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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:३९:

बड़ी रानी के महल में छोटी रानी को रखने के बाद जनार्दन ने सोचा, अच्छा नहीं किया। एक तो यह कि छोटी रानी शायद उन्हें भी विचलित करने की कोशिश करें, और दसरे यह कि वहाँ निकल भागने का अधिक सभीता है। उसे इस बात का पछतावा था कि राजा की भावुकता का नियंत्रण न कर पाया और स्वयं भी एक छोटे-से कष्ट से बचने के लिए दूसरे बड़े संकट में जा पड़ा।

राजा ने छोटी रानी को बड़ी रानी के भवन में भेज देने के बाद पहरा शिथिल कर दिया और रामदयाल को उनकी सेवा में बने रहने की अनमति दे दी। जो लोग बड़ी रानी की टहल में रहते थे, उन्हीं से छोटी रानी पर निगरानी रखने के लिए चुपचाप कह दिया।

परंतु निगरानी नहीं हुई। राजा के साथ उस दिन जो वार्तालाप छोटी रानी का हुआ था, वह लोगों पर प्रकट हो गया। उसी के बाद पहरा ढीला कर दिया गया था। किसे क्या पड़ी थी कि प्रकट व्यवहार को भूलकर गुप्त आदेश का अक्षरशः अनुसरण करे? जिन लोगों को यह काम सौंपा गया था, उन्हें यह भी भय था कि यदि कोई बात राजा की मर्जी के खिलाफ हो गई, तो जान पर बन आएगी और राजा की मर्जी कब क्या है, इस बात का पता लगा लेना किसी साधारण टहलुए या सिपाही के लिए संभव नहीं था। 

इस गलती को जनार्दन ने राजा को सुझाया भी, परंतु उन्होंने यह कहकर जनार्दन को शांत करने की चेष्टा की कि विश्वास करने से विश्वास उत्पन्न होता है। जनार्दन ने ऊपर से तो कुछ नहीं कहा परंतु विश्वस्त गुप्तचर नियुक्त कर दिए। महल के टहलुओं में से इन्हें कोई-कोई पहचानते थे। गुप्तचर के विषय में परस्पर कानाफूसी हुई, वास्तविक स्थिति का अनुमान करने के लिए इधर-उधर के अटकल लगे, चर्चा बढ़ी। रामदयाल को भी मालूम हो गया। दोनों रानियों के लिए भी वह भेद रहस्य न रह गया। छोटी रानी को विश्वास हो गया कि देवीसिंह करता के लिए जिम्मेदार नहीं है, बल्कि जनार्दन-पुराना शत्रु जनार्दन-है। बड़ी रानी को अपने भवन में छोटी रानी का आगमन अच्छा नहीं मालूम हुआ। राजा ने क्यों ऐसा किया? जनार्दन का इसमें क्या मतलब है? मेरे ही महल में क्यों इस विपदा को रखा! इत्यादि प्रश्न बड़ीरानी के मन में उठने लगे।

बड़ी रानी का स्वभाव गिरती पाली का साथ देने का था, परंतु अपने पूर्व वैभव की स्मृति को जाग-जाग पड़ने से रोकना किसकी सामर्थ्य में है? छोटी रानी के लिए उनके हृदय में शायद ही कभी प्रेम रहा हो परंतु उनके कष्टों और अपमानों की बढ़ी हुई, बहुत बढ़ाई हुई, गाथा सुनकर मन खीझने लगा। उस क्षोभ का वह किसी को भी लक्ष्य नहीं बनाना चाहती थीं। राजा देवीसिंह की ओर उनके मन की प्रवृत्ति संधि की तरफ हो चुकी थी और उन्होंने वर्तमान अनिवार्य स्थिति के ऊपर करीब-करीब काबू कर लिया था। परंतु उजड़े हुए गौरव को लुटा हुआ बतलानेवालों की कमी न थी। दलित महत्त्वाकांक्षा का पुरा हुआ घाव कभी-कभी हरा होकर निःश्वास के रूप में गल-गलाकर बाहर आ जाता था।

छोटी रानी की उपस्थिति ने खीझ, क्षोभ और दलित हदय की आहों का सिलसिला जारी कर दिया। मन की इस अवस्था में जनार्दन के गप्तचरों की चिनगारी के समाचार ने उन्हें इस बात के सोचने पर विवश किया कि छोटी रानी को जैसा आश्वासन,बिना किसी विघ्न-बाधा के जीवनयापन कर लेने का दिया है, उसी तरह का मुझे भी दिया गया है, क्योंकि जिस तरह चुपचाप उनकी चौकसी रहती है, उसी तरह अवश्य ही मेरे ऊपर भी रहती होगी।

दो-तीन दिन के बाद छोटी रानी से सलाह करके रामदयाल बड़ी रानी के पास पहुँचा। जब तक दासियाँ पास रहीं, तब तक वह केवल शिष्टाचार की बातें करता रहा। रानी समझ गईं कि किसी गुप्तचर की उपस्थिति के कारण रामदयाल हृदय-तल की बात कहने से झिझक रहा है। अपनी निज की दासियों में भी कोई गुप्तचर नियुक्त है, इस कल्पना पर रानी का जी जल उठा। दासियों को हटाकर रानी ने रामदयाल के साथ अधिक स्वतंत्र वार्तालाप की आशा की।

रामदयाल ने दासियों के चले जाने पर कहा, 'वह आपसे छोटी हैं। आप क्या उनके किए को क्षमा न कर देंगी? जो दुख आपको है, वही उन्हें भी है।'
ठंडी साँस लेकर रानी ने कहा, 'उनमें और सब गुण हैं; केवल एक वाणी उनके काबू में होती, तो वृथा का झंझट आपस में कभी न होता। उनके कष्ट और अपमान की बात सुनकर हृदय बैठ जाता है।'

रामदयाल ने इधर-उधर की बातें करने के सिवा उस समय और कुछ नहीं कहा। जाते समय बोला, 'यदि कक्कोजू आपके पास आएं, तो क्या आपको अखरेगा?' बड़ी रानी की पूजा उनके स्वाभिमान के माप से अधिक हो गई। आँखें छलक पड़ीं। रुद्ध कंठ से कहा, 'वह क्या कोई और हैं? अवश्य आवें।' 'बहुत अच्छा महाराज।' कहकर रामदयाल चला गया। 'महाराज' शब्द के संबोधन में खोखलेपन की पूरी झाई अवगत करके बड़ी रानी को अपनी असमर्थ अवस्था पर परिताप हुआ।

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