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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: ६९:


दिया-बत्ती और आरती हो चुकने के बाद गोमती को ऐसा जान पड़ा जैसे कुमुद उससे कुछ बातचीत करना चाहती हो। वह भी अनुत्सुक नहीं जान पड़ती थी।
उस दिन कोठरी में कुछ गरमी मालूम होती थी, इसलिए वे दोनों मंदिर की छत पर चली गईं। कोठरियों, देवालय और दालान सबपर छतें थीं। बहुत से आदमी आराम के साथ उन पर लेट सकते थे।

रात्रि अंधकारमय थी। बेतवा के प्रवाह की चहल-पहल स्पष्ट सुनाई पड़ती थी। जब कभी कोई बड़ी मछली उछलकर एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ती थी, तब साफ सुनाई पड़ता था। बीच-बीच में किसी भ्रम से, किसी भय से टिटहरी चिल्ला पड़ती थी, वैसे सुनसान था। आकाश में बिखरे हुए तारे और कहीं-कहीं उनकी झुरमुटें-प्रकाश के एकमात्र साधन थे। केवल पानी पर कुछ टिमटिमाहट दिखलाई पड़ती थी।
वे दोनों लड़कियाँ उस तिमिरावृत्त छत पर बैठ गई। गोमती का कलेजा धक्-धक् कर रहा था।

कुमुद बोली, 'तुमने कुछ उपाय सोचा?' 'कौन-सा?' गोमती ने पूछा। कुमुद ने कहा, 'यहीं ठहरकर घटनाओं के चक्र और उनसे छुटक पड़नेवाले किसी अवसर की प्रतीक्षा में इसी स्थान पर बने रहना चाहिए अथवा उस पार उस गहन वन में, जिसकी एक रेखा भी इस समय लक्ष्य नहीं हो सकती, चल देना चाहिए।'
'आपसे बढ़कर इस विषय पर सम्मति स्थिर करनेवाला और कौन है? जहाँ चलोगी, वहीं में पैर बढ़ा दूंगी।'

'मैं समझती हूँ, हम लोग अभी यहीं बने रहें।' 'ठीक है।' 'दलीपनगर के महाराज के आने की बाट तो देखनी ही पड़ेगी।' गोमती ने कुछ नहीं कहा। .. कुमुद बोली, 'काकाजूने जो कुछ उस दिन कहा था, उससे अपने मन को इतना दुखी मत बनाओ। मैं तुमसे पहले भी कह चुकी हैं, राजा काकाजू को पहले से जानते थे। उनके उस प्रस्ताव पर सहसा कैसे स्वीकृति दे देते?'
गोमती ने कहा, 'क्या बतलाऊँ, आजकल ऐसी-ऐसी अनहोनी बातें हो रही हैं कि मेरा चित्त बिलकुल ठिकाने नहीं है। जी चाहता है, इसी दह में देहत्याग कर दें। न मालूम किस भ्रम और किस आशा के वश इस समय जीवन धारण किए हैं।'

कुमुद बोली, 'राजा तुम्हें किसी-न-किसी दिन अवश्य मिलेंगे, परंतु तुम्हें इतना मान नहीं करना चाहिए। यदि वह न आ सकें, तो तुम्हें उनके पास स्वयं पहँच जाने में संकोच न करना चाहिए।'

'ऐसा कहीं संभव है? कोई ऐसा करता है?' गोमती ने पूछा।
कुमुद ने उत्तर दिया, 'क्यों नहीं? जहाँ पुरुष आगे पैर बढ़ाता है, वहाँ स्त्री नहीं बढ़ाती, परंतु जहाँ पुरुष आगे नहीं बढ़ता, वहाँ स्त्री को अग्रसर होने में क्यों संकोच होना चाहिए?'
गोमती ने हँसकर कहा, 'ढिठाई क्षमा हो। यह तो बतलाइए कि इस पंथ की बातों को कहाँ से सीखा?'
- कुमुद ने बुरा नहीं माना। बोली, 'इन बातों को बिना सिखलाए ही जान लेना स्त्रियों का जन्मसिद्ध अधिकार है। मैं जानती हूँ, तुम्हें राज्य का लोभ नहीं है। शायद तुमने राजा को अच्छी तरह देखा भी नहीं है, फिर क्यों इतना अपनापन प्रकट करती हो?'
गोमती भी स्पष्ट बातचीत करने के लिए उस रात तैयार थी। कुमुद का मन भी स्पष्टता की ओर बढ़ रहा था।

गोमती ने कहा, 'इसका उत्तर मैं क्या दे सकती हूँ? कुछ कहती, परंतु कहते डर लगता है। आपमें देवी का अंश है।'
'रहने दो।' कुमुद जरा उत्तेजित होकर बोली, 'हममें, तुममें वह अंश वर्तमान है। जब मनुष्य की देह धारण की है, तब उसके गुण-दोष से हम लोग नहीं बच सकते। कहो, क्या कहना है?'
गोमती ने धीरे से प्रश्न किया, 'आपके हृदय में विश्व-प्रेम के सिवा और किसी वस्तु के लिए भी स्थान है या नहीं?'
कुमुद ने हँसकर उत्तर दिया, 'विश्व में सब आ गए और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि विश्व को प्यार करती हैं।'

गोमती कुछ सोचने लगी। देर तक सोचती रही। कुमुद उस सुनसान अँधरे में दृष्टि गड़ाने लगी। अंत में आँगन में कुछ खटका सुनकर बोली, 'अभी लोग सोए नहीं। फिर आँगन की ओर देखकर कहा, 'काकाजू तो सो गए हैं।'

गोमती बोली, 'वह जो आज संध्या के पहले कहीं से आए थे, आँगन में टहल रहे हैं।' 'हाँ वही।' कुमुद ने धीरे से कहा। फिर एक क्षण बाद सहसा पूछा, 'रामदयाल कई दिन से नहीं दिखलाई पड़े?'
'आपने नाम कैसे जाना?' आश्चर्य के साथ गोमती ने पूछा। फिर धीरे से बोली, 'आजकल सब कोई सब किसी के नाम जानते हैं।'

'सो बात नहीं है।' कुमुद ने मीठे स्वर में कहा, 'तुम्हीं ने तो एक बार कहा था कि वह महाराज का भृत्य है।' .. गोमती ने स्वीकार किया।

कुमुद बोली, काकाजू से न मालूम क्या राजा ने कहा था और क्या उन्होंने सुना था। इसके सिवा इस तरह की बातों से काकाजू का प्रयोजन नहीं रहता है। मेरी सम्मति है, तुम रामदयाल के द्वारा सब बातें अच्छी तरह समझ-बूझ लो। व्यर्थ ही राजा को दोषी मत ठहराओ।'
कुमुद के शब्दों और कंठ के लोच से सहानुभूति का प्रवाह-सा उमड़ रहा था। गोमती ने उसकी सचाई को अनुभव किया।

जिस बात को गोमती बड़ी देर से भीतर ही रोके हुई थी, उसने अब कहा, 'जीजी, एक बात पूछू?' 'अवश्य। 'आप कभी विवाह करोगी?'
कुमुद हँसने लगी। गोमती उत्साहित हुई। बोली, 'यदि आज इस प्रश्न का उत्तरन दें, तो फिर कभी दीजिएगा, मैं जानना चाहती हूँ। बहुत दिनों से यह बात मन में उठरही है।

'क्यों? कब से?' कुमुद ने पूछा। 'इसका कारण नहीं बतला सकती।' गोमती ने उत्तर दिया।
कमुद हँसकर बोली, 'तुम्हारे इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर इसलिए नहीं दिया जा सकता कि इस तरह के प्रसंग की कभी कल्पना ही नहीं की।'

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