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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:६७:

नरपति दलीपनगर से लौट आया। विराटा के राजा को उसने यह संतोषजनक समाचार सुनाया कि बहुत शीघ्र राजा देवीसिंह की सेना सहायता के लिए आएगी अर्थात् आवश्यकता पड़ते ही।
परंतु जिस समय नरपति अपने घर-विराटा के द्वीपवाले मंदिर में-आया, चेहरे पर उदासी थी।
रामदयाल उस समय वहाँ न था। कुमुद और गोमती थीं। मंदिर के दालान में बैठकर नरपति ने कुमुद से कहा, 'मंदिर की रक्षा तो हो जाएगी।' कुमुद ने लापरवाही के साथ कहा, 'इसमें मुझे कभी संदेह नहीं रहा है। दुर्गा रक्षा करेंगी।'

'राजा देवीसिंह ने भी वचन दिया है।' प्रतिवाद न करते हुए नरपति बोला। गोमती का मुख खिल उठा। गौरव के प्रकाश से आँखें चंचल हो उठीं। गोमती ने कुमुद से धीरे से कहा, 'तब यहाँ से कहीं और जाने की अटक न पड़ेगी।'

कुमुद निश्चित से भाव से बोलीं, 'अटक क्यों पड़ने लगी? और यदि पड़ी भी, तो यह नदी और अग्रवर्ती वन सब दुर्गा के हैं।'

गोमती को बुरा लगा, नरपति से सरलता के साथ पूछा, 'दलीपनगर में तो बड़ी भारी सेना होगी काकाजू?'

'हाँ है।' नरपति ने उत्तर दिया, 'बड़ा नगर, बड़े लोग और बड़ी बातें।'
गोमती आँख के एक कोने से देखने लगी। कुमुद ने कहा, 'राजा ने गोमती के विषय में कुछ पूछा था?'

गोमती सिकुड़कर कुमुद के पीछे बैठ गई। नरपति ने उत्तर दिया, 'राजा ने नहीं पूछा था। मैंने स्वयं चर्चा उठाई थी।'

कुमुद ने कहा, 'आपको ज्यादा कहना पड़ा था या उन्हें सब बातों का तुरंत स्मरण हो आया था?
नरपति ने कुछ उत्तर नहीं दिया। कुछ सोचने लगा। गोमती का हृदय धड़कने लगा। कुमुद बोली, 'राज्य के कार्यों में उलझे रहने के कारण कदाचित् कुछ देर में स्मरण हुआ होगा। राजा ने क्या कहलवा भेजा है?'

नरपति राजपूत के कर्तव्यों और कैंड़ों से अपरिचित था, उत्तर दिया, 'मुझे तो क्रोध आ गया था। पराई जगह होने के कारण संकोचवश कुछ नहीं कह सका, परंतु कलेजा
राजा की बातों से धड़कने लगा था। वह सब जाने दो। इस समय तो हम लोगों को इतने पर ही संतोष कर लेना चाहिए कि राजा इस स्थान की रक्षा करने के लिए एक-न-एक दिन-और शीघ्र ही अवश्य आवेंगे।'

परंतु कुमुद ने पूरी बात को उघाड़ने का निश्चय कर लिया था, इसलिए बोली, 'क्या राजा होते ही वह यह भूल गए कि उस दिन पालर में उनकी बरात हुई थी, वंदनवार सजाए गए थे, स्त्रियों ने कलश रखे थे, मंडप बनाया गया था और गोमती के शरीर पर तेल चढ़ाया गया था? आपने क्या उन्हें स्मरण दिलाया?'

'मैंने इन सब बातों की याद दिलाई थी।' नरपति ने जवाब दिया, परंतु उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं की, जिससे मन में उमंग उत्पन्न होती। वह तो सब कुछ भूल-से गए हैं।

गोमती पसीने में तर हो गई। सिर में चक्कर-सा आने लगा। 'उन्होंने क्या कहा था?' कुमुद ने पूछा। नरपति ने उत्तर दिया, 'राज-काज की उलझनों में स्मरण नहीं रह सकता। यदि वह आना चाहे और वही हो जिसके साथ पालर में संबंध होनेवाला था, तो कोई रोक-टोक न की जाएगी। मैं स्वयं न आ सकूँगा। सेना लेकर जब विराटा की रक्षा के लिए आऊँगा, तब जैसा कुछ उचित समझा जाएगा, करूँगा।'

नरपति के मन पर राजा की तत्संबंधी वार्ता सुनकर जो भाव अंकित हुआ, उसे उसने अपने शब्दों में राजा की भाषा का रूप देकर प्रकट किया।
कुमुद बोली, 'वह इतनी जल्दी भूल गए! राजपद और राजमद क्या मनुष्य को सब कुछ भूल जाने के लिए विवश कर देते हैं! जैसे क्षत्रिय वह हैं, उनसे कम कुलीन क्या यह दीन क्षत्रिय-बालिका है?'
'वह तो कहते थे, नरपति ने तुरंत उत्तर दिया, 'कि राजाओं का संबंध राजाओं में होता है।'

गोमती चीख उठी। चीख मारकर कुमुद से लिपट गई। नरपति ने देखा, पसीने में डूब-सी गई और शायद अचेत हो गई है। पंखा ढूँढ़ने के लिए अपनी कोठरी में चला गया।
कुमुद ने गोमती को धीरे से अपनी गोद की ओर खींचा। वह अचेत न थी, परंतु उसके मन और शरीर को भारी कष्ट हो रहा था।

कुमुद का जी पिघल उठा। बोली, 'गोमती, इतनी-सी बात से ऐसी घबरा गई! इतनी अधीर मत होओ। न मालूम महाराज ने क्या कहा है और काकाजूने क्या समझा है। वह सेना लेकर थोड़े दिनों में यहाँ आ ही रहे हैं। यहाँ सब बात यथावत् प्रकट हो जाएगी। मुझे आशा है, राजा तुम्हें अपनाएँगे।'

गोमती कछ कहना चाहती थी परंतु उसका गला बिलकुल सूख गया था, इसलिए एक शब्द भी मुँह से न निकला।
इतने में नरपति पंखा लेकर आ गया। कुमुद ने कहा, 'आप भोजन करें, मैं तब तक हवा करूंगी।'

'न, यह न होगा।' नरपति बोला, 'देवी इस लड़की को पंखा झलेंगी! मैं झले देता हूँ।' कुमुद ने कहा, 'अकेले में उससे कुछ कहना भी है।' पंखा वहीं रखकर नरपति कोठरी में चला गया।
पंखा झलते हुए कुमुद बोली, 'शांति और धैर्य के साथ उनके ससैन्य आने की बाट जोहनी ही पड़ेगी। वह मंदिर में अवश्य आवेंगे। मैं यहाँ पर रहूँ या कहीं चली जाऊँ, तुम बनी रहना। वह तुम्हें यहाँ अवश्य मिलेंगे। निराश मत होओ।' 


पंखे की हवा से शरीर की भड़क शांत हुई। कुमुद को पंखा झलते देखकर गोमती को बोलने का विशेष प्रयत्न करना पड़ा।

सिसकते हुए धीरे से बोली, 'मुझे यहाँ छोड़कर कहीं न जा सकोगी। मेरे मन में अब और कोई विशेष इच्छा नहीं है। जब तक प्राण न जाएँ, तब तक चरणों में ही रखना।'

कुमुद की पूर्व रुखाई तो पहले ही चली गई थी, अब उसके मन में दया उमड़ आई। कहा, 'जब तक राजा तुम्हें स्वयं लेने नहीं आते, तब तक तुम्हें वहाँ अपने आप जाने के लिए कोई न कहेगा। परंतु तुम्हें यह न सोचना चाहिए कि उन्होंने किसी विशेष निठुराई के वश होकर इस तरह की बात कही है।'

गोमती चुप रही।

कुमुद एक क्षण सोचकर बोली, 'यदि हम लोगों को यहाँ से किसी दूसरे स्थान पर जाना पड़ा, तो तुम अवश्य हमारे साथ रहना। हमें आशा है, राजा ससैन्य आएँगे, परंतु यह आशा बिलकुल नहीं है कि उनके आने तक हम लोग यहाँ ठहरे रहेंगे। उनके आने की खबर मिलने के पहले नवाब अपनी सेना इस स्थान पर भेजने की चेष्टा करेगा। हम लोगों को शायद बहुत शीघ्र ही यह स्थान छोड़ना पड़ेगा।' गोमती ने साथ ही रहने का दृढ़ निश्चय प्रकट किया।

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