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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: ७०:


उस दिन नरपति के मुँह से राजा देवीसिंह की कही हुई बात को सुनकर गोमती को बड़ा विषाद हुआ था। परंतु आशा ने धीरे-धीरे मन को फिर चेतन किया। शायद महाराज ने यह न कहा हो। कुछ कहा और नरपति काकाजू ने सुना कुछ और हो, अथवा यही कछ कहा हो कि राज्य के काम-धंधों के मारे कैसे इतनी जल्दी स्मरण हो आता? परंतु उन्होंने यह क्यों कहाकि वही है या कोई और? परंतु वह सहसा मान भी कैसे लेते कि वही हैं? मान लो,वह यहाँ तक दौड़े आते, तोकिसी विश्वास पर या यों ही? राजा हैं; संसार-भर केबखेड़ों को देखना-भालना पड़ता है। सतर्क रहने का अभ्यास पड़ गया है, उसी अभ्यासवश यदि वे सब बातें कही हों, तो क्या आश्चर्य? परंतु सेना, राज्य और प्रजा की ओर इतना सघन आकर्षण है कि वह मुझे भूल जाएँ?-अभी बहुत दिन भी तो नहीं हुए हैं, मैंने कंकण को अभी तक खोला भी नहीं है। इतने दिनों में क्या किसी समय एकांत का एक क्षण भी न मिला होगा? क्या सो जाने के पहले शय्या पर एक करवट भी कभी न बदली होगी? क्या एक पल के लिए भी उस समय पालर की कोई कल्पना-रेखा न खिंचती होगी?
बहुत कष्ट के बाद भी एक समय अवश्य ऐसा आता है कि मन कुछ स्थिरता प्राप्त कर लेता है। उस दिन के कष्ट के उपरांत गोमती का मन भी कुछ हल्का हुआ। उस दिन कुंजरसिंह जब अकेले में कुमुद के साथ सभाषण कर रहा था, गोमती का मन बहुत व्यथा में था। उसके मन को किसी नवीन समस्या की, किसी ताजा उलझन की, किसी नई घटना की अपेक्षा थी। उस वार्तालाप को अकेले में छिपकर सुनने की इच्छा इसीलिए उत्पन्न हुई। परंतु चट्टान के पीछे से लौटकर मंदिर में आ जाने पर उसे विशेष संतोष नहीं हुआ। उसे कुछ ऐसा आभास हुआ कि कुंजरसिंह का अनुरोध केवल भक्त की विनय न था, किंतु उसमें कुछ और भी गहराई थी। रामदयाल ने उसे इस संबंध में अपनी एक कल्पना बतलाई थी। उस पर गोमती को विश्वास न हुआ, परंतु ऐसा कोई स्पष्ट वाक्य गोमतीने नहीं सुना था, जिससे वह इस निष्कर्ष को निकालती कि यह निस्संदेह प्रेम-वार्ता है। केवल झंकार उसके हृदय में रह-रहकर उठती थी-चरणों
को सिर से, हृदय से लगा लें!

 गोमती से ऐसी बात किसी ने कभी न कही थी। इसीलिए मन की आंशिक स्थिरता में उसे ख्याल हुआ कि महाराज एकांत समय में कभी कुछ स्मरण करते होंगे या नहीं?
 
करते होंगे, तब हदय को और चाहिए ही क्या? अभी नहीं मिलते? न मिलें। कभी तो मिलेंगे। तब पूछ लिया जाएगा कि क्या-क्या बात अकेले में सोचा करते थे? किस-किस बात को लेकर रात-की-रात बेनींद चली जाती थी? उस कल्पना को लेकर क्यों इतना छटपटाया करते थे? और यदि स्मरण न करते होंगे तो?
यही बड़ा भारी अनिष्ट था। जैसे-जैसे किसी कष्ट के प्रथम आक्रमण के पश्चात् समय बीतता जाता है, वैसे-वैसे उसकी पीड़ा कम होती जाती है और उसके साथ नई-नई और कदाचित् असंभव आशाओं का उदय भी होता चला जाता है।

गोमती ने आशा की कि किसी दिन मेरी भी पूजा की जाएगी। यदि न हुई, तो बिना पूजा के कदापि समर्पण न किया जाएगा। राजा देवीसिंह भूले नहीं हैं, भुलाने का बहाना मात्र किया है। किसी दिन वह हँसते या रोते हुए इस बात को स्वीकार करेंगे। यदि ऐसी घड़ी न आई, तो देवीसिंह तो क्या,संसार-भर की भी विभूति यदि मनुष्य का अवतार धारण करके समर्पण की प्राप्ति की अभ्यर्थना करती हुई सामने आएगी, तो ठुकरा दी जाएगी।
इसीलिए गोमतीने निश्चय किया कि मन को सँभालना चाहिए और हो सके, तो दृढ़ रखना चाहिए। देखें, इस संसार में कौन क्या करता है। दूसरे को बिना देखे अपनी अवस्था के परिचय का सुख-दुख पूरी तरह प्राप्त न होगा। गोमती के हृदय से पहले एक हक जब-तब उठ बैठती थी, अब अधिक उठने लगी। पालर के उस दिन के वंदनवार बार-बार स्मरण आते थे। संध्या का समय था। पालकी में महाराज नायकसिंह लौटे जा रहे थे। वंदनवारों के सामने ही पालकी जा खड़ी हुई थी। किसी ने पालकी के काठ को आकर छुआ। कुछ कहा। फिर धड़ाम से गिर पड़ा। क्या कहा था? यही न कि वे वंदनवार मेरे ही लिए सजाए गए हैं। इन्हीं वंदनवारों के पीछे किवाड़ की ओट से देखा था। कंकण बँधी हुई कलाई किवाड़ के एक भाग को पकड़े हुए थी। क्या जान-बूझकर भूल जाएँगे?
और यदि भूल गए हों, तो? राजा प्रायः भूलें किया करते हैं। देखने पर शायद याद आ -- जाए। तो क्या मैं केवल विलास की सामग्री हूँ। क्या आकृति देखकर ही याद आवेगी? पहले कभी साक्षात्कार न हुआ था। सौंदर्य और लावण्य क्या पूर्व-परिचय की त्रुटि और विस्मृति की पूर्ति करेगा? ___ तब भी बहुत कुछ आशा है। आदर हो। भक्ति हो। श्रद्धा हो। आराधना भी क्यों न
हो? उन्हें करनी पड़ेगी।

गोमती आशा, निराशा, मान और अभिमान में गोते खाने लगी।

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