुई।
|