ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
रात हो गई। खूब अंधकार छा गया। जगह-जगह लोग आक्रमण रोकने की योजना में लग गए। गाँव में खूब हल्ला-गुल्ला होने लगा, मानो असंख्य सैनिककिसी स्थान पर आक्रमण कर रहे हों। कुंजरसिंह नरपति के मकान के बाहर वेश बदले, शस्त्र-सुसज्जित टहल रहा था। पहरेवालों की टोलियाँ इधर-उधर से आकर, शोर करती हुई, इस मकान के सामने कुछ क्षण के लिए खड़ी होकर 'अंबा की जय, दुर्गा मैया की जय' कहती हुई गजर जाती थीं, परंतु कुंजर चुपचाप टहल रहा था। केवल कभी-कभी कहीं दूर की आहट लेने के लिए एक-आध बारठिठक जाता था। नरपति के किवाड़ बंद थे, भीतर से सुगंधित द्रव्यों के होम की खुशबू आ रही थी।
थोड़ी देर में एक मनुष्य ने आकर नरपतिसिंह के किवाड़ खटखटाए। कुंजरसिंह ने
कदाचित् उसे पहचान लिया। भाला साधा और स्वर बदलकर पूछा, 'कौन?'
'महाराज का आदमी रामदयाल।' उस व्यक्ति ने दंभ के साथ उत्तर दिया। कुंजर ने
कहा, 'रामदयाल, इतनी रात तुम यहाँ कैसे?'
बदले हुए स्वर के कारण रामदयाल ने न ताड़ पाया। समझा, दलीपनगर का कोई सैनिक है। बोला, 'महाराज यहाँ की रक्षा के निमित्त बड़े चिंतित हो रहे हैं। सारी मुसलमानी सेना छिपे-छिपे यहीं आ रही है। अबेर-सबेर आक्रमण होगा, इसलिए मैं देवी को राजमहल में सुरक्षित रखने के लिए लिवाने आया हूँ।' रामदयाल ने फिर कुंडी खटखटाई। कुंजर भाला टेककर खड़ा हो गया और आकाश की ओर देखने लगा।
जबकई बार कुंडी खटखटाने पर भी भीतर से कोई उत्तर न मिला,तब रामदयाल ने कुंजर से पूछा, 'आप कौन हैं? बतला सकते हैं-नरपतिसिंह कहाँ हैं और देवीजी कहाँ हैं?
'मैं हूँ कुंजरसिंह। नरपतिसिंह भीतर हैं।'
रामदयाल सकपका गया, परंतु शीघ्र संभलकर बोला, 'राजा, यहाँ कैसे?' 'देवी की
रक्षा के लिए।' 'लो, यह बहुत अच्छा, परंतु क्या राजा अकेले ही रक्षा करने के
लिए डटे रहेंगे।' 'हाँ, उसके लिए मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं पड़ेगी।'
इतने समय में रामदयाल ने अपनी स्वभाव सिद्ध स्थिरता पुनः प्राप्त कर ली।
बोला, 'महाराज की आज्ञा है कि देवी राजमहल में आज की रात सुरक्षित रहें।'
वैसे ही भाले के बल अपने शरीर को थामे हुए कुंजर ने कहा, 'रामदयाल, देवी की
रक्षा उसके मंदिर में ही सबसे अच्छी होती है। तम जाओ। मेरे साथ तर्क मत करो।'
दासीपुत्र होने पर भी कुंजर राजकुमार था और रामदयाल चाकर होने पर दलीपनगर के
राजा का विश्वासपात्र। इसलिए कोई एक-दूसरे से विचलित न हुआ।
रामदयाल बोला, 'मैंने देवी की रक्षा का बीड़ा उठाया है।' 'मैंने तुमसे पहले।'
'उन्हें राजमहल में जाना होगा। महाराज की आज्ञा है। ऐसे रक्षा न हो सकेगी
राजा।'
'कभी नहीं।' 'तो महाराज से जाकर यही कह दूँगा राजा?' 'कह दो।' 'मेरे प्राण
बड़े संकट में हैं। उधर आज्ञा का पालन नहीं होता, तो सिर से हाथ धोने
पड़ेंगे, इधर आपको अप्रसन्न करता हूँ तो प्राणों पर आ बनेगी।'
कुंजरसिंह भभक उठा। बोला, 'जा यहाँ से नीच। मैं तेरी प्रकृति से खूब परिचित
हूँ। यदि यहाँ कोई और होता, तो शायद तेरी चाल चल जाती।' रामदयाल चला गया और
थोड़ा नमक-मिर्च लगाकर सारी बात राजा से कह सुनाई।
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