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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:७१:


एक दिन रामदयाल सवेरे ही आया। कुंजरसिंह विराटा के टापू में था। उस समय मंदिर में केवल नरपति मिला, और कोई वहाँन था। रामदयाल को नरपति देवीसिंह का आदमी समझता था, इसलिए उसने उसके आने पर हर्ष प्रकट किया। बोला, 'कहो भाई, क्या समाचार है?'
'समाचार साधारण है।' उत्तर मिला, 'दलीपनगर में जोरों के साथ तैयारियां हो रही हैं।

'यह समाचार साधारण नहीं, बहुत आशापूर्ण है।' 'यहाँ टापू में आज सन्नाटा कैसा छाया हुआ है?' 'स्नान-ध्यान हो रहे हैं।' 'और लोग भी तो होंगे?' 'रहने दो। तुम्हें उनसे क्या? मंदिर में तो सभी प्रकार के लोग आया-जाया करते हैं।'
रामदयाल ने बात बदलकर कहा, 'आप इस बीच में दलीपनगर भी हो आए और मुझे कुछ न मालूम पड़ा। यदि पहले से मालूम होता, तो कदाचित् मैं किसी सेवा में पड़ जाता।'
नरपति प्रसन्न होकर बोला, 'जल्दी में गया और जल्दी में ही आया। दलीपनगर में ज्यादा देर ठहरने की नौबत ही नहीं आई, कार्य बन गया। मैं लौट पड़ा।'

'हमारे राजा, रामदयाल ने कहा, 'टाला-टूली नहीं करते। जिसके लिए जो कुछ करना होता है, शीघ्र कर देते हैं। आपको तो पक्का वचन दे दिया है।'

'वह बड़े जोर से अपनी सेना की तैयारी इसीलिए तो कर रहे हैं। बड़े पुरुषार्थी हैं, बड़े ब्रह्मचारी हैं। सूरमाओं की धुन के सिवा और कोई ध्यान ही नहीं। वह लड़की, जिसे आपने यहाँ देखा होगा, उनकी रानी होने की अधिकारिणी है। केवल भाँवर नहीं पड़ पाई है।' नरपति ने मंतव्य प्रकट किया। उस सिलसिले में दिमाग दूसरी तरफ घूमा। नरपति कहता गया, 'उस दिन जब पालर में लड़ाई हुई थी, जरा-सी ही देर हो गई, नहीं तो दांपत्य संबंध पक्का हो जाता। रह गया, सोरह गया। अब तो उस लड़की को वह

पहचानते ही नहीं। कहते थे, कौन? कहाँ की! इत्यादि-इत्यादि।'
रामदयाल चौंका। उसने पूछा, 'इसका भी जिक्र आया था?'
नरपति ने उत्तर दिया, 'खूब, मैंने कहा था। गोमती ने तो मना कर दिया था, परंतु मेरा जी नहीं माना।'
रामदयाल ने अपने आश्चर्य को दबा दिया। बोला, 'इसका कारण है। मैं जानता हूँ परंतु मुझे आपसे कहने की जरूरत नहीं है।'

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