ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
संध्या होने के पहले गाँव में खबर फैल गई कि चार-पाँच कोस पर मुसलमानों की एक बड़ी सेना ठहरी हुई है और वह शीघ्र ही आक्रमण करेगी, गाँव में आग लगाएगी और देवी के अवतार का जबरदस्ती अपहरण करेगी।
इस प्रकार की मार-काट उन दिनों प्रायः हो जाया करती थी। इसलिए आश्चर्य तो
किसी को नहीं हुआ, परंतु भय सभी को। दलीपनगर के राजा के साथ भी बहुत से सैनिक
थे, इसलिए गाँववालों को अपनी रक्षा का बहुत भरोसा था। जो लोग हाथ-पाँव चलाने
लायक थे, वे हथियारबंद होकर इधर-उधर टुकड़ियों में जमा हो गए। परंतु गाँव में
जनसंख्या अधिक न थी, इसलिए दलीपनगर की सेना की तैयारी की प्रतीक्षा चिता के
साथ करने लगे।
राजाने अभी तक कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया था। समाचार उन्हें मिल गया था।
राजा का रामदयाल नामक एक विश्वस्त निजी नौकर था। उसके साथ थोड़ी देर बातचीत
होने के बाद राजा ने पूछा, 'तूने उस लड़की को देखा है?'
'हाँ महाराज!' 'बहुत खूबसूरत है?' 'ऐसा रूप कभी देखा-सुना नहीं गया।' 'कुछ कर
सकता है?' 'कोई कठिन बात नहीं है।' 'राजमहल की दासियों में डाल ले।' 'जब
आज्ञा होगी, तभी।' 'आज रात को।'
- 'बहुत अच्छा, परंतु-'
'परंतु क्या बे?'
राजा की चढ़ी हुई आँखों से नौकर घबराया नहीं। बोला, 'महाराज, कहीं से
मुसलमानों की फौज आई है।'
'मार डाल सबों को, परंतु उस लड़की को लिवा ला।' राजा ने कहा।
रामदयाल अनसुनी-सी करके बोला, 'महाराज, लोचनसिंह दाऊजू ने उस फौज के एक जवान
को मार डाला है और कई एक को घायल कर दिया है। उन लोगों ने भी गाँव के कई आदमी
मार डाले हैं और अपने भी कई सिपाहियों को घायल कर गए हैं।'
राजा ने उपेक्षा के साथ कहा, 'इस लंबी दास्तान को शीघ्र समाप्त कर। बोल,
उसको किस समय लिवा लाएगा।'
उत्तर न देते हुए रामदयाल बोला, 'मुसलमानी सेना पास ही दो-तीन कोस फासले पर
ठहरी हुई है। तुरही-पर-तुरही बज रही है। गाँव पर हल्ला बोला जानेवाला है।'
'यह तुरही हमारी फौज की थी। तू झठ बोलता है।' 'रात को वे लोग गाँव में आग लगा
देंगे और उस लड़की को उठा ले जाएंगे।'
राजा रामदयाल के इस अंतिम कथन को सुन उठ बैठे। आँखें नाचने-सी लगीं। कहा,
'लोचनसिंह को इसी समय बुला ला।'
कुछ क्षण पश्चात् लोचनसिंह आ गया। जुहार करके बैठा ही था कि राजा ने तमककर
पूछा, 'तुमने आज एक आदमी मार डाला है?'
उसने शांतिपूर्वक जवाब दिया, 'हाँ महाराज, एक ही मार पाया, बाकी भाग गए। बनिए
को भी नहीं मार पाया, वह मुझे चोर बताता था।'
'यह कहाँ की सेना है?' 'कहीं की हो महाराज! मुझे तो उनमें से कुछ को मारना
था, सो एक को देवी की भेंट कर दिया।'
'देवी! देवी! तुम लोगों ने एक छोकरी को मुफ्त देवी बना रखा है। मैं देखूगा, कैसी देवी है।'
'महाराज देखें या न देखें परंतु उसकी महिमा देवी से कम नहीं। उसके लिए आज
रात को फिर तलवार चलाऊँगा।'
'कैसे? क्यों?' 'महाराज! ऐसे कि मुसलमान लोग उसको आज लेकर भाग जानेवाले हैं।
लोचनसिंह उन्हें ऐसा करने से रोकेगा। बस।'
'उसे हमारे डेरे पर भिजवा दो लोचनसिंह. हम उसकी रक्षा करेंगे।' लोचनसिंह ने
उपेक्षा के साथ कहा, 'राजमहल की रक्षा का भार दूसरों के सुपुर्द कर दिया गया
है। कुँवर और हम उस देवी की रक्षा करेंगे।'
राजा क्रोध से थर्रा गए। बोले, 'रामदयाल, जनार्दन शर्मा को लिवा ला।' रामदयाल के जाने पर लोचनसिंह ने कहा, 'महाराज! एक विनती है।' भर्राए हुए गले से राजा ने पूछा, 'क्या?' 'विनती करने-भर का बस मेरा है।' लोचनसिंह ने उत्तर दिया, 'फिर मर्जी महाराज की। वह लड़की अवश्य देवी या किसी का अवतार है। उसका बाप बज लोभी और मूर्ख है। परंतु बालिका शुद्ध, सरल और भोली-भाली है। हकीमजी से महाराज पूछ लें कि अब महाराज को ऐसी बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। महाराज के रोग को देखकर ही कभी-कभी मुझे डर लग जाता है।'
राजा विष का-सा चूंट पीकर चुप रहे। इतने में जनार्दन शर्मा आ गया। राजा ने
जरा नरम स्वर में कहा, 'शर्माजी, मेरी दो आज्ञाएँ हैं।'
'महाराज!' 'एक तो यह कि जो मुसलमान सेना यहाँ आई है, उसे किसी प्रकार यहाँ से
हटा दो।' 'महाराज!' जनार्दन बोला और दूसरी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा।
'दूसरी यह कि लोचनसिंह को इस समय मरवाकर झील में फिकवा दो।' राजा ने
क्षोभातुर कंठ से कहा।
जनार्दन दोनों आज्ञाओं पर सन्नाटे में आकर एक बार लोचनसिंह और दूसरी बार राजा का मुँह निहारकर माथा खुजाने लगा।
लोचनसिंह ने अपनी तलवार राजा के हाथ में देते हुए कहा, 'मुझे मारने की यहाँ
किसी की सामर्थ्य नहीं। जब तक यह मेरी कमर में रहेगी, तब तक आपकी इस आज्ञा के
पालन किए जाने में सहस्रों बाधाएँ खड़ी होंगी। आप ही इससे मेरी गरदन उतार
दीजिए।'
राजा तलवार को नीचे पटककर थके हुए स्वर में बोले, 'तुम बहुत बातूनी हो,
लोचन।'
'जैसे था, वैसे ही हूँ और वैसा ही रहूँगा भी। मरवा डालिए महाराज, परंतु अपने
शरीर को अब और मत बिगाड़िए।' लोचनसिंह ने हाथ बाँधकर कहा।
राजा बोले, 'उठा लो तलवार लोचनसिंह, तमको मारकर हाथ गंदा नहीं करूंगा।' तलवार
कमर में बाँधकर लोचनसिंह ने पूछा, 'महाराज ने मुझे किसलिए बुलाया था?'
'जाओ, जाओ।' राजा ने फिर गरम होकर कहा, 'तुम्हारी हमको जरूरत नहीं है।'
'है महाराज।' लोचनसिंह ने सोचते-सोचते कहा, 'उस देवी के घर का पहरा न लगाकर
मैं आज रात राजमहल का ही पहरा दूंगा।'
राजा ने जनार्दन से पूछा, 'यह सेना कहाँ की है?' 'कालपी की अन्नदाता।'
जनार्दन ने उत्तर दिया। 'भगा दो, मार दो, आग लगा दो, कोई हो, कहीं की हो।'
राजा ने हाथ-पैर फेंककर आज्ञा दी।
'अन्नदाता-!' 'बको मत जनार्दन, कालपी पर अब हमारा फिर राज्य होगा।'
'होगा अन्नदाता, परंतु अभी कुछ विलंब है। दिल्ली गड़बड़ के तूफान में पड़ी
हुई है किंतु तूफान अभी काफी जोर पर नहीं है। कालपी के फौजदार अलीमर्दान की
सेना मालवे में मराठों से हारकर लौटी है, परंतु अब भी इतनी अधिक है कि
मुठभेड़ करना ठीक न होगा। दूसरे राज्यों का रुख हमसे कटा हुआ-सा है।'
'वह सब षड्यंत्र, वही पुराना प्रपंच।' राजा ने तकिये के सहारे लेटकर धीरे-धीरे कहा, 'तुम्हारे छली-कपटी स्वभाव से तो हमारे लोचनसिंह की बेलाग बात अच्छी।' लोचनसिंह तुरंत बोला, 'नहीं महाराज, शर्माजी बुद्धिमान आदमी हैं। मैं तो कोरा सैनिक हूँ।'
राजा फिर बैठ गए। बोले, 'अच्छा, तुम सब जाओ। जिसको जो देख पड़े सो करो। मैं
सवेरे कालपी की सेना को अकेले मार भगाऊँगा। मैं निजाम-इजाम को कुछ नहीं
समझता। कालपी बुदेलों की है।'
जनार्दन और लोचनसिंह चले गए। परंतु उन लोगों ने सिवाय रक्षात्मक यत्नों के
किसी आक्रमणमूलक उपाय का प्रयोग नहीं किया। जनार्दन ने राजा के डेरे का अच्छा
प्रबंध कर दिया। लोचनसिंह कई सरदारों के साथ पहरे पर स्वयं डट गया।
राजा ने रामदयाल को पास बुलाकर धीरे से कहा, 'आज ही, थोड़ी देर में अभी।' 'जो
आज्ञा।' कहकर रामदयाल चला गया।
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