ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
जिस रात अलीमर्दान की सेना ने सालौन भर्रोली में डेरा डाला, उस रात विराटा के राजा ने अपने भाईबंदों को इकट्ठा करके लड़ाई की तैयारी की। बाहर निकलकर नवाब की सेना से सफलतापूर्वक लड़ना विराटा की सेना के लिए बहुत कठिन था, परंतु उसे अपने जंगलों, पहाड़ों और 'माई बेतवा' की धार का बड़ा भरोसा था और फिर यह कोई पहली ही लड़ाई नहीं थी।
मुख्य-मुख्य लोगों की बैठक हुई। सबको विश्वास था कि देवीसिंह समय पर सहायता
देंगे। सब जानते थे कि देवीसिंह पालर की ओर से आ रहे हैं, परंतु सबकी शंका थी
कि यदि नवाब की सेना बीच में आ पड़ी, तो राजा की सेना का इस ओर आना बहुत कठिन
हो जाएगा और यदि नवाब ने एक दस्ता विराटा को नष्ट करने के लिए भेज दिया और
उसी समय रामनगर से आक्रमण हो गया तो भयंकर समस्या उपस्थित हो जाएगी।
इन सब बातों पर विचार हुआ। अधिकांश लोगों में लड़ाई का उत्साह था। सबदलसिंह
संयत भाषा में बोल रहा था, परंतु दृढ़तापूर्ण निश्चय से भरा हुआ था।
अंत में कुमुद के विराटा में बने रहने के विषय में प्रश्न उपस्थित हुआ।
अधिकांश लोगों की धारणा हुई कि कुमुद को किसी दूसरे स्थान पर भेज देना चाहिए।
सबदलसिंह अपने निश्चय से न डिगा। उसने कहा, 'मैं फिर यही कहूँगा कि उनके यहाँ
बने रहने में ही हम लोगों की कुशल है। उन्हें वहाँ से हटाओ, तो मूर्ति को
हटाओ, मंदिर को हटाओ।'
अंत में निश्चय हुआ, जैसा ऐसे अवसरों पर निश्चय हुआ करता है, अभी कुमुद यहीं
बनी रहें, परंतु कुअवसर आते ही तुरंत उस पार किसी सुरक्षित स्थान में पहुँचा
दी जाएँ। कुंजरसिंह वहीं था-सभा में नहीं, सभा से दूर मंदिर में। परंतु उसका
विराटा में होना सबदलसिंह को मालूम हो गया था और लोगों ने इच्छा प्रकट की कि
कुंजरसिंह को हटा दिया जाए।
नरपति बोला, परंतु वह कहते हैं कि हम दुर्गा की रक्षा करते-करते अपना प्राण
देंगे, .हमें किसी के राजपाट से कुछ सरोकार नहीं। उन्होंने शपथपूर्वक कहा है
कि हम देवीसिंह के साथ नहीं लड़ेंगे।'
सबदल ने कहा, 'यह तो ठीक है, परंतु जब देवीसिंह को मालूम होगा कि कुंजरसिंह
हमारे यहाँ आश्रय पाए हुए हैं, तब हमारी बात पर से उनका विश्वास उठ जाएगा और
वह अपना हाथ हमसे खींच लेंगे।'
नरपति बोला,'तब जैसा आप चाहें, करें, परंतु वह अपनी शरण में हैं और यह स्मरण रखना चाहिए कि राजकुमार हैं। किसी के भी सब दिन एक-से नहीं रहते। उन्होंने शपथ ली है कि हमें किसी के राजपाट से कोई सरोकार नहीं।'
सबदल ने अपनी सम्मति बदलते हुए कहा, 'वह हमारे और देवीसिंह राजा, दोनों के
समान शत्रु से लड़ने में सहायक होंगे। सुना है, तोप अच्छी चलाते हैं। मंदिर
में बना रहने देंगे। वहां से वह तोप चलावेंगे। कोई हर्ज नहीं।'
लोगों में इस बात पर बहस हुई है कि कहीं नवाब से मिल न जाएँ। नरपति बोला, यह
असंभव है। मैं उन्हें बहुत दिन से जानता हूँ। वह पालर में नवाब की सेना से
लड़े थे। बड़े विकट योद्धा हैं-'
'परंतु यह, सबदल ने कहा, 'नवाब के साथ मिलकर देवीसिंह के खिलाफ भी लड़ चुके हैं।' सबदल के मन में फिर संदेह जाग्रत हुआ।
नरपति सोच में पड़ गया। वह सिंहगढ़ की सब बातें न जानता था। कुछ क्षण बाद बोला, कुमुद देवी विश्वास दिलाती हैं कि कुंजरसिंह कभी दगा न करेंगे। छल उन्हें छू नहीं गया है। वह तोप चलाने का काम बहुत अच्छा जानते हैं।'
अंत में यह तय हुआ कि कुंजरसिंह को गढ़ से न हटाया जाए, परंतु कोई विशेष
महत्त्व का कार्य उन्हें न दिया जाए।
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