ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
|
364 पाठक हैं |
वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
रामदयाल को गोमती के ढूँढ़ने में और गोमती को रामदयाल के ढूँढ़ने में कष्ट या विलंब नहीं हुआ। वार्तालाप के लिए उपयुक्त समय और स्थान के लिए भी विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा।
गोमती की आकृति गंभीर थी। रामदयाल के मुख पर किसी भय या चिंता की छाप लग रही थी।
कुशल-मंगल के बाद दोनों कुछ क्षण चुपचाप रहे। __अंत में गोमती ने बारीक, पैने और कुछ काटते हुए से स्वर में पूछा, 'तुम्हारे महाराज तो आजकल सैन्य-संग्रह और चढ़ाई की तैयारी के सिवा और सोचते ही क्या होंगे?'
रामदयाल ने नीचा सिर किए हुए घायल आदमी की तरह उत्तर दिया, 'उस धुन के सिवा और कोई धुन ही नहीं है। आजकल तो और किसी बात के लिए जरा भी अवकाश नहीं मिलता। परंतु-'
'परंतु क्या रामदयाल?' गोमती ने धड़कते हुए कलेजे से, परंतु उपेक्षा की मुद्रा धारण करके कहा, 'तुमने तो नहीं मेरी ओर से कुछ कहा था?'
'आपकी ओर से तो नहीं,' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'अपनी ही ओर से कहा था। बोले, इस समय राजनीति और रणनीति के अतिरिक्त और कोई चर्चा न करो।'
जरा चिढ़कर गोमती बोली, 'तुमने नाहक मेरी बात छेड़ी रामदयाल।' 'क्या करूँ, मन नहीं माना।' गद्गद-सा होकर रामदयाल ने कहा, 'आपको दुखी देखकर छाती फटती है। आपको सखी देकर यदि तुरंत मर जाऊँ तो मेरे बराबर पुण्यवाला किसी को न समझा जाए।'
गोमती को उस गद्गद कंठ ने तुरंत आकृष्ट किया। स्त्री की सहज साधारण सावधानी को गोमती दूर रखकर बोली, 'मैं राज-पाट की भिखारिन नहीं हूँ। महाराज सुख के साथ संसार में रहें, मेरे लिए इतना ही बहुत है।' - रामदयाल ने उत्तेजित होकर कहा, 'परंतु मेरे संतोष के लिए इतना कम-से-कम आवश्यक है कि आप आनंदपूर्वक रहें। मैं साधारण मनुष्य हूँ, परंतु मेरे हृदय को यह कहने का अधिकार है।'
गोमती ने उत्सुकता की अधीरता के वश होकर कहा, 'यह निश्चय जानो रामदयाल, मैं स्वयं दलीपनगर नहीं जाऊँगी। निरादर के सिंहासन से इस जंगल का जीवन सहन गुना अच्छा। यहाँ मेरे नि सब कछ है।'
रामदयाल बोला, 'यह ठीक है, परतु आपको यहाँ बहत दिनों नहीं रहना चाहिए। कुछ दिनों बाद यहाँ लोहे और अग्नि की वर्षा होगी। यद्यपि आपनिर्भय हैं, तो भी व्यर्थ ही विपद् को सिर पर बुलाना ठीक नहीं मालूम पड़ता। यहीं, किसी जंगल के किसी सुरक्षित स्थान में आप रह जाएँ, सेवा के लिए मुझ सदृश्य भृत्यों की कमी न रहेगी।' ___ 'मैं किसी भी संकटमय स्थान में जा सकती हैं। कुमुद भी देर-सबेर यहाँ से जाएंगी। उन्हीं के संग रह जाऊँगी। फिर तुरंत हैसकर बोली, अर्थात् यदि उन्होंने निभालिया, तो।'
रामदयाल ने नीचे से ही एक आँख को ऊँचा करके पूछा, 'मुझे विश्वास है; कुंजरसिंह उनका पीछा न छोड़ेंगे। ऐसी दशा में आपका उनके संग रहना कैसे संभव होगा।'
कुछ सोचकर गोमती बोली, 'यह एक समस्या अवश्य है।' फिर कुछ क्षण चुप रहकर उसने पूछा, 'अब तो तुम महाराज के साथ ही रहोगे?'
'कुछ आवश्यक नहीं है।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'मैं चरणों की सेवा में ही रहँगा।'
इससे कुछ मिलती-जुलती बातचीत गोमती ने किसी चट्टान के पीछे छिपकर हाल ही में सुनी थी। उसके स्मरण में देर नहीं लग सकती थी, शायद मन में पहले से मौजूद थी। गोमती का अनमना मन यकायक कहीं चला गया। हँसकर बोली, 'परसों मैंने जो बातचीत सुनी है, उससे तुम्हारी उस दिन की बात पर विश्वास करने को जी चाहता है।
'यहाँ कुंजरसिंह आए हुए हैं?'
हाँ।'
तब मैं संपूर्ण बात सुनने का अधिकारी हूँ। अवश्य सुनाइए। पूरा हाल सुनने के लिए जी चंचल हो रहा है।'
गोमती ने उत्तर दिया, 'किसी एक वाक्य को संपूर्ण संभाषण में से खींच निकालकर यह नहीं बतलाया जा सकता कि तुम्हारे संदेह की पुष्टि में यह प्रमाण है; परंतु कुछ-कुछ भान मुझे भी होने लगा है।'
हँसते हुए बड़े अनुरोध, बड़े आग्रह और बहुत मचलते हुए रामदयाल ने कहा, 'मैं तो पूरी बात सुनूँगा। सारा भाव जानकर रहूँगा।'
कुछ संकोच के साथ गोमती बोली, 'जितना याद होगा, बतला दूंगी।' 'मैं पूछता जाऊँगा, आप बतलाती जाना।' रामदयाल ने पूर्ववत् भाव के साथ प्रस्ताव किया। __ गोमती बोली, 'मैं कोठरी में थी। कुंजरसिंह से उन्होंने कुछ बात करने की इच्छा प्रकट की।' फिर एक क्षण सोचकर कहा, 'परंतु रामदयाल, हो सकता है, कुंजरसिंह किसी वरदान की याचना ही के लिए वैसे भक्तिपूर्ण वचनों से संबोधन कर रहे हों।'
जोश के साथ रामदयाल बोला, 'महारानी का यह भ्रम है। वरदान की याचना हो सकती है, परंतु दूसरे तरह के वरदान की। मुझे कुछ बातें सुनाई जावें, तो मैं निश्चय के साथ बतला दूंगा। मैं छुटपन से राजाओं और रानियों के बीच में रहा हूँ। मुझसे किसी ने किसी भाँति की आड़-मर्यादा नहीं मानी है। संसार का पूरा अनुभव मुझे है। आप भ्रम में न पड़ें, कहें।'
'कुमुद बातचीत करने के लिए बड़ी सतर्कता के साथ बाहर गईं और बड़ी बारीकी के
साथ इधर-उधर दृष्टि डालती रहीं। हो सकता है, नरपति काकाजू के आगमन की
प्रतीक्षा करती हों।' गोमती ने मुसकराकर कहा।
रामदयाल बोला, 'मेरा अनुभव मुझे बतलाता है कि जब दो व्यक्ति मिलना चाहते हैं,
तब सहसा इसी तरह चौकन्ना होना पड़ता है।'
गोमती ने कहा, 'फिर एक चट्टान पर वह जा बैठीं। इधर-उधर देखती रहीं। देर तक
बातचीत करने के बाद भीतर चली गईं, परंतु उनके वहाँ से चल देने के पहले ही मैं
वहाँ से चली आई थी।'
'आप जहाँ थीं, वहाँ से देख-सुन तो सब सकती थीं?' रामदयाल ने प्रश्न किया।
गोमती ने कहा, 'हाँ।' 'क्या ऐसा नहीं होता था कि कभी-कभी उठान तो बात का
उत्साह और जोर के साथ होता हो, परंतु अंत बहुत ही साधारण?'
'इसी तरह तो प्रायः संपूर्ण वार्तालाप हुआ था।'
'कुमुद की बोली में रुखाई थी?' 'बिलकुल नहीं।'
'कुंजर ने अधिक जोर किस बात पर दिया था?'
'इस पर कि मैं अब तो सदा आपके निकट ही रहूँगा।'
'वह स्वीकार नहीं कर रही होंगी?'
'स्पष्ट अस्वीकृति तो नहीं की।'
'यही ढंग तो असल में होता है।' गोमती कुछ सोचने लगी।
.रामदयाल ने कहा, 'मैं विश्वास दिलाता हूँ, कुमुद के हृदय पर कुंजर का प्रभाव
हो गया है। उसने कोई घनिष्ठतासूचक बात नहीं की थी?'
'स्मरण नहीं है।'
रामदयाल ने नीचे आँखें किए हुए पूछा, 'कुमुद कुंजर से आँखें जोड़कर बात कर
पाती थीं या नहीं?'
गोमती ने उत्तर दिया, 'मैंने स्पष्ट लक्ष्य नहीं किया।' रामदयाल बोला,
'कनखियों देखती थीं?' 'हाँ, कुछ ऐसे ही।' रामदयाल ने बेतवा की धारा की ओर
देखते हुए कहा, 'अच्छा, यह तो निश्चयपूर्वक आपको याद होगा कि जब कुंजरसिंह
खूब अच्छी तरह कुमुद की ओर देखना चाहते होंगे, तभी उनका मुँह दूसरी ओर फिर
जाता होगा?'
गोमती ने पूछा, 'रामदयाल, तुम्हें ये सब बातें किसने बतलाई?'
उसने जवाब दिया, 'सरकार, हम लोग सदा महलों में ही रहते हैं;कम-से-कम मेरा समय
रानियों की ही सेवा में जाता है। अधिकांश समय प्रेम-चर्चा में बीतता है।
अपनी-अपनी बीती लोग सुनाया करते हैं। मेरी आयु जरूर थोड़ी है, परंतु संसार के
अनुभव बूढ़ों से अधिक हैं। महाराज नायकसिंह मुझे दिन-रात में किसी समय अपने
पास से अलग नहीं करते थे। जब आज्ञा होगी, उनके मनोरंजक किस्से सुनाऊँगा।
परंतु पहले मैं भी तो पूरी-पूरी बात सुन लूँ।' ।
किसी उत्सुकता, किसी दूरवर्ती घटगा-चक्र के कुतूहल ने गोमती को हिला-सा दिया।
धीरे से बोली, 'बतलाती जाती हूँ।'
रामदयाल वार्तालाप में अग्रसर होता चला जा रहा था। पूछा, 'एक-आध बार बातचीत
करने में कुंजर का गला काँपा था?'
'इसका भी ठीक-ठीक ध्यान नहीं है।'
रामदयाल ने कहा, 'जब भीतर से हृदय उमड़ता है, भाव की बाढ़ आती है और बात पूरी
कह पाने का अवसर नहीं मिलता, तब यही दशा होती है।' रामदयाल ने इसके बाद अपना
गला साफ किया।
गोमती हैसकर बोली, रामदयाल, तुम्हारा गला क्यों काँप रहा है?'
उसने मुसकराकर कहा, 'आप केवल मेरे प्रश्नों का उत्तर देती जाएँ। अभी आपको
प्रश्न करने का अधिकार नहीं है।' फिर बोला, 'बात करते-करते कभी कुंजर यकायक
रुक जाता होगा। देर तक कुछ सोचता रहता होगा। फिर यकायक कोई असंगत बात कह देता
होगा। यही दशा कुमुद की रही होगी।''
'हाँ, परंतु ऐसा क्यों हुआ होगा?' गोमती ने संकोच के साथ प्रश्न किया।
रामदयाल बोला, 'जब एक हृदय का दूसरे हृदय की ओर संवाद जाने को होता है, तब
सबसे पहले आँखें कुछ कहती हैं। दिखलाई पड़ता है, परंतु मिलाकर देखते ही नहीं
बनता। हजारों निरर्थक-सी बातें होती हैं रुक-रुककर। बिना प्रवाह के। जैसे कोई
गला दबाए देता हो। मालूम होता है, जो बात कहनी है, उस पर खूब विचार किया जा
रहा है, परंतु वास्तव में विचार होता किसी विषय पर भी नहीं है।'
"शायद।' एक ओर देखते हुए गोमती ने कहा।
रामदयाल बोला, 'एक हृदय की दूसरे हृदय के साथ जब मुठभेड़ होती है, तब कुछ इसी
तरह का भूचाल-सा आता है।'
गोमती ने इस पर कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया। रामदयाल ने कहा, 'इस दशा में एक
बड़ी अनोखी बात होती है।' गोमती ने बड़ी उपेक्षा दिखाते हए पूछा, 'क्या?'
रामदयाल ने उस उपेक्षा की तली में देखा, काफी कौतूहल वर्तमान है। उसने
बतलाया, 'एक पक्ष तो यह समझता है कि मैं प्यार करते-करते खपा जा रहा हूँ और
दूसरा मेरी बात भी नहीं पूछता; उधर दूसरा पक्ष-'
रामदयाल रुक गया। गोमती ने उपेक्षा के भाव को त्यागकर कहा, 'दूसरा पक्ष
क्या?'
वह बोला, 'उधर दूसरा पक्ष कदाचित् यह सोचता है कि मैं करूँ तो क्या करूं?
हृदय का दान देने को जो यह उतारू है,सोवास्तव में ऐसा ही है या नहीं? यदि ऐसा
ही है, तो मैं अपने हृदय का दान किस भाँति करूँ। अंत में कदाचित् यह निश्चय
होता है कि हृदय का गुप्त दान करूँ-कोई न जाने, यहाँ तक कि लेनेवाले से भी यह
दान छिपा रहे।'
गोमती हँसने लगी।
रामदयाल हाथ जोड़कर सर्राटे के साथ बोला, 'आप हँसती हैं, क्योंकि इस तरह की
समस्याएँ आपके देव-तुल्य मन के सामने आकर खड़ी नहीं हुई। परंतु सच मानिए,
जहाँ एक बार हृदय को किसी ने हिलाया कि इस कथन का तथ्य सच्चा अँचने लगता है।
प्यार के सामने कोई विघ्न-बाधा और संकट नहीं टिकने पाते। ऊँच-नीच का भेद-भाव
मिट जाता है। व्यथा के बाँध और रोड़े ढोंके बह-बहाकर तिरोहित हो जाते हैं।
बड़ा आदमी छोटे को और छोटा बड़े को प्यार करने से नहीं रुक सकता। उसे कोई
वस्तु ऐसा करने से नहीं रोक पाती। प्रेम के सामने छोटे-बड़े और ऊँच-नीच का
अंतर नष्ट हो जाता है। महलों में जो मैं सदा देखा करता है, उससे मैं इस
निश्चय पर पहुँचा है कि छोटा व्यक्ति बड़े को अधिक सचाई और अधिक गहराई के साथ
चाह सकता है। बड़ा जब थोड़ा-बहुत छोटे को प्यार करता है, तब यह समझता है कि
मैं एहसान कर रहा
गोमती ने इतना वाचाल रामदयाल को पहले कभी न देखा था। जरा आश्चर्य किया। बोली,
'तुम्हारा क्या अभिप्राय है रामदयाल?'
बिना किसी सकपकाहट या संकोच के उसने उत्तर दिया, 'मुझे इस समय यकायक ताव आ
गया था। मैं स्वामिभक्त सेवक हूँ। महाराज के सुख-दुख में बराबरसाथ रहता हूँ,
परंतु मेरी सहानुभूति उनके साथ नहीं है।'
'क्यों?' 'इसलिए कि बार-बार कहने पर भी उन्हें स्मरण नहीं आता। आमोद-प्रमोद
के समय किसी भी स्मृति की हूक उनके कलेजे में नहीं उठती। मुझे तो कभी-कभी उन
पर क्रोध भी आ जाता है।'
गोमती अपने को रोक न सकी। पूछने लगी, 'तुम्हारे सामने कभी बात पड़ी मेरी?'
तुरंत उसने उत्तर दिया, 'मैंने तो कई बार कहा, परंतु न मालूम क्या धुन समाई
है। मनुष्य का बड़े पद पर पहुँच जाना दूसरों, विशेषकर आश्रितों के लिए बड़ा
कष्टपूर्ण होता है।'
गोमती का चेहरा पीला पड़ गया। बहुत पास जाकर रामदयाल बोला, 'अरे वाह! मेरी
रानी, यह क्या? तुम्हें ऐसा दुख न करना चाहिए। राजप्रासाद के सुखों की कल्पना
में अपने को इतना नहीं डबोना चाहिए कि स्वल्प-सी निराशा के उदय होते ही मन का
यह हाल हो जाए। मुझे विश्वास है, महाराज इस समय भूले हुए हैं, तो किसी समय
स्मरण भी करेंगे।'
रामदयाल की आँखों में आँसू आ गए। गोमती भी उन आँसओं को देखकर थोड़ी देर रोई।
.
रामदयाल ने कहा, 'यह कम-से-कम मेरे लिए असह्य है। आप यदि रोईं, तो मेरा कलेजा
टूक-टूक हो जाएगा।'
गोमती दृढ़ता के साथ बोली, 'अब नहीं रोऊँगी रामदयाल।'फिर स्थिर होकर एक क्षण
बाद उसने कहा, 'तुम्हें यह कैसे विश्वास हो गया कि मैं महलों के सखों की
लालसा में लिप्त हैं? मैं ऐसे महलों को पैरों से ठुकराती हैं, जहाँ सम्मान के
साथ प्रवेश न हो।'
रामदयाल ने कहा, 'मैं यह नहीं कहता। वहाँ पहुँचने पर सम्मान तो अवश्य होगा:
परंतु उसमें हमारे महाराज का कोई एहसान नहीं। ऐश्वर्य, रूप और महत्त्व अपना
जो आदर बरबस करवा लेता है, वही आपका भी होगा उस महल में क्या, कहीं भी। परंतु
चंद्रमा का प्रकाश नगरों में उतना अच्छा मालूम नहीं होता, जितना जंगलों में।'
फिर एक क्षण ठहरकर रामदयाल बोला, 'मैं आपको यहाँ अकेला नहीं रहने दूंगा और न
मैं महाराज की सेवा में अब जाऊँगा। जंगलों में आपके पास मर जाना अच्छा। महलों
में रहना असह्य है।'
गोमती ने देखा, बात करते-करते रामदयाल का गला भर-भर आता है। बोली, 'बहुत संभव
है, कुंजरसिंह भी साथ रहे, क्योंकि मैं कुमुद का साथ नहीं छोड़ना चाहती।
और वह कुमुद के निकट रहेगा। ऐसी हालत में तुम्हारी कैसे निभेगी?'
बड़ी लंबी साँस लेकर रामदयाल ने उत्तर दिया, यदि आपके मन में हो तो मैं बाबा
का वेश धारण करके बना रहँगा, कोई न पहचान पावेगा और यदि आपके मन में न होगा,
तो मेरा संसार में और कोई नहीं है, इसी दह में अपनी देह डुबो दूंगा।'
गोमती बोली, 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है। बने रहना। तुम्हारा बहुत सहारा
रहेगा।'
रामदयाल गोमती के घुटने छकर बोला, 'जन्म-भर दूर न कर सकोगी। सदा पास रहँगा।
यदि अनंत काल तक भी बाबा वेश धारण करना पड़ा, तो किए रहूँगा। मैं आपके
कृपाकटाक्ष के लिए संसार-भर की विपत्तियाँ झेलने की सामर्थ्य रखता हैं।'
गोमती के पीले चेहरे पर मुसकराहट आई। बोली, 'रामदयाल, कुछ इसी तरह की बात
कुमुद से कुंजरसिंह भी कह रहे थे।'
रामदयाल झेंप गया, परंतु नीची आँखें किए हुए ही बोला, 'मालूम नहीं, कुंजरसिंह
के असली भाव को कुमुद ने समझ पाया या नहीं।'
'उसका असली भाव क्या रहा होगा?' गोमती ने अलसाते स्वर में कुछ लापरवाही के
साथ पूछा।
रामदयाल ने जवाब दिया, असली भाव, यदि कुंजर सच बोल रहे थे, तोरहा होगा कि लो
या न लो, कुचल दो या ठुकरा दो, परंतु मेरा हृदय तुम्हारे लिए मेरी हथेली पर
है।'
गोमती खड़ी हो गई। बोली, 'बहुत थकावट मालूम होती है। जाड़ा-सा लग रहा है। अब
चलो।'
|