ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:६८:
दलीपनगर का राज्य उन दिनों भंवर में फंसा हुआ-सा जान पड़ता था। राजा देवीसिंह का अधिकार अवश्य हो गया था, परंतु उसकी सत्ता सभी ने नहीं मानी थी। कोई-कोई खुल्लम-खुल्ला विरोध कर देते थे, बहुतों के भीतर-भीतर प्रतिकूलता की लहरें उठ रही थीं। जनार्दन शर्मा, हकीम जी और लोचनसिंह-सदृश लोग नए राजा के दृढ़ पक्षपाती थे, परंतु अनेक प्रमुख लोग विपरीत भाव का प्रदर्शन न करते हुए भी कोई ऐसा काम नहीं कर रहे थे, जिससे स्पष्ट तौर पर यह विश्वास होता कि वे देवीसिंह के सहायक हैं। माल विभाग और सेना को देवीसिंह बहुत ध्यान के साथ सुधार रहे थे, परंतु वर्षों की बिगड़ी हुई संस्थाओं का ठिकाना लगाना कुछ विलंब का काम होता है।
उधर कुंजरसिंह बिगड़े-दिल सरदारों को अपनी ओर जुटाने में दत्तचित्त था। रानियों की ओर से भी परिश्रम जारी था। जो लोग देवीसिंह के विरुद्ध थे, वे यह जानते थे कि रानियों को कालपी के फौजदार की सहायता मिल रही है। उन्हें यह भी मालूम था कि यह सहायता कुंजरसिंह के लिए अप्राप्य है, परंतु वे लोग यह विश्वास करते थे कि नवाब कुंजरसिंह के साथ पुरुष होने के कारण मैत्री की संधि ज्यादा जल्दी करेगा। इसलिए उन्होंने सहायता का वचन तो रानियों को दे दिया, परंतु मन के भीतर कुंजरसिंह के लिए फाटक बिलकल बंद नहीं किए। यह कहा कि नवाब को आपके साथ होते देखकर हम लोग आपके साथ हो जाएँगे। नहीं नहीं की। वचन भी नहीं दिया।
कुंजरसिंह पर इसका बहुत कष्टदायक प्रभाव पड़ा। वह कुछ दिन आशा और निराशा के बीच में भटकता हुआ अंत में बहुत थोड़ी-सी आशा मन में लिए हुए विराटा लौट आया। उस समय नरपति को दलीपनगर से लौटे हुए दो-एक दिन हो चुके थे।
संध्या के पूर्व ही कुंजरसिंह मंदिर में आ गया। उसे देखते ही गोमती अपनी
कोठरी में चली गई। कुमुद ने देखा. कुंजर का चेहरा बहत उतरा हआ है।
धीरे-धीरे पास जाकर जरा गंभीर भाव से कुमुद ने कहा, 'आप थके-माँदे मालूम होते
हैं। क्या दूर से आ रहे हैं?'
'हाँ, दूर से आ रहा हूँ।' कुंजरसिंह ने थके हुए स्वर में जवाब दिया, आशा नहीं
कि अब की बार विराटा छोड़ने पर फिर कभी लौटकर आऊँगा।'
दुख का कोई प्रदर्शन न करके कुमुद ने सहज कोमल स्वर में कहा, 'जब तक आप यहाँ
हैं इस दालान में डेरा डालें।'
दालान में अपना सामान रखकर कुंजरसिंह बोला, 'सुनता हूँ कुछ दिनों में विराटा का यह गढ़ और मंदिर दलीपनगर के राजा देवीसिंह के शिविर बन जाएंगे।'
'उस दिन के लिए हम लोग कदाचित् यहाँ नहीं बने रहेंगे।' कुमुद ने धीरे से कहा।
कुंजर को नरपतिसिंह का ख्याल आया। पूछा, 'काकाजू कहाँ हैं?'
'किसी काम से उस पार गए हैं। आते ही होंगे। आपको नहीं मिले? आप तो गाँव में ही होकर आए हैं?' कुमुद ने उत्तर दिया।
कुंजरसिंह ने जरा उत्तेजित स्वर में कहा, 'अब यह गाँव देवीसिंह को अपने यहाँ
बुला रहा है। मैं और देवीसिंह एक स्थान पर नहीं रह सकते। इसलिए अलग होकर आया
हूँ। यदि गाँव में ही किसी से बतबढ़ाव हो पड़ता, तो यहाँ तक दर्शनों के
निमित्त न अ पाता।"
कुमुद ने पूछा, 'राजा देवीसिंह कालपी के नवाब का दमन करने के लिए इस ओर
आवेंगे, इसमें आपको क्या आक्षेप है?'
कुंजरसिंह ने उत्साह के साथ उत्तर दिया, 'यह मेरे बड़े सौभाग्य की बात है कि कम-से-कम आपके हृदय में तो मेरे लिए थोड़ी-सी सहानुभूति है। वैसे इस अपार संसार में मेरे कितने हितू हैं?'
कुमुद ने द्वार की ओर देखकर कहा, 'अब तक काकाजू नहीं आए। न जाने कहाँ देर लगा दी है।'
कुंजर ने इस मंतव्य के विषय में कुछ न कहकर अपनी ही चर्चा जारी रखी, कालपी का नवाब मेरा शत्रु है। मैं उसके विरुद्ध सदा खड्ग उठाए रहने को तैयार हूँ। परंतु मैं यह कैसे भूल सकता हूँ कि देवीसिंह अनधिकार चेष्टा से, अन्याय से; छल-कपट से मेरी गद्दी पर जा बैठा है? देवीसिंह का प्रतिकार मेरे लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कालपी के नवाब का-'
बात काटकर कुमुद बोली, 'मैं जरा बाहर से देखती हूँ कि पिताजी आरहे हैं या
नहीं और उन्हें कितनी देर है। अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, दूर तक का आदमी
दिखलाई पड़ सकता है।'
कुमुद बारीकी से गोमती की कोठरी की ओर निगाह दौड़ती हुई दरवाजे के बाहर हो
गई।
कुंजरसिंह भी पीछे-पीछे गया, परंतु उसने यह न देख पाया कि गोमती भी अपनी कोठरी छोड़कर चुपचाप पीछे-पीछे हो ली है।।
बाहर जाकर कुमुद ने देखा कि नरपति के लौट आने का कोई लक्षण नहीं। बाहर ही ठिठक गई। पूर्व की ओर के वन की रेखा को परखने लगी। इतने में कुंजरसिंह वहाँ आ गया। हाथ जोड़कर बोला, 'मैं देवीसिंह का विरोधी हूँ, इसमें यदि आपको कोई बात खटकती हो, तो आज से संपूर्ण विरुद्ध भाव को हृदय के भीतर से धोकर बहा सकता हूँ, परंतु यदि मैं आपको यह विश्वास दिला दूं कि कपट और अन्याय से देवीसिंह मेरे राज्य का अधिकारी हुआ है तब भी आप क्या उसका साथ देने की आज्ञा देंगी? यदि ऐसी अवस्था में भी अपना हक छोड़ देने का आदेश हो, तो वह आज्ञा भी शिरोधार्य होगी।'
कुमुद ने आग्रह के साथ कहा, 'हाथ मत जोड़िए। यह अच्छा नहीं मालूम होता। आप राजकुमार हैं।'
कुंजर अधिकतम आग्रह के साथ बोला, 'राजकुमार नहीं हूँ। कम-से-कम आपके समक्ष
मैं कुछ भी नहीं हूँ, केवल सेवक हूँ, भक्त हूँ।'
कुमुद ने कहा, 'जब तक काकाजू नहीं आते, चलिए, उस चट्टान पर बैठकर आपसे
लड़ाइयों की कुछ चर्चा सुनें। हम लोगों को यहाँ संसार का और कोई वृत्तांत
सुनने को नहीं मिलता। काकाजू हाल में दलीपनगर गए थे।' । परंतु अंतिम बात के
मुंह से निकलते ही कुमुद ने अपना होंठ काट लिया। वह इस बात को कहना नहीं
चाहती थी, न मालूम कैसे निकल पड़ी।
जिस चट्टान पर बैठने की कुमुद ने इच्छा प्रकट की थी, वह पास ही थी। कुंजर
उसके नीचे की ओरवाली ढाल पर जा बैठा और कुमुद उसकी टेक पर। दोनों की पीठ
मंदिर के द्वार की ओर थी।
कुंजर ने पूछा, 'काकाजू दलीपनगर किसलिए गए थे?'
'आपको तो मालूम ही होगा।' कुमुद ने उत्तर दिया,
'मेरी इच्छा न थी कि वह जाते, परंतु यहाँ के राजा ने उन्हें हठ करके भेजा। इस समय विराटा को सहायता की बड़ी आवश्यकता है।'
'इसमें हर्ज ही क्या हुआ? कुंजर ने कहा, 'विराटा इस समय संकट में है। मुझ सरीखे लोग यदि उसकी सहायता नहीं कर सकते, तो जो उसकी सहायता कर सकते हैं, उनके पास तो निमंत्रण जाएगा ही, परंतु यदि आपकी कृपा हुई, तो देवीसिंह के बिना मैं अकेला ही बहुत कुछ करके दिखलाऊँगा।'
कुमुद ने कोई उत्तर नहीं दिया। कुंजर बोला, 'आगामी युद्ध में, ऐसा जान पड़ता है, विराटा का राजा देवीसिंह का साथ देगा। ऐसी अवस्था में मेरा यहाँ आना अब असंभव होगा। क्या विराटा का राजा किसी प्रकार मेरी ओर हो सकता है?'
कुमुद के उत्तर देने से पहले तुरंत कुंजर ने कहा, 'यह असंभव है। सबदलसिंह जानते हैं कि मैं कालपी की सेना का मुकाबला करने में उनकी अच्छी सहायता नहीं कर सकता हूँ। वह क्यों मेरा साथ देने लगे? और फिर उन्होंने स्वयं देवीसिंह को बुलाया है।'
निःश्वास परित्याग कर कुंजरसिंह बोला, 'अब देवीसिंह के राज्य की अखंडता में
कोई संदेह नहीं, अर्थात् यदि वह कालपी के नवाब को पराजित कर सका।'
फिर तुरंत आतुरता के साथ उसने कुमुद के पैरों की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, 'यदि
मैं इन चरणों की रक्षा में अपना सब कछ विसर्जन कर सक. इसी सामनेवाली धार में
इस भयंकर दह में यदि किसी दिन मुझे वह प्रयत्न करते हुए विलीन हो जाना पड़े,
तो यही समझेगा कि दलीपनगर का क्या सारे संसार का राज्य मिल गया। क्या मझे
इतने की-केवल इतने-भर की-आज्ञा मिल जाएगी? दलीपनगर का कोई भी राज्य करे,
संसार किसी के भी अधिकार में चला जाए, परंतु यदि मुझे इन चरणों में रहने दिया
जाए, तो मुझे सब कुछ मिल गया।'
कुमुद चुप थी। बेतवा के पूर्वी किनारे को जलराशि छूती हुई चली जा रही थी।
अस्ताचलगामी सूर्य की कोमल-सुवर्ण रश्मियाँ बेतवा की धार पर उछल-उछलकर हँस-सी
रही थीं। उस पार के वन-वृक्षों की चोटियों के सिरों ने दूरवर्ती पर्वत की
उपत्यका तक श्यामलता की एक समरस्थली-सी बना दी थी। उस संदर सनसान में
कुंजरसिंह के शब्द बज-से गए।
कुमुद ने कहा, 'हम लोगों का कुछ ठीक नहीं, कब तक यहाँ रहें, कब यहाँ से चले जाएँ और कहाँ जा रुकें।'
'इसमें मेरे लिए कोई बाधा नहीं।' कुंजरसिंह उमंग के साथ बोला, 'आप यहाँ नरहें, यह मेरी पहली प्रार्थना है। दूसरी प्रार्थना यह है कि आप जहाँ भी जाएं, मुझे साथ रहने की अनुमति दें। बुरा समय आ रहा है। यदि साथ में एक सैनिक रहेगा, तो हानि न होगी।'
कुमुद ने बहती हुई धार की ओर देखते हुए कहा,'दुर्गा के सेवकों को कभी कष्ट नहीं हो सकता। जब कभी मनुष्य को दुख होता है, अपने ही भ्रम के कारण होता है। यदि मन में भ्रम न रहे, तो उसे किसी का भय न रहे।'
'धर्म का यह ऊँचा तत्त्व किसे मान्य न होगा?' कुंजरसिंह ने कहा, 'फिर भी एक दिन दृढ़, अत्यंत दृढ़ भक्त की यह विनती तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी।'
कुमुद चुप रही। कुंजरसिंह किसी भाव के प्रवाह में बहता हुआ-सा बोला, 'यदि
आपने निषेध किया, तो मैं आज्ञा का उल्लंघन करूँगा, यदि आपने अनुमति न दी तो
मैं अपने हठ पर अटल रहँगा-मैं छाया की तरह फिरूँगा। पक्षियों की तरह
मड़राऊँगा। चट्टानों की तली में, पेड़ों के नीचे, खोहों में, पानी पर,
किसी-न-किसी प्रकार बना रहँगा। आपको अकुटी-भंग का अवसर न दूँगा, परंतु निकट
बना रहूँगा। साथ रखूगा केवल अपना खड्ग। समय आने पर दुर्गा के चरणों में अपना
मस्तक अर्पण कर दूंगा।'
'राजकुमार!' काँपते हुए गले से कुमुद ने कहा।
'आज्ञा?'
पुलकित होकर कुंजर बोला। कुमुद ने उसी स्वर में कहा, 'आपको इतना बड़ा त्याग नहीं करना चाहिए।'
'कितना बड़ा? कौन-सा?'
कुंजर धारा-प्रवाह के साथ कहता चला गया, 'नवाब से लड़ना धर्म है। धर्म की रक्षा करना कर्तव्य है। कर्तव्यपालन करना धर्म है। आपकी आजा का पालन करना ही धर्म, कर्तव्य और सर्वस्व है। यदि इन चरणों की कृपा बनी रहे, तो मैं संसार-भर की एकत्र सामर्थ्य को तुच्छ तण के समान समझें, मुझे कुछ न मिले, संसार-भर मुझे तिरस्कृत, वहिष्कृत कर दे, परंतु यदि चरणों की कृपा बनी रहे, तो, मैं समझू कि देवीसिंह मेरा चाकर है, नवाब मेरा गुलाम है और संसार-भर मेरी प्रजा।
कुमुद ने मुसकराकर, परंतु दृढ़ता के साथ इस प्रवाह का निवारण करते हुए कहा, '
'धीरे से, धीरे से। इतने जोश की बात करने की आवश्यकता नहीं।'
कुंजर धीरे से परंतु उसी जोश के साथ बोला, 'तब अनुमति दीजिए, आज वरदान देना
होगा।'
कुमुद ने लंबी साँस ली। कुंजरसिंह ने कहा, 'आपका शायद यह विचार है कि मैं
नीचहूँ और नीच को वरदान नहीं दिया जा सकता। परंतु मैं कहता हूँ कि वसंत छोटे
और बड़े सब प्रकार के वृक्षों को हरियाली देता है, धराशायी घास के तिनकों में
भी नन्हे-नन्हे सुंदर फूल लगा देता है
और पवन किसी स्थान को भी अपनी कृपा से वंचित नहीं रखता।'
कुमुद बोली, 'आप यदि देवीसिंह से लड़ेंगे, तो कालपी के नवाब का पक्ष सबल हो
जाएगा।'
'मैं देवीसिंह से नहीं लडूंगा।' 'क्यों? 'आपकी इच्छा नहीं जान पड़ती। मैं
देवीसिंह से संधि कर लूँगा। अपना सारा हक त्याग दूंगा।'
'मैं यह नहीं चाहती, और न यह कहती ही हूँ।'
इसके बाद कुछ पल तक सन्नाटा रहा। कुंजर ने कहा, 'वास्तव में अब मेरे जी में
कोई बड़ी महत्त्वाकांक्षा शेष नहीं है। यदि कोई परम अभिलाषा है, तोचरणों की
सेवा की है।'
यह कहकर कुंजरसिंह ने कुमुद के पैरों को छू लिया। कुमुद ने पीछे पैर हटाने
चाहे, परंतु न हटा सकी। बोली, 'आपने क्या किया?'
कुंजरसिंह ने कहा, 'आप मेरी पूज्य हैं। मेरी संपूर्ण श्रद्धा की केंद्र हैं।
मैंने कोई अनोखा कार्य नहीं किया।'
कुमुद काँपती हुई आवाज में बोली, 'आप ऐसा फिर कभी न करना। मैं कोई अवतार
नहीं हूँ। साधारण स्त्री हूँ। हाँ, दुर्गा माता की सच्चे जी से पूजा किया
करती हूँ। आप मुझे अवतार न समझें।'
'और आप मुझे, कुंजर ने कहा, 'नीच व्यक्ति न समझें।'
तुरंत कुमुद बोली, 'आप क्यों यह बार-बार कहते हैं? मैं सब बातें सुन-समझकर ही
आपको राजकुमार कहकर संबोधित करती हूँ और करती रहूँगी। अर्थात् जब कभी आप हम
लोगों को मिल जाया करेंगे।'
बड़ी दृढ़ता के साथ कुंजर ने कहा, 'मैंने आज से देवीसिंह का विरोध छोडा।
चरणों में ही सदा रहने का निश्चय किया।'
'न-न।' कुमुद जल्दी से बोली, 'इस तरह का प्रण मत करिए। आप देवीसिंह का सामना
अवश्य करें। अपने हक के लिए लड़ें, परंतु कालपी के नवाब से जब वह निबट लें।'
कुंजर ने कहा, 'इसके सोचने के लिए अभी बहुत समय है, परंतु यह बात तय है कि
चरणों में से हटाया नहीं जाऊँगा।'
कुमुद बोली, 'यह स्थान कैसा सुंदर है। टापू के दोनों ओर से बेतवा की धार चली
जा रही है। लंबी, चौड़ी, ढालू और समस्थल चट्टानों और पठारियों से जब पानी
टकराता है, तब किसी बाजे के बजने-सा कोलाहल होता है। चतुर्दिक वन-बीहड़ में
ऐसी निस्पंदता छाई हुई है कि विश्वास होता है कि पर्वत, वन और नदी-वेष्ठित इस
टापूको दुर्गा ने विशेष रूप से चाहा है। मेरी इच्छा नहीं है कि यह स्थान
छोड़े, परंतु कदाचित् विवश होकर छोड़ना पड़े।' _ 'यहाँ बने रहने में कोई हानि
नहीं।' कुंजर ने कहा, 'देवीसिंह इस टापू में अपनी छावनी डालकर अपने को कैद
नहीं करावेगा। उसकी छावनी मुसावली की तरफ कहीं पड़ेगी। यदि वह आसानी से यहाँ
तक आ पाया, तो मैं यहाँ किसी चट्टान की छाया में खड्ग सँभाले हुए पड़ा
रहूँगा।'
कुमुद बोली, 'अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। कदाचित् अटक पड़ी तो सामनेवाले वन
में चली जाऊँगी।'
कुंजरसिंह हाथ जोड़कर कुछ कहना चाहता था कि कुमुद ने निवारण करके कहा, 'फिर
वही अत्याचार! आप यदि हम लोगों के निकट रहना चाहें, तो यह सब कभी मत करना।'
कुंजरसिंह की नसों में बिजली-सी दौड़ गई। उसने प्रमत्त नेत्रों से कुमुद की
ओर देखा। आँख मिलते ही कुमुद का चेहरा लाल हो गया। परंतु दृष्टि बचाकर बोली,
'काकाजू आही रहे होंगे। संध्या हो रही है। दियाबत्ती और आरती का प्रबंध करना
है। मैं जाती हूँ।'
कुमुद चट्टान की टेक पर खड़ी हो गई। ऐसा जान पड़ा, मानो कमलों का समूह
उपस्थित हो गया हो-जैसे प्रकाश-पुंज खड़ा कर दिया गया हो। पैरों के पैजनों पर
सूर्य की स्वर्ण-रेखाएँ फिसल रही थीं। पीली धोती मंद पवन के धीमे झकोरे से
दुर्गा की पताका की तरह धीरे-धीरे लहरा रही थी। उन्नत भाल मोतियों की तरह
भासमान था। बड़े-बड़े काले नेत्रों की बरौनियाँ भौंहों के पास पहुँच गई थीं।
आँखों से झरती हुई प्रभा ललाट पर से चढ़ती हुई उस निर्जन स्थान को आलोकित-सा
करने लगी। आधे खुले हुए सिर पर से स्वर्ण को लजानेवाली बालों की एक लट गरदन
के पास जरा चंचल हो रही थी। उस विस्तृत विशाल वन और नदी की उस ऊँची चट्टान के
सिरे पर खड़ी हुई कुमुद को देखकर कुंजर का रोम-रोम कुछ कहने के लिए उत्सुक
हुआ।
वे चट्टान और पठारियाँ, वह दुर्गम और नीली धारवाली बेतवा, वह शांत भयावना
सुनसान, वह हृदय को चंचल कर देनेवाली एकांतता और चट्टान की टेक पर खड़ी हुई
अतुल सौंदर्य की वह सरल मूर्ति!
कुंजर ने मन से कहा, 'अवश्य देवी है। विश्व को सुंदर और प्रेममय बनानेवाली
दुर्गा।
कुंजर को अपनी ओर आँख गड़ाकर ताकते हुए देखकर कुमुद के चेहरे पर और गहरी लाली
छा गई। उस समय सूर्य की कुछ किरणें ही बाकी रह गई थीं। वे उस लालिमा को और भी
उद्दीप्त कर गईं।
कुंजर को ऐसा आभास हुआ, मानो संपूर्ण विश्व के पुष्पों ने अपनी ताजगी उस लालिमा को दे दी हो। हृदय उमड़ पड़ा। विश्व-भर को अपने में भर लेने के लिए लालायित हो उठा और किसी अपरिचित, किसी निस्सीम, किसी अनिश्चित बलिदान के लिए दृढ़ता अनुभव करने लगा।
कुमुद ने धीरे से कहा, 'नाव में बैठे हुए काकाजू भी आरहे हैं। मैंने कहा था
न कि वह आते ही होंगे।' परंतु कुमुद ने कुंजर की ओर देखा नहीं।
कुंजर उन्मत्त-सा होकर बोला, 'एक बार, केवल एक बार चरणों को अपने मस्तक से
छुला लेने दीजिए और हृदय से-'
कुमुद के मुखमंडल पर फि गहरी लाली दौड़ आई। भृकुटि-भंग करने की उसने चेष्टा
की, परंतु विफल हुई। मुस्कराहट ने होंठों को बरबस पकड़ लिया। बोली, 'यदि आपने
यह प्रयास किया तो मैं इसी टोर से कूद पडूंगी, फिर चाहे चोट भले ही लगजाए।'
'नहीं, मैंने इस संकल्प का त्याग कर दिया। आप इसी ओर से उतर आवें।'
कुमुद बिना कोई शब्द किए धीरे से उतर आई। नीचे आते ही उसने देखा, गोमती
चट्टान के पास से तेजी से भागती हुई मंदिर में घुस गई। कुंजर ने नहीं देखा।
दरवाजे की ओर जाती हुई कुमुद से धीरे से बोला, 'मैं अपने मंदिर में अपनी देवी
की आरती करूँगा।'
कुमुद चली गई।
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