ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:३८:
लोचनसिंह से खबर पाकर राजा देवीसिंह ने रानी को रामदयाल समेत दलीपनगर बुलवा लिया और लोचनसिंह को सिंहगढ़-रक्षा के लिए वहीं रहने दिया।
देवीसिंह अपनी सेना को एक सरदार की मातहती में छोड़कर दलीपनगर आ गया। उस दिन जनार्दन के साथ बातचीत हुई।
राजा ने कहा, 'लोवनसिंह ने रानी के साथ बहुत कड़ाई का बरताव किया है, परंतु इसमें दोष मेरा है। मुझे लिखा-पढ़ी कराने का काम लोचनसिंह के हाथ में न देना चाहिए था। तुम्हारे हाथ में होता तो सुभीते के साथ हो जाता।'
'नहीं महाराज।' जनार्दन बोला, 'मुझी पर तो रानी का पूरा कोप है। उन्होंने
मुझे मरवा डालने का प्रण किया है। मेरे द्वारा वह काम और भी दुष्कर होता।'
राजा ने हँसकर कहा, 'वह तो इस समय संसार को दूसरे लोक में उठा भेजने की धमकी
देती हैं। मैं ऐसे पागलों की बहक की कुछ भी परवाह नहीं करता। मैं चाहता हूँ,
रानी का अब किसी तरह का अपमान न किया जाए और पहरा बहुत हल्का कर दिया जाए। वह
राजमाता हैं, आदर की पात्रा हैं। केवल इतनी देखभाल की जरूरत है जिसमें संकट
उपस्थित न कर सकें।'
'यह बात जरा कठिन है महाराज! पहरा कठोर न होगा तो किसी दिन पूर्ववत् महल से निकल भागकर विद्रोह खड़ा कर देंगी।' जनार्दन दृढ़ता के साथ बोला।
राजा ने एक क्षण सोचकर कहा, 'तब उन्हें बड़ी रानी के महलों में एक ओर रख दो। वहाँ पहले ही से बहुत नौकर-चाकर और सैनिक रहते हैं। पहरा काफी बना रहेगा और रानी को खटकने न पावेगा।'
इस प्रस्ताव को ध्यानपूर्वक सोचकर जनार्दन ने स्वीकार कर लिया।
राजा बोले, और यदि वह लिखा-पढ़ी न कराई जाए, तो क्या होगा? सब जानते हैं, मैं
राजा हैं। एक रानी के मानने या न मानने से क्या अंतर पड़ेगा?'
'जो लोग महाराज!' जनार्दन ने उत्तर दिया, 'भीतर ही भीतर राज्य से फिरे हुए
हैं, उनके लिए लिखा-पढ़ी अमोघ अस्त्र का काम देगी। डाँवाँडोल तबीयत के आदमी
के लिए इतना ही सहारा बहुत हो जाएगा।'
राजा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। इसके बाद दोनों छोटी रानी के पास गए। वहाँ पहुँचने के पहले देवीसिंह ने कहा, 'पंडितजी, बातचीत आपको करनी पड़ेगी। मैं बहुत कम बोलूँगा।'
जनार्दन को कुछ कहने का मौका न मिला। दोनों रानी के पास पहुंच गए। रानी परदे
में थीं। राजा ने देहरी पर माथा टेककर प्रणाम किया। रानी ने आशीर्वाद नहीं
दिया।
बोलीं, 'जनार्दन को यहाँ से हटा दो।' देवीसिंह इस तरह के अभिवादन की आशा नहीं करता था। सन्नाटे में आ गया। उसे अवाक् होता देख जनार्दन आगे बढ़ा। कहने लगा,
'मेरे ऊपर आपका जो रोष है सो उचित ही है, परंतु यदि आप विचार करें, तो समझ में आ जाएगा कि वास्तव में मेरा अपराध कुछ नहीं और मान लिया जाए कि मैं अपराधी हूँ, तो भी आपको माता के बराबर मानता हूँ, इसलिए क्षमा के योग्य हूँ। मैंने जो कुछ किया है, राज्य के उपकार के लिए किया है।'
रानी ने टोककर कहा, 'हम जो दर-दर मारे-मारे फिर रहे हैं, हमारे साथ जो छोटे-छोटे आदमी पशुओं जैसा बरताव कर रहे हैं, हमें बंदीगृह में डाल रखा है, वह सब राज्य का उपकार ही है न पंडितजी? स्मरण रखना, इस लोक के बाद भी कुछ और है और देर-सबेर वहीं जाओगे।'
'सो मुझे सब मालूम है।' जनार्दन ने कहा, 'आपकी मेरे ऊपर जैसी कुछ दयादृष्टि है, वह भलीभाँति प्रकट है, परंतु प्रार्थना है कि अब ऐसा निर्देश कीजिए, जिसमें राज्य का कुशल-मंगल हो।'
राजा ने जनार्दन से पूछा, 'रामदयाल कहाँ है?'
रानी ने तुरंत उत्तर दिया, 'कैदखाने में पैकरे डाले हुए और मुझे जितनी
स्वतंत्रता दे रखी है, उसका बड़प्पन इससे नापा जा सकता है कि स्नान करते समय
भी दो-तीन बाँदियाँ नंगी तलवार लिए सिर पर तनी रहती हैं। एक शूरवीरता का काम
तुम लोगों के लिए और रह गया है-मुझे विष दिलवा दो, या तलवार से कटवाकर फिकवा
दो।'
जनार्दन कुछ कहना चाहता था, परंतु राजा ने आँख के संकेत से मना कर दिया और स्वयं बोला, रामदयाल को मैं इसी समय मुक्त करता हूँ। वह सदा आपकी चाकरी में रहेगा और आप बड़ी कक्कोजूवाले महल में चली जाएँ।'
'न।' रानी ने कहा, 'मैं इसी कैदखाने में अच्छी, जो पहले मेरा ही महल था, आज यातना-गृह हो गया है। इसी में बने रहने से तुम लोगों की शुभकामना अच्छी तरह पूर्ण हो सकेगी। मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी।'
'जाना होगा।' राजा बोले, 'कक्कोजू, यदि तुम यहाँ से उस महल में न जाओगी, तो
मैं सेवा करने के लिए इसी स्थान पर आ रहूँगा।'
रानी कुछ देर चुप रही।
जनार्दन ने कहा, 'आप इसे भी हम लोगों के किसी स्वार्थ की प्रेरणा समझेंगी।
परंतु कृपा करके आप शांति के साथ रहि । सोचिए, आपने इस राज्य के नाश करने में
कोई कसर उठा नहीं रखी। अलीमर्दान को बुलवाया, जो पालर के मंदिर का नाश करने
के लिए कटिबद्ध रहा है, जो दुर्गा के अवतार को भ्रष्ट करने का निश्चय करके
आया था। आप यदि यहीं रहना पसंद करती हैं, तो बनी रहें, किया ही क्या जा सकता
है?'
'झूठ, झूठ, सब झूठ।' रानी ने कड़ककर कहा, 'यह सब जनार्दन का रचा हुआ मायाजाल है। किसी तरह तुम्हीं ने मेरे स्वामी को दवा दे-देकर अधोगति को पहँचाया, न जाने क्या खिला-खिलाकर फिर रोगमुक्त न होने दिया और अंत में प्राण लेकर ही रहे और फिर-' रानी का गला रुंध गया।
राजा बीच में पड़ना चाहते थे, पर यह समझ में न आता था कि इस अवसर पर किस तरह बात को टालकर सांत्वना दी जाए।
जनार्दन ने कहने का निश्चय कर लिया और बोला, और फिर क्या रानी? राजा ने जो कुछ आज्ञा दी, उसका मैंने पालन किया। जिसके भाग्य में भगवान् ने राज्य लिखा था, उसे मिला; आप यों ही हम लोगों की जान की गाहक बन बैठी हैं। महाराज आपके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की योजना करते हैं, तो आप व्यर्थ अपने कष्टों को बढ़ाने की चिंता में निरत हो जाती हैं।'
राजा ने कहा, 'मैंने रामदयाल को मुक्त कर दिया है। आप उसे तुरंत यहाँ भेजें।' जनार्दन रामदयाल को लेने के लिए गया। राजा ने कहा, 'कक्कोजू, आप पंडितजी पर क्रोध न करें। राज्य सँभालने के लिए उन्हें अपना काम करना पड़ता है।'
'कक्कोजू मुझे मत कहो।' रानी ने रोते हुए कहा, 'मैं राजा की रानी हूँ और
तुम्हारी कोई नहीं। यदि कोई होती, तो क्या लोचनसिंह इत्यादि मेरा ऐसा अपमान
कर पाते?'
'जो कुछ हुआ, वह अनिवार्य था कक्कोजू।' राजा बोले, 'जो कुछ हुआ, उसका स्मरण
छोड़ दीजिए। आगे जो कुछ करूँगा, आपकी आज्ञा से।' __ 'जिससे मैं तुम्हें
लिखा-पढ़ी कर दूँ कि राज्य का हक छोड़ दिया।' रानी ने रोना बंद करके, चमककर
कहा, 'यही है न तुम्हारी दयालुता के मूल में?'
राजा ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया। बाँदियों से रानी के आराम के विषय में
बातचीत करने लगे। इतने में रामदयाल को लेकर जनार्दन आ गया।
राजा ने रामदयाल से कहा, 'कक्कोजू को बड़ी कक्कोजूवाले महल में पहुँचा दो। .
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उन्हें यदि किसी तरह का कष्ट हुआ, तो तुम्हें संकट में पड़ना होगा।'
रानी बोलीं, 'तुम उसकी खाल खिंचवाओ और जनार्दन मेरी खाल खिंचवाए।' इस व्यंग्य
का कोई प्रतिवाद न करके दोनों वहाँ से चले गए।
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